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श्री कष्णानस्द गुप्त
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श्री कृष्णानन्द गुप्त का परिचय देना यहां उद्देश्य भी नहीं है और उन्हें हिन्दी-
जगत भलीभांति जानता भी है। बुन्देलखण्ड वीरभूमि कहा गया है। वीररस
साहित्यिक प्रेरणा का स्रोत भी बहुत दिनों तक रहा है और आगे भी रहेगा।
“ इस प्रकार जिस भूमि का, जिस क्षेत्र का और जहां के लोगों का साहित्य से इतना
'घतिष्ट नाता रहा हो, जिनके जीवन में भी यदि उनकी प्रतिभा उनकी लछोकवाणी
में प्रत्येक क्षण व्यक्त होती रही हो तो इसमें आइचर्य क्या ? यह कहावतें जिनका
कि संग्रह इस पुस्तक में किया गया है केवल कहावतें या मुहावरे नहीं हैं बल्कि
बुन्देलों के जीवन, आचार और व्यवहार तथा उनके दृष्टिकोण को व्यक्त करती हैं।
इतना ही नहीं, वह संसार के अन्य प्राणियों के समान सोचने और विचारनेवाले
हैं और उनमें अपनी विशेषता के होते हुए भी एकत्व की अनुभूति है, इसका भी प्रमाण
इन कहावतों में मिलता है। इनमें बहुत सी ऐसी कहावतें हैं जो शब्द-भेद से प्राय:
स्वेत्र कही-सुनी जाती हैं। इनका संग्रह निष्ठा और परिश्रम से किया गया है यह
बात इस पुस्तक के प्रत्येक पाठक को सहज ही सिद्ध होगी। हम आशा करते हैं कि
हिन्दी-जगत इस प्रकाशन का स्वागत करेगा और इन कहावतों में रस लेगा।। हम
अपनी ओर से क्ृष्णानन्द जी को इस' संग्रह के लिए, जो उन्होंने लोक-साहित्य-
समिति के लिए तैयार किया, साधुवाद देना चाहते हैं।
भगवतीशरण सिह
सूचना-संचालक
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संपादक का निवेदल
प्रस्तुत बुन्देली-कहावत-कोश में बुन्देली अथवा बुन्देलखंडी भाषा की तीन
सहस्प से कुछ अधिक कहावतें, कहावत-वाक्य तथा' दोहे संकलित हैं। जहां तक
मैं समझता' हूं किसी एक' जनपद की कहावतों का' यह अपने ढंग का सबसे पहला
और बड़ा संग्रह है। परन्तु वह संपूर्ण भी है ऐसा सोचना ठीक नहीं होगा'। कहा-
वतों का अजस्र भंडार सर्वत्र हमारे चारों ओर बिखरा पड़ा है और किसी. भी एक
स्थान' के कहावत-साहित्य का पूरा लेखा-जोखा लेने के लिए जीवन-व्यापी श्रम
और साधना की आवश्यकता है।
कहावतों को यहां उनके प्रथम शब्द के वर्णानुक्रम से सजा कर रखा' गया है।
केवल ऐसी ही कहावतों को स्थान दिया' गया है जो ठेठ बुन्देलखण्डी समझी गयीं |
मौखिक रूप में प्रचलित होने के कारण कहावतें प्रायः परिवर्तित होकर विभिन्न
शब्दों से आबद्ध हो जाती हैं जैसे, पंच ताँ परमेसुर, जाँ पंच तां परमेसुर; पकें पे
निबौरी मिठात, निबौरी सोई पके पे मिठात, पराये असगुन खों अपनी नाक
कटालो, अपनी नाक कठाकें पराओं असगुन करबो, इत्यादि। ऐसे सब स्थलों
पर पुतरुक्ति दोष से बचने के लिए कहावत का अधिक प्रामाणिक अथवा सुपरिचित
रूप ही दिया गया है। साथ ही, जहां आवश्यकता समझी गयी, उसका पाठान्तर
भी दे दिया गया है। किसी-किसी कहावत में वाक्य-विपयेय भी देखने को मिलता
है, अर्थात् उसके दो खंडों में से कहीं प्रथम खंड पहले बोला जाता है तो कहीं दूसरा
खंड । जैसे, फूटी समें, आंजी न समें, आंजी न समें, फूटी समें। ऐसी कहावत यदि
एक खंड के वर्णानुक्रम में पाठकों को न मिले तो वह दूसरे में मिल जायगी।
प्रत्येक कहावत के नीचे उसका परिनिष्ठित हिन्दी रूप दे दिया गया' है, कठिन
कहावतों का अर्थ स्पष्ट किया गया है, किसी कहावत की यदि कोई अंतर्कथा
हुई तो वह दी गयी है, साथ ही अप्रचलित अथवा दुरूह शब्दों किंवदंतियों वा मूल-
गत धारणाओं और विद्वासों पर टिप्पणियां दी गयीं हैं। कहावतों के विषय में
एक बड़ी रोचक बात यह है कि एक ही प्रकार की कहावतें थोड़े से रूप भेद के साथ ,
हमें अपने देश के विभिन्र प्रान्तों में प्रचलित मिलती हैं। हमाड़े देश की संस्कृति
एक और अखंड है---उसमें चाहे जितने प्रान्तीय भेद्र और पार्थक्य हमें क्यों नदुष्टि- हि क् | । ह
गोचर होते हों, इन कहावतों के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिद्ध किया जा सकता क्
है। पाठकों पर इस तथ्य को प्रकट करने के लिए बुन्देलखंडी कल्टावतों से मिलंती- औ ः | ।
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जुलती बंगला, गुजराती और मराठी भाषाओं की कहावतों के प्रचुर उदाहरण
दिये गये हैं। ऐसी अनेक कहावतें हैं जिनकी कथाएं हमें जातक, पंचतंत्र, कथा
सरित्सागर अथवा महाभारत में उपलब्ध होती हैं। यथास्थान इस तथ्य' का उल्लेख
किया गया है। आशा है मेरे इन सब प्रयत्नों से संग्रह की उपयोगिता बढ़ी होगी
और वह साधारण पाठकों से लेकर इस विषय के प्रेमी विद्वानों और शोधकर्तता
विद्यार्थियों तक के लिए समान रूप से रोचक एवं पठनीय' सिद्ध होगा।
संग्रह में ऐसी कहावतों को छोड़ दिया गया' जो बहुत अधिक अइलील थीं
अथवा जिनमें किसी जाति या देश पर कटाक्ष किया गया था।
इन कहावतों के संग्रह-कार्य को मैंने आज' से लगभग सत्तरह वर्ष पूर्व प्रारंभ
किया था। उसमें मुझे समय-समय पर अपने विभिन्न मित्रों और साहित्यिक-
कार्यकर्त्ताओं, तथा अपने निवास-स्थान के अनेक ग्रामवुद्ध सज्जनों और कृषकों से
जो सहायता मिली उसके लिए उन' सबको पृथक-पृथक धन्यवाद देना मेरे लिए
बड़ा कठिन है। उनमें से अधिकांश इस कार्य के मूल्य को नहीं जानते। वे यही
समझते रहे कि या तो मैं विक्षिप्त हो गया हूं जो लोगों से इन देहाती 'टठहुकों' अथवा
'कहनातों' या अहानों' को पूछता फिरता हूं अथवा फिर उनके परिवर्तन में मुझे
कोई बहुत बड़ी निधि मिलने वाली है। परन्तु मैं उन्हें बता नहीं सकता कि एक
कितने बड़े उपयोगी और महत्वपूर्ण कार्य में उन्होंने मेरा हाथ बंटाया। जिनसे
मुझे एक कहावत भी प्राप्त हुई उनका मैं बहुत अनुगुहीत हूं।
. संग्रह की पाण्डुलिपि तैयार करने में मेरे मझले पुत्र चि० विनोद कुमार ने
विविध रूपों में मेरी बड़ी सहायता की। उसके लिए वह मेरे निकट धन्यवाद की
अपेक्षा नहीं रखता। वह बीमार पड़ा है। वह चिरायु हो और साहित्य-सेवा में
उसकी रुचि बढ़े। भगवान से यही मेरी प्रार्थना है।
सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश के' संचालक-श्री भगवतीशरण सिंह ने मेरे इस
.. संग्रह को इतने सुन्दर ढंग से अपने विभाग से प्रकाशित करने की जो कृपा की है
. » क्मार्चे, १९६०
उसके लिए मैं उनके प्रति अपना आन्तरिक आभार प्रदर्शित करता हूं। साथ ही
ग्रहां अपने आदरणीय मित्र पं ० श्रीनारायण चतुर्वेदी के निकट भी मैं अपनी हादिक
कृतज्ञता प्रकट किये बिना रह नहीं सकता " उर्तकी सतत सौहार्दमयी प्रेरणा के-
बिना यह ग्रन्थ मूँ तैयार भी कर सकता और वह प्रकाशित भी होता, इसमें मुझे
सन्देह है। ४
ग्रौठा (झांसी) ।
कृष्णानन्द गुप्त
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अँंखियन ओद पहाड़ ओठ।
आँख से ओझल हुए तो मानों पहाड़ की ओट हो गये । कोई मनुष्य जब तंक
आँख के सामने रहता है तभी तक हमें उसका ध्यान रहता है।
काडी आड गेला तो पर्वता आड मेला ।--मराठी ्ा
( तिनका ओोट हुए तो पहाड़ थोट हुए।).......
अँंड को म॒दंग। ४ ह
एरंड का मृदंग बनाना । बेतुका काम करना ।
एरंड की लकड़ी बड़ी कमजोर और रेशेवाली होती है। उसका मृदंग तो
क्या कोई वस्तु नहीं बन सकती ।
अदरन में काने राजा। .
_अंधों में काने राजा ।
अँदरा कबे पतयाय जब आँखन देखे। .
अंधे को किसी बात का तभी विश्वास होता है जब अआँखों से देखे ।
मूर्ख को हर बात का प्रत्यक्ष प्रम्मुण चाहिए ,।
अंदरा को सुद ।
अंधें की सीध । बेअंदाज का काम । झ »
अंधेर | [ बन्देली कहावत कोश
अँदरा खोदे काँदी मेव गिने ना आँदी।
अंधा आदमी घास खोदते समय न तो मेह की परवा करता है, न आँधी की |
आँख मूंद कर काम करना ।
अँदरा बाँटे जेवरी' पाछे बछरा खाय।
( १-मूँज की रस्सी | ) अंधा रस्सी बँट रहा है और पीछे बछड़ा खा रहा है।
जब मनुष्य अपने परिश्रम से उपाजित धन की रक्षा न कर सके और
दूसरे उसका उपभोग करें तब कहते हैं ।
अँदरा बाँटे रेवड़ी चीन चीन के देय ।
'किसी वस्तु को बाँटते समय हेर-फेर कर अपने जान-पहिचान वालों को ही देना ।
अँंधियारी गई के चोर।
अबेरी रात आने पर चोर चोरी करता ही है। जब कोई मनुष्य खोटा
काम करके छिपाये तब कहते हें। तात्पयं यह कि तुम्हारी तो आदत पड़
गयी है, मौका पाते ही तुम फिर वही बुरा काम करोगे, तब पता
चल जायगा । ।
.... .. अंधे पीसें कुत्ते खायें।
..... दें० क० अँदरा बाँटे जेवरी ।
अंधेर नगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा |.
( १-एक प्रकार. की मिठाई ) जहाँ झ्ासन में कोई विधि-व्यवस्था न
हो वहाँ कहते है ।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इस पर एक बढ़िया प्रहसन लिखा है, जिसका
सारांश है---
किसी समय एक गुरू और उनका चेला तीर्थयात्रा को बाहर निकले |
एक नगर में पहुँच कर गुरू ने चेले को आटा लाने के लिए बाजार भेजा ।
चेले ने सभी चीजें एक ही भाव' पर बिकते देख कर मिठाई खरीद ली । गुरू
ने यह देख कर ऐसी अंधेर नगरी में रहनश पसंद नहीं किया और चेले को वहीं
छोड़ वे दूसरी जगह चले गये । इधर उनका चेला अंधेर नगरी में बढ़िया-
बढ़िया मिष्ठान्न और दूध-मलाई खाकर खूब मोटा-ताजा हो गया | संयोगंवश
। र् वकमा
बन्देली कहावत कोश ] [ अक्कल
उस नगर में किसी का खून हो गया । बहुत तलाश करने पर भी जब खूनी
का पता नहीं चला तो राजा ने इसी मोटे चेले को फाँसी की आज्ञा दी ।
गुरू को पता चला तो वे चेले को छुड़ाने आये और बोले--यह निर्दोष है ।
खून मैंने किया है । इस पर गुरू को ज्यों ही फाँसी दी जाने लगी त्यों ही
चेला चिल्ला उठा--नहीं, नहीं, खून मैंने ही किया है। गुरू जी निर्दोष हैं ।
इस प्रकार घंटों वाद-विवाद होने के पदचात् दोनों की रिहाई हो गयी ।
अँंसुआ न मसुआ, भेंस केसे नकुआ
व्यर्थ रूूने और नाक फुलाने वाले बच्चों के लिए कहते हैं।
अक्कल उधार नईं मिलत।
अकक््ल' उधार नहीं मिलती ।
अक्कल के दुस्मन
अक्ल के दुश्मन । मूर्ख ।
अक्कल के पाँच ठका लगत
अक्ल के पाँच टके लगते हैं। अर्थात् बुद्धि पाने में पैसे खर्च होते हैं ।
अक्कल के पाछें छट॒ठ लगें फिरत
अक्ल के पीछे लट्ठ लिये फिरते हैं। बुद्धि को तिलाञ्जलि दे रखी है।
अक्कल कोऊ की बाँटी नइयाँ
भगवान् ने बुद्धि सब को दी है। वह किसी एक आदमी के हिस्से नहीं पड़ी
अथवा बुद्धि किसी को बाँदी नहीं जा सकती ।
अक्कल कौ अजीरन।
अक्ल का अजी्ण। (१) समझबूझ कर काम न करना। (२) बहुत
बुद्धिमानी प्रकट करना ।
अक्कल पे पथरा पर गये
अक्ल मारी गयी।।
अक्कल बड़ी के भेंस। #
| बड़ा या बलवान होना ही सब कुछ नहीं, वरन् बुद्धि इन सबसे बड़ी वस्तु है।
हर कट, ... अक्ल नड़ी कि बहस |--फेलन
अकेलो ] [ बन्देली कहावत कोच
अक्कल बड़ी चीज।
इसलिए कि उससे सब काम बनते हैं।
अक्कल बजार में मिले तौ कोऊ म्रख काये खाँ रये।
अक्ल बाजार में मोल मिले तो कोई मूर्ख क्यों रहे ? अर्थात् अक्ल पैसे से
नहीं खरीदी जा सकती ।
अक्कल बिन पुत लठेंगर' से। लरका बित बऊ डेंग्र' सी।
(१-लकड़ी का लठ्ठा, कुंदा । २--भगोड़े बेल या' ढोर के गले में लटका
हुआ लकड़ी का मोटा डंडा, जिसका दूसरा सिरा जमीन पर पड़ा रहता है
ओर ढोर के चलने के साथ घसिटता हुआ चलता है, उसके कारण ढोर
भागने नहीं पाता; लंगर; डेंगना; भार-स्वरूप वस्तु ।)
बुद्धि के बिना लड़का दूँठ की तरह है और पुत्र के बिना बहू
डेंगर की तरह अर्थात् एक विपत्ति। ल्
अक्कल से खुदा पहिचानों जात।
परमेद्वर बुद्धि से पहचाना जाता है ।
.अक््कल सें सब काम बनत।
बुद्धि से सब॑ काम बनते हैं।
अकुलाएँ खेती, सुसताएँ बंज। मिल मय फ
खेती में तुर्त-फु्त॑ और व्यापार में चैयें से काम छेने पर ही सफलता
मिलती हूं ।
अकेली हरदसिया सबरो गाँव रसिया।
एक वस्तु के अनेक ग्राहक। । ह
पा एक अनार सौ बीमार--फेछत
.. अकेले सुभान रोवें के कबर खोदें।
अकेला आदमी क्या-क्या करे । ७
अकेलो चना भार नई फोरत।
अकेला आदमी कुछ नहीं.कर सकता । परस्पर सहयोग से सब काम होता है ।
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बुन्देली कहावत कोश ] [ भगारी
अकौओ से हाती नई बँदत।
आक वृक्ष से हाथी नहीं बँघते । बड़ों का काम छोटों से नहीं निकलता ।
अक्का कोदों नीम बन, अम्मा सौरें धान।
' राय करोंदा जनरी उपजे अमित प्रमान।॥।
जिस वर्ष अकौआ में खूब फूल आता है उस वर्ष कोदों, जिस वर्ष नीम
खूब फूलता है उस वर्ष कपास, जिस वर्ष आम में खूब बौर आता है
उस वर्ष धान, और जिस वर्ष रायकरौंदा खूब फलता है उस वर्ष ज्वार की
फसल अच्छी होती है। कृषि-संबंधी छोक-विश्वास ।
अगनौआ बतर पाऊंँ तौ गेहेँ गाय बताऊं।
(१-अहिवनी आदि २७ नक्षत्रों में से ८वाँ नक्षत्र, पुष्य नक्षत्र | २-वर्षा
के दिनों में धूप निकलने पर खेती के काम के लिए मिलने वाला
अवकाश ) किसान कहता है कि भादों के महीने में यदि मुझे जोतने-
बखरने का अवकाश मिल जाय तो में गेहूँ की बढ़िया फसरू पैदा करके
बताऊ । क्ृ० ।
अगहन दार कौ अदहन।
अगहन के महीने के दिन उसी तरह शीघ्र निकल जाते हैं जिस प्रकार दाल
के पानी का उफान ज्ीघत्र शान्त हो जाता है ।
अगारी तुमाई, पछारी हमाई।
आगे का हिस्सा तुम्हारा, पीछे का हमारा। ऐसे स्वार्थी व्यक्ति के लिए
जो किसी वस्तु का सबसे बड़ा भाग स्वयं लेना चाहे ।
कथा--दो भाइयों ने साझे में भैंस खरीदी। उनमें से एक बड़ा होशियार
था। उसने दूसरे से कहा--देखो भाई, हम लोग इस भैंस का आधा-साझा कर-
लें तो हम लोगों में फिर कभी किसी बात का झगड़ा नहीं होगा । भेंस का
गे का हिस्सा तुम ले छो और पीछे का मुझे दे दो । दूसरे ने इस बँटवारे
को स्वीकार कर लिया । उसके अनुसार वह तो भैंस को चारा दाना खिलाया
करता और दूध दूसरा भाई दुह लिया करता ।
बहाना प् समक।
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अड़की | [ बन्देली कहावत कोश
अगिया' कहे पाँवर' से रोय। तोरे मोरे रहे का खेती होय।
(१-फसल को हानि पहुँचानेवाली एक प्रकार की घास । २-एक छोटा जंगली
पौधा, पँवार ।) जिस खेत में अगिया और पँवार पैदा हो जाता है उसमें
फसल अच्छी नहीं होती । क० ।
अग्गम सोचे बानिया।
वैश्य हर काम सोच-विचार कर करता है ।
अजगर के दाता राम।
भगवान् सबको देता है ।
द अजगर करे न चाकरी, पंछी करें न काम ।
दास मलका कह गये, सबके दाता राम ॥।
अठकर की फातियाँ पड़बो।
(१-फातिहा, मुसलूमानों के यहाँ मरे हुए लोगों के नाम पर पढ़ी जाने वाली
प्राथंना) अटकल की फातिहा पढ़ना । ऊटपटठाँग हाँकना । बेअंदाज
बात करना ।
अटकर पंच्चू डेढ़ सो।
बिना जाने समझे बात कहना । गप्प हाँकना ।
अटन' की टटन में, टटन की अटन में।
(१-टटन का अनुप्रासमूलक शब्द अथवा अठा अठारी २-ठटठा का
बहुवचन, बाँस की फंचियों या पतली टहनियों की बनी ठट्ठी ।) इधर
की वस्तु उधर रखना। बे सिर-पैर का काम करना ।
अड़की ऊँट लगोौ, पे अड़की तो चइये।
अड़की में ऊँट बिकता है, पर अड़की तो चाहिए ।
पैसा न होने पर सस्ती चीज भी महगी लगती है ।
अड़की की डुकरों टका मुड़ावनी।
लाभ तो थोड़ा और खर्चे अधिंक । चीज तो सस्ती, पर उसकी देखभाल या
मरम्मत में असल से ज्यादा खर्चे होना ।
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बन्देली कहावत कोश ] [ अत
अड़की की हँड़िया फूटी सो फूटी, कुत्ता की जात तौ पेंचानी।
हानि हुई तो हुई, पर किसी एक व्यक्ति के स्वभाव से परिचित तो हुए।
अड़की की हंड़िया ठोक-बजा के लई जात ।
अड़की की हाँड़ी भी ठोक-बजा कर ली जाती है। सस्ती से सस्ती वस्तु
चाहिए
अड़की के नौनियाँ कों नौ दमरीं लगतीं।
(१-भ्रीष्म ऋतु में होने वाला एक हरा साग, कुलफा । २-दमड़ी, पैसे का
आठवाँ हिस्सा ।) किसी चीज का खरीदना आसान होता है, पर उसे
व्यवहार योग्य बनाने या उसके रख-रखाव में असल से अधिक खर्च हो जाता है ।
अड़की कौ दूद खपरिया में खोवा।
जैसा थोड़ा काम वैसा उसका परिणाम । जैसा साधन वैसी सामग्री ।
अड़ाई दिन के बादसा।
अढ़ाई दिन के बादशाह | संयोगवश थोड़े समय के लिए किसी ऊँचे पद पर
पहुँच कर रोब दिखाने वाले के लिए व्यंग्य में प्रयुक्त । विवाह के अवसर
पर दूल्हे को अढ़ाई दिन का बादशाह कहते हैं।
अड़ी कौ पाँसो।
चौपर के खेल में गोट मारने के लिए ३, ४, ९, १०, १५ आदि के दाव मुश्किल 0)
से पड़ते हैं, और इन संख्याओं वाले पाँसे अड़ी के पाँसे कहलाते हैं। उसी से
कहावत बनी । दो आदमियों के बीच बेढब तरीके से कोई बात अठक जाने
पर प्रयुक्त । ॒
अड़आ नातो, पड़आ गोत।
जैसा नाता वैसाही गोत । बे पते-ठिकाने के ऐसे व्यक्ति के लिए जो जबर्द॑स्ती
अपना रिश्ता निकालता फिरेश
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(१-एक वृक्ष विशेष, सहजत ।) अति करने-वार्ल्य नाश को प्राप्त होता है ।
भी देखभाल कर खरीदनी चाहिए। हर काम समझ-बूझ कर करना
अधरस ] [ बुन्देली कहावत कोश
अत बुरई होत।
अति बुरी होती है ।
अत कौ भल्रों न बोलनों अत की भली न चुप्प।
अत कौ भलौ न बरसबो अत की भली न धुप्प ॥
बोलना, चुप रहना, वर्षा और धूप ये चारों बातें आवश्यकता से अधिक
अच्छी नहीं ।
अंते सो खपे।
अति करने वाला मारा जाता है ।
अथाई के लोग टिड़कना और नकटा नाऊ।
( १--बैठने का स्थान, घर के सामने का चबूतरा, चौबारा। २--तिनकने
वाले, बुरा मानने वाले ।) गाँव का नाई नकटा है और अथाई के लोग उसे
देख कर तिनकते हैं क्योंकि नकटे को देखने से अशकुन होता है।
जब किसी आदमी को देख कर चिढ़ लगती हो, परन्तु उससे पिंड न छुड़ाया
जा सके तब कहते
'..... . अदकुचले साँप।
ऐसा दुष्ट व्यवित जिसे पूरा दण्ड दिये बिना छोड़ दिया गया हो
“. . अदियाँ आप घर, अदियाँ सब घर॑।
पूरे में से आधा अपने लिए और आधा सब घर के लिए। लालची व्यक्ति के
. लिए।
अध-जल गगरी छलकत जाय।
. ओछा आदमी इतरा कर चलता है ।
. /. . . उथल पाण्याला खकखी फार व दुबले माणसाला वदाई फार। --मराठी
(उथला पार्न। बहुत खलबलाता है, दुबला आदमी बहुत जोर दिखाता है।)
अंधरम से धन होत है बरस पाँच के सात |
अन्याय से कमाया गया धन बहुत दिनों नहीं रहता।
बा अन्यायोपाजितं द्र॒व्य॑ं दशवर्षाणि तिष्ठति।'
” प्राप्ते एकादश वर्ष समूलं च विनश्यति।॥
बजट की
बन्देली कहावत कोश ] [ अच्च
अधिक स्पाने की बाँसे' से उड़ाई जात।
( १-नाक के ऊपर की हड्डी ।) अधिक स्याने की नाक बाँसे समेत काटी
जाती है। जो जितना चतुर होता है वह उतना ही अधिक धोखा भी
खाता है।
अघीरे कौ लेवे नई, उछीने कौ खाबे नई।
उतावले से कभी ऋण न लें, श्रोछ्ले का कभी अन्न ग्रहण न करे; क्योंकि
उतावला आदमी जल्दी पैस। वापिस माँगेगा, और ओझोछा खिलाने-पिलाने
का अहसान जतायेगा ।
अनगायें खेती, बनगायें बंज।
किसी गाँव में खेती और किसी दूसरे में व्यापार, यह नीति ठीक नहीं ।
अनबद खेला।
बिना बँधा बछड़ा । स्वतंत्र व्यक्ति ।
अन बियानी कौ घी बांधत ।
जो गाय बियानी' नहीं उसके घी की आशा' करना,
अनसाँगें मोती मिले माँगें मिले न भीख।
बिना माँगे मोती मिलते हें, माँगने से भीख भी नहीं मिलती। माँगना
बुरा है।
अनो चकें हजार बरस की आरबल ।
(१-सं० अणि, अवधि, संकट की घड़ी । २-आयुर्बल, उम्र ।) सिर पर
ग्रायी विपत्ति टल जाने पर मानों हजार वर्ष की आयु मिली ।
अनोखी नान', बाँस की नहन्नी।
(१-नाइन, नाई की स्त्री ।) कोई तया अनोखा शौक करने पर ।
अश्न-जल की बात है। ।
अन्न-जल कहाँ ले जाये इसका कुद्धू ठीक नहीं।
अन्न तार, अन्नई मार।
अन्न से ही जीवन की रक्षा होती है, भौर अन्न ही प्रूण-घक्तक भी होता है ।
अपनी ] [ बन्देली कहावत कोश
अच्च-धन अंनेक धन, सोनो-रूपो कितेक धन।
ग्रन्न ही सच्चा धन है, सोना-चाँदी उसके सामने कुछ नहीं ।
अन्न-धन अनेक धन, सोनो-रूपो आधो धन, पूँछ डुलावन कछ नईं।
अन्न-धन ही सच्चा धन है, सोना-चाँदी श्राधा धन है और पूंछ डुलाने वाले
. “गाय बैल आदि--तो उसके सामने किसी गिनती में नहीं ।
अपनी अठकें गदा से दहां कनें परत।
गरज पड़ने पर छोटे झ्रादमी को भी हाथ जोड़ने पड़ते हैं ।
बखत आवे बाँका तो गधे कुं कहेना काका। --गुजराती
. अपनी अपनी जोन' में सब सुखी।
(१-योनि, देह, शरीर ।) अपनी स्थिति में सब प्रसन्न रहते हैं।
अपनी-अपनी ढफली, अपनो-अपनो राग।
मन माना काम। नियम-व्यवस्था का अभाव ।
अपनी अपनी दार, न्यारी न्यारी टार।
अपना-अपना काम स्वयं देखो ।
अपनी-अपनी परी आन, को जावे कुरयाने कान।
सब अपनी-अपनी मुसीबत में है, कुरयाने कौन कहने जाय, अर्थात् कौन दूसरों
की फिक्र करे ? कुरयाना। कोरियों का मुहल्ला।
. अपनो-अपनी बुद्ध।
हर आदमी की बुद्धि दूसरे से भिन्न होती है।
.. अपनी असल पे आ गये।
. अपनी असलियत खोल दी कि हम कैसे हैं।
अपनी करनी पार उतरनी।
अपने ही हाथ काम पूरा होता है»
अपनी इज्जत अपने हाथ।
ओछे के मुँह नहीं लगबा चाहिए।
जमा १ 0 बथ
क्र
बुन्देली कहावत कोच ] [ अपनी
अपनी खालें और और की खालें तौ का देओ ?
अपना हिस्सा खा जायें और दूसरे का तो क्या दोगे ?
स्वार्थी या तिकड़मी के लिए कहते हें ।
अपनी जाँघ उघारो, अपनी लाजन मरो।
घर वालों का कोई दोष प्रकट होने से स्वयं ही छज्जित होना पड़ता है।
अपनी टेक भेजाई, बलसा कौ मूंछ कटाई।
अपनी हठ को पूरा करने के लिए अपनों को हानि पहुँचाने वाले के लिए।
कथा-किसी समय एक पुरुष और उसकी स्त्री में इस बात को लेकर बहस हुई
कि स्त्री ओर पुरुष दोनों में कौन बुद्धिमान और चालाक है। स्त्री अपनी जाति
की प्रशंसा करती और पुरुष अपने को श्रेष्ठ बताता। एक बार स्त्री बीमारी
का बहाना करके लेट रही। उसके पति ने बहुत इलाज किया, परन्तु आराम
नहीं हुआ । एक दिल स्त्री ने कहा, तुम अपनी मूँछ मुड़ा डालो तो में अच्छी
हो जाऊंगी। पति ने ऐसा ही किया। दूसरे दिन ही स्त्री चारपाई से उठ
बैठी और मजे में चक्की पीस कर गाने रगी--
अपनी टेक भँजाई, बलमा की मूंछ कटाई।
सुन कर पति को पता चल गया कि, अरे, यह तो मेरे साथ चालाकी कर गयी ।
वह अपनी ससुराल गया और सास से बोला कि तुम्हारी लड़की बहुत बीमार
है। तुम सब यदि अपना सिर मुड़ा कर और गधे पर सवार होकर उसके ' ०“.
सामने चलो तो वह अच्छी हो सकती है। इसके अतिरिक्त कोई और उपाय
नहीं। माँ को लड़की बहुत प्यारी होती है। उसने अपना और अपनी बहुओं . ......
तथा लड़कियों का सिर मुड़वा लिया और सबके साथ गधे पर सवार होकर.
लड़की के दरवाजे आयी। उस समय चक्की पीसते हुए वह अपना बह्ढी
गीत गा रही थी कि--अपनी ट्रेक भजाई, बलमा की मूंछ कटाई। तभी
उसके पति नें सामने जाकर कहा-- देख री लुगाई, जा मुँडियन की पलटन
आई।' सुन कर और अपनी मा बहिनों और भावजों को ऐसी बुरी अवस्था
में देख कर स्त्री बड़ी लज्जित हुई।
ब्यी आ न
अपनी ] [ बुन्देली कहावत कोश
अपनी डाढ़ी कों मुसरका पेलें दओ जात।
( १-मलने या मसोसने की क्रिया।) अपनी दाढ़ी पहिले मली जाती है।
अपनी विपत्ति टालने का प्रयास पहिले किया जाता है।
इस पर एक चुटकुला है--एक बार अकबर और बीरबल बेठे अपनी-अपनी
दाढ़ी पर हाथ फेर रहे थे। अकबर ने सहज में पुछा---बी रबल, यदि हम दोनों
की दाढ़ी में आग लग जाय तो तुम क्या करोगे ? बीरबल ने तुरंत उत्तर
दिया --- अन्नदाता अपनी दाढ़ी को पहिले मुसरका दिया जाता है।
अपनी दाढ़ी सब बुझाते हँ--फेलन
अपनी तौ जा देहिया -नईंयाँ।
अपनी तो यह देह भी नहीं। संसार में कोई वस्तु अपनी नहीं ।
अपनी देरी' पे कुत्ता नाहर।
(१-देहरी, दरवाजा।) अपने घर पर सभी बलवान बन जाते हैं।
अपनी नाक कटा के दूसरन खों असगुन करबो ।
अपनी नाक कटा कर दूसरों को असगुन करना ।
: दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए अपनी हानि कर डालना।
निजेर नाक केटे परेर यात्रा भंग | --बंगला
अपनी नींद सोबें, अपनी नींद जगें।
स्वतंत्र । किसी से कोई मतलब नहीं ।
. अपनी पीठ अपुन खों नईं दिखात।
... अपने दोष अपने को नहीं दिखायी देते ।
._ अपनी ब्याई कौ का लवाइयत ?
अपनी विवाहिता स्त्री को लिवाने क्या जाना ? जो वस्तु अपनी है उसे किसी
से क्या माँगना ?
अपनी सताई से कोऊ भट्टी नईं कत।
अपनी माँ को कोई बुरा नहीं बताता ।*
अपनी लाज अपने हाथ।
अपने सम्मान की रक्षा का स्वयं ही ध्यान रखना चाहिए।
क द “ 3१२ «-
बुन्देली कहावत कोद ] [ अपने
अपनी लार तौ सिमटत नहयाँ जगत्तर कौ भारो बाँदें।
अपनी लार तो सिमटती नहीं, जगत का भार उठाने को तैयार हैं।
अपना काम तो बनता नहीं, दूसरे का करना चाहते हैं।
अपुनई गावें अपुनईं बजावें।
अपने रंग में आप मस्त।
अपने अठकें सौत के मायके जाने परत।
अपनी गरज पड़ने पर सौत के मायके भी जाना पड़ता है।
गरजमन्द आदमी सब कुछ करता है।
अपने अपने भाग्गन सब खात।
सब अपने अपने भाग्य से खाते हैं।
इस पर एक कथा है जो इस प्रकार है--एक राजा के चार लड़के थे।
एक दिन उसने उतको बुला कर पूछा---तुम सब किसके भाग्य से खाते हो ।
' तीन ने उत्तर दिया--हम सब आपके भाग्य से खाते हैं। परन्तु चौथे से जब
यही प्रइन किया गया तो उसने उत्तर दिया--संसार में सब मनुष्य अपने भाग्य
से जन्मते और अपने भाग्य से खाते-पीते हैं। में भी अपने भाग्य से खाता
हँ। लड़के की यह बात राजा को बहुत बुरी छगी और उसे घर से निकाल
दिया कि देखें तुम किस प्रकार अपने भाग्य से खाते हो। लड़का कुछ दिनों
इधर-उधर घूमने के पश्चात एक राजा के राज्य में पहुँचा जहाँ संयोग से
उसकी पुत्री के साथ उसका विवाह हो गया और दहेज में आघा राज्य भी :
मिल गया। उसके पिता को जब यह समाचार मिल! तो उसे स्वीकार करना
पड़ा कि वास्तव में सब अपने-अपने भाग्य से खाते हैं।
अपने आँगें सब कोऊ राजे डाॉड़त।
अपने आगे सब राजा को भी दंड देते हँँ। पीठ पीछे सब दूसरों को बुरा-
भला कहते हैं। |
अपने कान अपने हातंन नई छेंदे जात
१-स्वयं अपने हाथ कष्ट नहीं भोगा जाता। २-जो काम जिसका है वहीं
करता है। 9 |
- श््े-
' अपने ] [ बन्देली कहावत फोश
अपने घर के सब राजा।
अपने घर में सब बड़े होते हें।
अपने चना पराई पौर में नई चबाये जात।
अपने चना दूसरे की पौर में ले जाकर नहीं चबाये जाते ।
अपना पैसा खर्च करके दूसरों को यश देना समझदारी' नहीं।।
अपने दये को का लियत ?
दी हुई वस्तु का क्या माँगना ? जो वस्तु अपनी ही है उसका कया लेना ?
अपने दाम खोटे तौ परखेये का दोस ?
जब घर का ही आदमी बात न सुने अथवा खोटा काम करे तब दूसरों से क्या
कहा जाय ?
जा है कीरत नंद बाबा की
ले गई मोह कन्हेंये।
अपने खोटे दाम ईसुरी
दोसः. कौन परखेये।
- ४. अपने बाप की सौ बहोर लईं।
. अपने बाप से सौ बार क्षमा माँगी जा सकती है, पर दूसरों के साथ ऐसा
नहीं किया जा सकता।
अपने सठा कों कोऊ पतरो नई कत।
अपने मंठे को कोई पतला नहीं बतलाता। अपनी वस्तु को कोई बुरा नहीं
कहता ।
अपने मरे बिना सरग नईं दिखात। |
अपने हाथ से किये बिना काम नहीं होता।
आप मुवा बिना स्वर्ग न जवाय--गुजराती
अफ् मद्यां बिता स्वर्ग नि दिखदें--गढ़वाली-
अपने मों धनाबाई। ।
अपने मुँह से अपनी प्रशंसा करना ।
बमक १४ न्ब्क
छः
बुन्देली कहावत कोदा ] [ अपनों
अपने हातन अपनी आरती।
स्वयं अपने को बड़ा बताना।
अपने हातन अपने पाँव पे कुलरिया सारबो।
अपने हाथ अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना । अपनी हानि आप ही करना।
अपने हातन पाँव पे पथरा पठकबों।
आपही अपनी हानि करना।
अपनों अपनों कमाओ, अपनों अपनों खाओ।
जब किसी परिवार के छोग मिल-जुल कर नहीं रहते, अथवा एक साथ काम
नहीं करते तब ।
अपनों अपनों दुख सब रोऊत।
अपना-अपना दुखड़ा सब रोते हैं।
अपनोंईं राग अलापत।
अपनी ही बात कहते हैँं। दूसरों की नहीं सुनते ।
अपनों कायदा अपने हात।
अपने सम्मान की रक्षा का ध्यान स्वयं ही रखना चाहिए।
अपनों खता अपने हातन नईं फूठत।
अपनी व्याधि अपने हाथ दूर नहीं होती ।
अपनों खाओ, परोसी खों डराओ।
अपनी कमाई खाओ, पड़ोसी से डरो।
अपनों घर देखो। +
अपना काम सँभालो। इधर-उधर की बातों में मत पड़ो ।
अपनों घर सबे सूजत।
अपना घर सबको सूझता है। (१) अपने नफे-नुकुसान पर सबकी नजर रहती
है। (२) समय पर अपना घर सनको याद आता है।
अपनों दूर सें सुजत। दे
अपना दूर से सूझता है। अपने आदमी का सब ध्यान रखते हैं। ..
कप
हे
॥ |
अपनों ] [ बन्देली कहावत कोश
अपनों पुृत, पराओ ढढींगर ।
(१-फालतू आदमी, आवारा ।) अपना पुत्र तो पुत्र, दूसरे का ढटींगर । अपने
पुत्र को लोग जितना प्यार करते हैं उतना दूसरे के पुत्र को नहीं।
अपनों पेट तो कुत्ता भर लेत।
अपना पेट तो कुत्ता भी भर लेता है।
स्वार्थी व्यक्ति के लिए ।
अपनों मरन, जग हाँसी।
.. अपना तो मरना और दूसरे केवल हँसते हैं। दुःख में कोई साथ नहीं देता ।
अपनों मों चीौकनों करें फिरत। । ।
अपना मुंह चिकना किये फिरते हैं। केवल अपनी ही चिन्ता करना जानते हैं ।
अपनों रूप और पराओ घन सब भौत दिखात। द
अपना रूप और पराया धन सबको बहुत दिखायी देता है।
अपनों लेने का, पराओ देने का ?
अपना लेना क्या, पराया देना क्या ? दोनों में कोई अहसान नहीं ।
अपनों सूप सोय दे, तें हातन फटक ।
अपना सूप मुझे दे, तू हाथों से फतक ॥_ द
केवल अपना ही हित देखनेवाले के लिए कहंते हैं।
अपना नयना मुझे दे तू घूम फिर के देख। -“-फेलन
अपनों सो अपनों, पराओ सो सपनो। द
समय पर अपना आदमी ही काम आता है, दूसरा नहीं।
अपनों सौ मों लेके रे ग्ये।..... क्
अपना सा मुंह लेकर रह गये। अर्थात् चुप हो गये। कुछ कहते नहीं बना ।
अपनों हात, जगन्नाथ कौ भात। .. ४
अपने हाथ से बना भोजन मानों जगन्नाथ का भात।
अपने हाथ का कार्य सर्वोत्तम होता है।
ल्न्म्क ५ है लिन
कि
बुन्देली कहावत कोश]... [ अंबे
अपुन खायें, औरे ग्यास बतायें।
स्वयं तो खायें, दूसरों से कहें एकादशी-ब्नत रखो ।
स्वयं आचरण न करके दूसरों को सीख देना ।
अपुन तो पाँडे अठाई', औरे गेल बतायें।
(१-आततायी, उपद्रवी ।) स्वयं तो उपद्रवी, दूसरों को मार्ग बताते हैं।
अपुन बीती कयें क॑ पर बीती ?
अपनी बीती कहें या पर बीती ? अर्थात् अपनी बात क्या कही जाय ?
अपुन हता, जगन्नथा।
१-अपने हाथ से काम करने वाला मानों संसार का मालिक है। २-अपने
हाथ का काम सबसे बढ़िया होता है।
अपुन हतू पतरपथ् ।
(१ -हाथ की बनी मोटी रोटी जो पानी रूगा कर बनायी जाती है।) अपने
हाथ से मोटो रोटी ही बना छी । अपने हाथ से चाहे जैसा कार्य कर लिया वह
अच्छा ही होता है।
अफरो भूंके की कदर का जाने ?
जिसका पेट भरा है वह भूखे की वेदना को क्या समझे ?
अफरो रोज बीघा भर चर जात।
(१-नीलगाय ।) रोज का पेट भरा हो तौ भी वह बीघा भर खेत चर जाता
है । खर्च होने वाले काम में और अधिक ख़चे होता ही. है। ऐसे पेट
आदमी के लिए भी कहते हैं जो कहे “मैं कम खाता हूँ ।
अब के मारो तौ जानें।
डरपोक के लिए प्रयुक्त ।
अब मौसी सो मर गई।
अब चुप हो गये । कुछ कहते नहीं बना ।
अब कौन पुरबिया बढ़ौ हो गओ।
अभी हम कौन शक्तिहीन हो गयें।अब भी हम में काम करने की
सामर्थ्य है। पुरबिया अपने जीवट और लक्षई-झगड़े के लिए प्रसिद्ध हैं।
न्* २७ «
ब० २ हि
अरे ] [ बुन्देली कहावत कोदा
अबे तौ बिटिया बापई की।
अभी तो बेटी बाप ही की है। अर्थात् अभी कुछ नहीं बिगड़ा । बात अब भी
संभाली जा सकती है। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार जब तक वर के साथ
केन्या की पूरी सात भाँवर नहीं पड़ जाती तब तक उसे पत्नीत्व प्राप्त नहीं
होता और उस पर अपने पिता का ही अधिकार माना जाता है। उसी से
कहावत बनी ।
अब पराई मताई कौ मों नई देखो।
अभी पराई माँ का मुंह नहीं देखा। लाड़-प्यार से पली लड़की के प्रति माँ
का कथन, कि मेरे पास मनमाना करती हो, ससुराल जाओगी तब पता
चलेगा, सास अक्ल दुरुस्त करेगी।
अभागी की पतरी में छेद।
भाग्यहीन को सब जगह विपत्ति भोगनी पड़ती है। :
अमरोती खाक को आओ ?
अमर होकर कोई नहीं आया ।
अमानसाई ठेका रखायें, कई, पेले उन जसो मो तो कर लो।
अमानसिंह जैसी दाढ़ी रखायेंगे, कहा, पहिले उन जैसा मुँह तो कर
लो। अपने से बड़ों की चाल-ढाल का गलत अनुकरण करने पर प्रयुक्त ।
अमानसिह पन्ना-नरेश हृदयशाह के प्रपौत्र और सभासिह के पुत्र थे।
(१८०९-१८१५) ये बुन्देछा राजाओं में अपनी दानशीलता के लिए
प्रसिद्ध रहे हैं।
भव-सागर पैर कें पार भये,
जिन पायो रकार मकार कौ टेका ।
जग आयकें कीनों न दीनों कछ,
कहे राख दे मेरें अमान सो ठेका ।
-“कवि जुगलेश
अरे दरे खों गुपला नउआ। 9
इधर-उधर के फालतू काम के लिए गुपला नाई ।
हर काम के लिए जब किसी एक ही व्यक्ति से कहा जाय तब कहते हैं!
- १८ «-
कात
बुन्देली कहावत कोश | . [ आँक
अलख पुरुख को माया, कऊँ धूप कऊ छाया।
ईदवर की लीला जानी नहीं जाती।
अल्ला देवे खाने को, तो कुतका जाय कमाने को।
मुफ्त का खाने को मिले तो कमाने कौन जाय ?
असाड़ कौ पजो लड़इया, भादों कहे भौत बरसा भई।
असाढ़ में तो गीवड़ का जन्म हुआ, भादों में कहता है बहुत वर्षा हुई !
ऐसे अनुभवहीन व्यक्ति के लिए प्रयुक्त जिसने दुनिया का कुछ देखा-सुना
न हो, फिर भी जो बड़ी शेखी मारे ।
असी कोस ससरार गेंबड़े सें काँछ खोलें।
(१-गेंवड़ा-गाँव के बाहर का हिस्सा जहाँ लोग शौचादि के लिए जाते हैं।)
ससुराल के लिए अस्सी कोस तो चलना है पर गेंवड़े से ही काँछ खोल दी ।
अर्थात् कार्य आरंभ' होने के पूर्व ही हिम्मत हार दी।
अस्सी की आमद चौरासी कौ खर्चे। द
आमदनी कम और खर्चे ज्यादा।
क्रष्ट कपाली दालद्री, जब चाले तब सिद्ध।
(१-अभागा।) शकुन और मुहत्ते तो धनवान के लिए हैं, जो जन्म से ही
दरिद्री और अभागा है उसे यात्रा का मुहत्ते आदि क्या देखना। वह तो जब
चल दे तभी शुभ।
भद्रा वा घर होयँंगे जिनके हैं नौ निद्ध ।
अष्ट कपाली दालुद्री जब चाले तब सिद्ध ॥।
आएं तो गाँव की सुवासिन', पे चिदरती हें।
(१-विवाह के पश्चात् भी पिता के घर आकर रहने वाली लड़की।
२-चिंदरना--जान-बूझ कर अनजान बनना।) गाँव की लड़की होकर भी ..... ..
इस प्रकार बात करती हे मानों कुछ जानती ही नहीं। किसी विषय को जानते , ...
हुए भी अनजान बनने पर कहते हैं ।
आँक, टाँक अर काजरे। देव टका भर्र आगरे। क्
अक्षर, सिलाई के टाँके और काजल, ये ठका भर अगरे, अर्थात् थोड़ें गहरे ..
होना चाहिए, तभी ये ठीक रहते हैं। « फ द
«“ १९ «-
छा
आँख ] द [ बन्देली कहांवँत कोश
आँखन के आँदरे, नाव नेनसुख।
नाम तो अच्छा पर गुण उसके विपरीत।
आँखन कौ काजर।
अत्यधिक प्रिय वस्तु ।
आँखन कौ काजर रन-बन हो गओ।
रोते-रोते आँखों का काजल घुल गया। अर्थात् बहुत विकल ।
आँखन कौ काजर चुराउत।
आँखों का काजल चुराता है; ऐसा चालछाक है ।
आँखने कौ सनेह है।
मुँह-देखी प्रीत है।
... आाँखन देखत कुआ में गिरे।
जान-बूझ कर हानि की।
आँखन देखत माछी नई खाई जात।
जान-बूझ कर बुरा काम नहीं किया जाता।
आँखव देखी झूठी परी।
आँखों देखी बात झूठी हुई।
आँखन देखी मानें, के कानन सुनी |
आँखों देखी बात सच मानें या कानों सुनी ?
. आँखन देखो चेतनो, सों देखो ब्योहार।
.. दुनिया में आँख के सामने आये का स्नेह, और मुँह देखा व्यवहार होता है,
अर्थात् सच्चा प्रेम कम देखने में आता है।
आँख फूटी पीर निजानी।
विपत्ति का कारण दूर होने पर विपर्त्ति से भी छुट्टी मिल जाती है।
हा ' आँख मींचें भुवसारों होत।
आँख मूँदे सबेरा होता है। समय जाते देर नहीं लगती ।
क्वण्णा २ 0. ७००
कुमक
कि
बुन्देली कहावत कोदा ] [ आँधी
आँखें न साँखें, कजरौटा नौ ठठआ।
व्यर्थ का आडंबर दिखाना ।
आँख एकौ नहीं कजरौठा नौ ठौल।
आँग की माँछी नईं उड़ा पाउत।
शरीर की मक्खियाँ नहीं उड़ा पाता ऐसा काहिल है। निकम्मे और आलसी
व्यक्ति के लिए प्रयुक्त ।
आँगें बेर, पाछें कुआ।
(१-बावड़ी |) दोनों ओर विपत्ति।
आँगू हेरत बेर ईसुरी पाछ कुआ दिखावे।
आँगें लगीं माँछीं ।
शरीर से लगी मक्खियाँ। घर के बूढ़े-पुरानों के अंग लगे बच्चों के लिए
प्रयुक्त ।
आँतरे रोजे कसरत करे। राम न मारें आपुई मरे॥।
कसरत नियम से करना चाहिए, अन्यथा उससे हानि होती है।
आदरन की लोड़ कितरऊँ लगे।
' अंधे की गुलेल कहीं लग सकती है।
आदरी घुरिया, फेफूड़े चचा। चले आउन दो घना के घना॥
घोड़ी अंधी है, और चने भी फफुंडे हें, फिर क्या है उसे चाहे जितना खिलाते
चले जाओ।(१) जैसे को तैसा मिलना। (२) मूर्खे को गुण की पहिचान
नहीं होती । |
आँधी के आम ।
(१) सस्ती चीज जो यकायक मिल रही हो। (२) बहुत दिनों न टिकने
वाली वस्तु ।
आँधी कौ मेव, बरी को सनेव।
आँधी का मेह उसी प्रकार क्षणस्थ्वयी होता है जैसे बैरी का स्नेह ।
आँधी बाव चलाबो। | |
उपद्रव मचाना | 0
0 किट
भाग ] [ बन्देली कहावत कोश
आय जाँये काम चलत।
आने-जाने से ही काम चलता है। हम दूसरों के यहाँ जायेंगे, तो दूसरे भी
हमारे यहाँ आपेंगे।
आई गई पार परी।
किसी तरह झगड़ा निपटा। काम से छूट्टी पायी ।
आई बऊ, आओ काम, गई बऊ, गओ कास।
जितने आदमी हों उतना ही काम बढ़ता है।
आईं बाई दे गईं झाँई ।
(१-माँ। बहिन। सखी-सहेली ।) बाई आयीं और झलक दिखा कर चली
गयीं। काम से जी चुराने वाली स्त्री के लिए कहते हैं।
आई सतुअन की बहार, बालम मुंछें मुड़ा डारो।
क्योंकि सत्तू मंछों में छयता है। एक लोकगीत की कड़ी।
आऊत लच्छमी खों टटा देत।
आती लक्ष्मी के लिए दरवाजा बंद करते हैं। अनायास प्राप्त पैसे को
ठुकराते हैं।
आऊती बऊ, जनमतो पृत।
आती बहू, जन्मता पूतं; ये सबको अच्छे लगते हैँ।
आग जानें, लुहार जानें, घौंकनहारे की बलाय जानें।
अर्थात् कुछ भी हो, हमें किसी बात से कोई मतलब नहीं ।
आग में गओ हाते नई आऊत।
आग में गयी वस्तु हाथ नहीं आती | नष्ट हुईं वस्तु फिर नहीं मिलती।
आग लगा तमासो देखबो।
झगड़ा करा कर आनंद लेना ।
आग छूगे पे कुआ खोदबो।
काम बिगड़ जाने पर यत्न के लिए दौड़ता। पहिले से प्रबंध न करना।
आग लगा पानी खों दोर।
झगड़ा करा कर फिर मेल का उद्योग करना।
न ५75 + और
क्र
बन्देली कहावत कोश ] [ आजें
आग छगे तोरी पोधिन में। जिउ धरौ सोरो रोटिन में।
भूख के सामने पढ़ना नहीं सूझता।
आग हछगे, सेंडवा धुँधुआव; दूला-दुरलूया सरगे जाय।
दूसरे के नफे-नतुकसान की परवाह न करना। लड़ाई-झगड़े से तटस्थ
रहना ।
आगली सोचे पाछली होत।
सोचते आगे का हैं, पर काम और पिछड़ता है। होनहार की बातें।
आगी रोज ले गईं, कंडा कभर्ऊँ न दे गईं।
स्वार्थी स्त्री के लिए कहते हैं ।
आगी होती तौ का पाहुनो मूछें लेक चलो जातो !
यदि हम समर्थ होते तो कुछ कर न दिखाते !
कथा--कोई स्त्री पड़ौस में किसी दूसरी स्त्री के यहाँ आग लेने गयी । संयोग
से उस समय उसके यहाँ आग नहीं थी, साथ ही उसके यहाँ कई दिन से एक
मेहमान आया था जो अभी-अभी घर से गया था। उसकी मेहमानदारी से वह
झल्लायी बैठी थी, अतः उसने उत्तर दिया---आग घर में होती तो में मेहमान
की मूंछ न जला देती ।
आज मरे काल पितरन में।
मरने के बाद कोई किसी की चिन्ता नहीं करता ।
आज मरे काल दूसरो दिन।
मरने के बाद कुछ भी होता रहे हमें क्या चिन्ता !
आज मरले काहू दु' दिन हवे, मरले कुल की संगे जावे--बंगला
(आज मरने पर कल दो दिन बीतेंगे, मरने पर कुटुम्ब-परिवार क्या . .
साथ जायेगा ? )
आज दइते, तौ काल उते, परों पराये देस।
ससुराल जाती हुईं छड़की के छिए प्रयुक्त ।
आजे न बाजे, दूला आन बिराजें। *
बिना साज-बाज का काम । न
कि र् ह धान
आदमियन ] [ बन्देली कहावत कोश
आटे सें नोन समा जात, पे नोन में आटो नईं समात।
.. आटे में नमक समा जाता है, पर नमक में आटा नहीं। अर्थात् झूठ अधिक नहीं
बोलना चाहिए।
आठऊ गाँठ कुम्मेत ।
(१-घोड़े का एक रंग जो गहरी स्याही लिये लाल होता है, उन्नाबी रंग ।
घोड़े का यह रंग सब रंगों में श्रेष्ठ माना जाता है। आठों गाँठ कुम्मेत उस
घोड़े को कहते हैं जो सिर से पैर तक एक हो, कुम्मैत रंग का हो। अत्यन्त
चतुर और चालाक व्यक्ति के लिए प्रयुवत । )
आठ गौन' राज-रास', नौ गौन अकरियाँ ।
(१--पाँच मन के रुगभग की अनाज की एक माप। २--कटी हुई फसल
से प्राप्त गल्ले' का मुख्य ढेर। ३--भूसे के मोटे डंठछ जिनमें अनाज
के दाने मिले होते हैँ।)
खलिहान में जो गल्ला हाथ लगा है वह तो केवल' आठ गौन है, और
भूसे के डंठल हैं नौ गौन। लाभ से हानि अधिक।
आठ बार, नो त्यौहार।
बारहों मास आनंद से बीतना।
. आठ हात ककरी नौ हात बीजा।
अनहोनी बात ।
आठ हात काकड़ी नऊ हात बी--मराठी
आड़ी से ठाँडी सींक नईं करत।
आड़ी से खड़ी सींक नहीं करता। अर्थात् बड़ा आलसी है।.
आतुर खेती, आतुर भोजन, आतुर करिये बेटी ब्याह।
खेती के काम में शीघ्रता, भोजन में शीघ्रता और बेटी के विवाह में भी
शीघत्रता से काम लेना चाहिए
आदमियत में नौआ, और पंछियन में कौआ।
मनुष्यों में नाई और पक्षियों में कौआ ये बड़े चतर होते हैं।
नराणानापितोधूर्त: . पक्षिणांचैववायस: ।
| चतुष्पदांशुगालस्तु स्त्रीणांधूर्ताचमालिनी ।।
है ““चाणक्य-नीति
शी
बन्देली कहावत कोद | [आप
आदमी जानिये बसें, सोनों जानिये कसे।
आदमी की परख निकट सम्पर्क में रहने और सोने की परख कसौटी पर कसने
से होती है।
आदमी चलो जात, पे बात र॑ जात।
आदमी चला जाता है, पर बात रह जाती है।
आदे गाँव दिवारी, आदे गाँव धमार ।
(१-दीपावली उत्सव पर गाये जाने वाले ग्रामीण गीत । २-होली के गीत ।
एक राग। ) आधे गाँव में दिवाली मनायी जा रही है और आधे में होली।
सहयोग से काम न होना ।
आप काज महा काज।
अपने हाथ से किया काम ही सर्वोत्तम होता है।
आप खायें हरवकत, बाँट खायें बरक्कत।
अकेले खाना ठीक नहीं, बाँठ कर खाने से धन-दौलत की बढ़ती होती है।
भाप गये और आस-पास ।
अपना भी सर्वनाश किया और पड़ोसियों का भी ।
आप चले तो पाती काय की।
जब स्वयं ही जा रहे हैं तो पत्र की क्या आवश्यकता ?
आप जायें अदियाँ, परोसी जायें सबियाँ।
अपने किसी कार्य की स्वयं उपेक्षा की जाय तो पड़ोसी तो उसमें बिलकुल ही
रूचि नहीं दिखायेंगे।
आप डबन्ते पाँड़े, ले ड्बे जजमान।
अपनी भी हानि की, अपने मित्रों की भी ।
आप तो आप और बगल चाप। $
(१) खा भी लिया और बगल में दबा भी लिया। (२) आप भी गये,
दूसरों को भी ले गंये । न
« २५ -
आम ] [ बुन्देली कहावत कोश
आप न जावे सासरे औरन खाँ सिख देय ।
आप न करे, दूसरों को उपदेश दे।
आप कहें नाहीं करे, ताको यह है हेंत ।
आप न जावे सासरे, औरन को सिख देत॥
““बेन्द
आप भला तो जग भला।
स्वयं अच्छा तो संसार अच्छा।
आप भरे, जग परले।
अपने मरने के बाद प्रलय हो जाय तो हमें क्या ?
आप मियाँ मंगते, दुआर खड़े दरवेस ।
(१--दरवेश, फकीर।) जो स्वयं दूसरों का मुखापेक्षी है वह किसी की
क्या सहायता करेगा ?
आप हान, जग हाँसी।
अपनी तो हानि हुई और संसार हँसता हैं।
आपुन ठाँड़े गेल में, करें और की बात।
स्वयं तो दुनिया से जाने की तैयारी में हैं दूसरों की चिन्ता करते हैं।
आबर्दा तौ भौत, पे रंडापो तौ रोको।
आय तो लंबी है, पर रंड़ापा तो रोकी । जीवन सूख से न बीते तो दीर्घाय
किस काम की ? किसी के द्वारा लाभ के साथ जब हानि भी हो रही हो
तब प्रयुक्त ।
आबे की एक, जाबे की चार।
पैसे के आने का एक रास्ता होता है तो जाने के चार ।
आ बेल मोय मार।
आ बेल मुझे मार।
जानबूझ कर विपत्ति बुलाना। ”*
आम खानें क पेड़े गिनने।
अपने काम से मतलूब , या इधर-उधर की बातों से ?
“. २६ «
बम
बुन्देली कहावत कोश ] [था
आस फले नीचौ नवे।
बड़ा आदमी विनम्र होता है।
आय न साय चून चाल के दे पओ।
घर में तो कुछ है नहीं, फिर भी कहते हैं कि चून चाल कर रोटी बनाओ |
आये ते हर भजन को ऑटन लगे कपास ।
आये थे किसी और काम को और करने लगे कुछ और ।
आये न गये, घरईं रये।
सीघे-सादे अनुभवहीन व्यक्ति के लिए प्रयुक्त ।
आरे बंडा,, अरो करियें, कई, में तौ पूँछई उठायें।
(१-पूँछ-कटा बैल। २-उपद्रव।)
एक बेल ने दूसरे से कहा--आ रे बंडा ! उपद्रव करें, तो उत्तर दिया, मैं
तो पूँछ उठाये पहिले से तैयार हूँ !
ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त जो कुछ कर-घर तो सकता न हो, फिर भी
लड़ने-झगड़ने को सदैव प्रस्तुत रहता हो ।
आलसी निगइया, असगन की बाट हेरे।
आलसी चलने वाला अशकुन की प्रतीक्षा करता है (कि मुझे चलना न
पड़े) काम न करने के लिए बहाना ढूँढ़ने पर।
आंला' कौ का गाइये, सुधर लबार चाहये।
(१-बन्देली भाषा का प्रसिद्ध वीर-काव्य आल्हा। २-झूठा, लंब-तड़ंगी
हाँकने वाला) आल्हा का क्या गाना, उसके लिए तो बस कोई सुघड़
गप्प हाँकने वाला चाहिए। अभिप्राय यह कि चतुराई से काम लेने पर झूठ
बात को भी सत्य बनाया जा सकता है।
आला गाऊं के परमाला ।
(१-परमाल का यश; परमार रासौ, जिसमें महोबे के चंदेलराज परमार
या परमदिदेव की कथा वर्णित है।) मैं क्या-क्या कहूँ? द
आ बरा मोरे मों मं पर।
(१-उड़द की पीसी हुई दाल का बना हुआ एक प्रकार का पक्वान। बटवृक्ष
का फल।) आ बरा मेरे मुँह में आकर गिर। निप्रट औलसी के लिए प्रयुक्त ।
« २७ --
बह
आहारे ] [ बुन्देली कहावत कोश
आब बहिन कौ भाई, भीतर जाय दर्राई।
भाई जब अपनी बहिन की ससुरारू जाता है तो बे रोक-टोक सीधा बहिन
के पास चला जाता है, किसी से कुछ पूँछता-ताँछता नहीं ।
आसई आसा में प्रान गये।
मन की इच्छा पूरी नहीं हुईं। आशा-आशा में ही प्राण निकल गये।
आस बिरानी जे करें होतन ही भर जायें।
दूसरों की आशा करने की अपेक्षा तो जन्मते ही मर जाना अच्छा ।
आसरे सें सासरो लगो।
लाभ की आशा से ही ससुराल का महत्व है।
आसा कौ बेल पहाड़े चढ़त ।
आशा की बेल पहाड़ पर चढ़ती है। आशा में बड़ी शक्ति है।
आसा को बाप, निरासा की माँ, होते की बहिन, अनहोते को मीत।
सुख में पिता, दुख में माता, सम्पत्ति में बहिन और विपत्ति में मित्र काम
आता है।
यह एक प्रसिद्ध बुन्देशी छोककथा की गाथा है जिसने कहावत का रूप
धारण कर लिया है।
आसा कौ मर, निरासा कौ जिये। ।
आशा में रहने से आदमी मरता है, परन्तु पहिल्ले से निराश हो जाये,
अथवा किसी से कोई आशा न रखे, तो सुखी रहता है।
आसा से आसमान टंगो।
आशा के बल पर ही आसमान टंगा है।
आहार चूके बे गये, ब्योहार चूके बे गये।
दरबार चूके बे गये, ससरार चके बे गये।।
स्पष्ट ।
आहारे ब्योहारे लज्जा न कारे।
भोजन और लेन-देन सें संकोच नहीं करता चाहिए।
आहारै व्यबहारे च॒ त्यक्त लज्जा सुखी भवेत् ।--चाणक्य नीति
कक
हर आटे क
न
रु कः
ह त । के
अर के कप]
५ |] पल
हब है ।
के है औ]
पर की रे
ब॒ुन्देली कहांवत कोश ] [ इते
इक तो नागिन उर पंख लगायें।
एक तो नागिन और ऊपर से पंख ! पहिले ही भयंकर थी, अब और भी विकट
हो गयी । |
इक लख पुृत सवा रूख नाती। ती रावन घर दिया न बाती॥
धन, यौवन और बड़े कुटुम्ब का गये नहीं करना चाहिए। ईश्वर का
कोप होने पर सब पल भर में विलीन हो जाता है जैसे रावण का हुआ ।
एक लक्ष पुत्र तोर सवा लक्ष नाती ।
केह न रहिल आर बंशे दिते बाती ।
““>बंगला
इकल संगरा।
अकेला रहने वाला सुअर। स्वार्थी व्यक्ति ।
इकहरिए मिलो न ताव । परकड़ए मिलो न भाव ।॥
(१-तुतें-फू्ते काम करने का अवसर । काम की गर्मी।) ऐसा किसान
जिसके पास केवल एक हल हो समय पर जुताई-बुवाई का काम नहीं कर
पाता, उसी तरह दूसरे का ऋण लेकर काम करने वाला किसान भी
गल्ले को उचित भाव पर नहीं बेच पाता, क्योंकि साहुकार का ऋण चुकाने
के लिए मनमाने भाव पर दे देना पड़ेता है।
इतके बराती, न उतके न््योतार।
कहीं के भी नहीं ।
इतते की कमाई नई जितृते कौ लाॉगा चिंथ गओ।
इतने की तो कमाई नहीं, जितने का लहंगा फट गया।
लाभ से हानि अधिक |
इतते की तो भगत नई जित्ते के मेंजीरा फूट गये।
इतना तो देवी की पूजा से प्रसाद नहीं मिला जितने के मेजीरा फूट गये।
इते कौन कोऊ ताते पानी कौ सपराव हैँ?
यहाँ कौन कोई गरम पानी का नहलाया हुआ है। अर्थात् हम भी सुकुमार
नहीं ।
ई र् ९ ल
छः
ईख ] [ बन्देली कहावत कोश
इते कौन तुमाई जमा गड़ी।
अर्थात् यहाँ तुम्हारा क्या अधिकार ?
इते धरीं इंदरसे' की जरें!
(१-पीसे हुए चावल की बनी एक प्रकार को मिठाई । ) प्राय: ऐसे ऊधमी
बच्चों के लिए प्रयुक्त जो घर आकर माँ को तंग करते और इधर-उधर
की चीजें खाने को माँगते हैं।
इनई आँखन बसकारों काटो !
इन्हीं आँखों से वर्षा के चार महीने काटोगे ? सामने रखी हुई वस्तु भी न
दिखायी दे तब प्रयुक्त ।
इन तिलन में तेल नइयाँ।
इन तिलों में तेल नहीं। अर्थात यहाँ कुछ पाने की आशा न रखो ।
इसली के पत्ता पे कुलाँठ खाओ।
अर्थात मौज करो। चैन की बंसी बजाओ। अवसर चूके व्यक्ति के लिए
प्रायः व्यंग्य में प्रयुक्त ।
इंगुर हो रई।
खा-पी कर लाल हो रही हैं।
इंट कौ घर माटी कर दओ।
ईंट का घर मिट्टी कर दिया। बना बनाया काम बिगाड़ दिया ।
इंट खिसकी सो खिसकी।
दीवार की एक ईंट खिसक जाय तो फिर सँभालता मुश्किल होता है। उसी
प्रकार एक बार बिगड़ा काम फिर नहीं सभलता।
इंट सें इंट बज गई।
लड़ाई छिड़ गयी ।
ईख लो खेती, हाथी लॉ बनज। डर
ईख की खेती से बढ़ कर खेती नहीं; हाथियों के व्यापार से बढ़ कर व्यापार
नहीं । ०
न् य१े० «७
बन्देली कहावत कोश ] [ उजर
ईमान कौ सौदा है।
ईमान का काम है।
उंगरकटा नाव धर दओ।
उँगली काट खाने वाला नाम रख दिया। व्यर्थ बदनाम कर दिया।
उंगरियन उंगरियन कौंचा' भारी होत।
(१-हथेली, कलाई।) उँगलियों-उँगलियों कौंचा भारी होता है। थोड़ा-
थोड़ा करके बहुत हो जाता है।
उंगरिया पकर के कोंचा पकरबो।
उँगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ना। थोड़ा सहारा पाकर गले पड़ जाना।
उअते खों सब पाँ लागत।
उगते सूर्य को सब नमस्कार करते हैं। उन्नतिशील के आगे सब झुकते हैं।
उकताने काम नसाने, धौरज धरो सयाने।
जल्दबाजी में काम बिगड़ता है, इसलिए चतुरों को धेरये से काम लेना चाहिए
उखरी में मड़ दओ, तौ मूसरन कौ का डर।
जब कोई भरता या बूरा काम करने पर उतारू ही हुए तो फिर डर किस
बात का ?
ईसुर मूँड़ दयें उखरी में, मूसर कौ का डर है।
--ईसुरी
उजरऊ' के संगे कपला कौ नास।
(१-उजाड़ करने वाली, चोरी से दूसरों का खेत चरने वाली गाय।
२-कपिला--सीधी गाय।) बुरे के साथ सीघे आदमी को भी कष्टः
भोगना पड़ता है।
उजरे गाँव में अरंडई रूख।
जहाँ कोई वक्ष नहीं होता वहाँ अरंड को ही लोग बड़ा वृक्ष मानते हैं।
० पर तह के
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० ०
उतराई ] [ बन्देली कहावत कोश
झजरे गाँव में मातेन कचरिया !
(१-कचरी की एक जाति जो आकार में बड़ी और मीठी होती है।) उजड़े
गाँव में श्रेष्ठ जाति की कचरिया ! आइदइचर्य का विषय ।
उठते पाँव दुनिया तकत।
पदच्युत होते हुए व्यक्ति पर सबकी दृष्टि रहती है। सब उसकी संकटापन्न
स्थिति से लाभ उठाना चाहते हैं ।
उठाई जीब तरुआ से दे मारी ।
जो मन में आया सो कह दिया।
उपाडी जीभ ने छगाडी तालवे--गुजराती
उचलली जीभ लावली टाह्व्यास ।---मराठी
उठी हाट आठयें दिना लगत।
उठी हाट आठवें दिन लगती है, (इससे जो कुछ लेना हो सो आज ही ले
लो।) तात्पर्य यह कि अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।
उठौवल चल्हो।
ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुवत जिसके रहने का कोई पक्का ठिकाना न हो।
उड़त चिरइयाँ परखत।
उड़ती चिड़ियाँ परखता है अर्थात बहुत होशियार है।
उड़ी चून पुरखन के नाव।
चक्की पीसते समय जो चून उड़ गया या नष्ट हो गया वह पितरों को
समर्पित! किसी को ऐसी वस्तु देकर अहसान करना जो अपने काम
न आये।
| उधियाइल सतुआ पितरन के दान--भोजपुरी
उजार चरें और प्याँर खायें !
चोरी से दूसरों का खेत चरने जायें, फिर भी कोदों के डंठल खायें ! बुरा
काम भी करें और पूरा लाभ न उठायें !
उतराई कंसो टका दें राखो।
( १-नदी से पार होने का महसूल।) चुपचाप किसी की रकम का भगतान
कर देने पर प्रयुक्त-। ह
ता रे र् च्न्न्क
जप
बुन्देली कहावत कोश ] [ उरदनेईँ
उधरे पे सुधर।
सिले हुए कपड़े को उधेड़ कर ही फिर से ठीक किया जा सकता हैं।
उधार को खाबो और फूस कौ तापबो।
उधार का खाना और फूस का तापना बराबर होता है। जैसे फूस की आग
अधिक देर नहीं ठहरती वैसे ही उधार लेकर खाना भी बहुत दिनों नहीं चल
सकता ।
उधार देओ और बेर बिसाव !
किसी' को ऋण देना ठीक नहीं। माँगने से बुराई पैदा होती है।
उधार दीजे दृश्मन कीजे--फेलन
उधारवारो पासंग नई देखत।
(१-तराजू के दोनों पलड़ों का बराबर न होने की स्थिति) उधार
लेने वाला इस बात की परवाह नहीं करता कि सौदा ठीकः तौल कर दिया
गया है अथवा नहीं, क्योंकि उसे तो किसी प्रकार सौदा लेता है।
उनकी पईं काऊ ने नई खाईं।
उनके हाथ की बनी रोटी कोई नहीं खा पाया। स्वार्थी व्यक्ति के लिए
प्रयुवत ।
उन बिगर कौन सेंडवा अटको।
उनके बिना कया विवाह का मंडप गड़ने को रुका है ? जब कोई व्यक्ति बहाने
से भी न आये तब प्रयुक्त। तात्पयें यह कि नहीं आते तो न आयें, उनके बिना
काम पड़ा नहीं रहेगा। तुल० जहाँ मर॒गा नहीं होता कहाँ क्या सबेरा
नहीं होता ?
उपास के न तिरास के, फरार' को जम से ।
(१-फलाहार ।) काम का तो बता नहीं, पर खानें को बहादुर हैं।
उपेटो लगत' सो आँख खोल के चलत।
जिसे ठोकर लगती है वह आँख खोडै कर चलता है।
उरदनई खों जोतत।
उर्दों को ही जोतते हैं। एक ही बात की रटं लगाये हैं।
+ है३ -
बु० ३ >
ऊँट ] [ बुन्देली कहावत कोश
उरबतिया' कौ पानी मँगरी नईं चड़त।
( १-छप्पर के ढाल का आगे का हिस्सा जिससे वर्षा का जल नीचे टपकता है;
ओलती | २-छप्पर के' ऊपर का हिस्सा |) ओलती का पानी मँगरी पर नहीं
चढ़ता, वह तो नीचे धरती पर ही आता है। असंभव बात संभव नहीं होती ।
उलट धरे की बीदी।
मामला उल्टा फेस गया।
उल्टी आँतें गर पर
गये थे सुलझने, उल्टे उलझ गये ।
उल्टो चोर गुसेयें डाँटे।
अपराध करके स्वयं उसी मनुष्य को झिड़कना जिसका नुकसान हुआ हो ।
ऊ
ऊँगत ती और बिछी पाई।
नींद आ रही थी और बिछी चारपाई मिल गयी। अर्थात मनचाही हुई।
ऊँगतो बोलें, जागतो न बोले।
जिससे सावधान होने की आशा नहीं वह तो सतर्क है, और जिसे
सावधान रहना चाहिए वह चुप है।
ऊँग न देखे टूटी खाठ । प्यास न देखे धोबी घाट ॥
प्रेम न देखे जात कुजात । भूृंक न देखे जूठो भात॥
क्षुषाय चाय ना सुधा, पिरीते चाय ना जाती।
घूमे चाय ना खाट-पालंग, वाह्ये चाय ना बाती। “बंगला
(भूख को अमृत नहीं चाहिए, प्रेम को जाति नहीं चाहिए, नींद को खाट
पलंग नहीं चाहिए, शोच को दीपक नहीं चाहिए। )
ऊँची दुकात फीको पकवान।
दिखावट तो बहुत पर तत्त्व कुछ नहीं ।
ऊँट को चोरी निहुरे निहरे।
बड़े काम चोरी छिपे वहीं होते ।
##थ बेड
सका
बुन्देली कहावत कोश | [ ऊंट कौ
अँठ की पीर गदा नईं दागो' जात।
( १-दागना5”-पीड़ा के स्थान को गरम धातु या मुद्रा से जलाना। ) ऊँट
को पीड़ा होने से गधा नहीं दागा जाता । जिसको कष्ट हो उसका ही इलाज
किया जाता है।
ऊँट की पूछ से ऊंट बँदो।
एक के सहारे एक बंधा है। ऊँटों की पंक्ति चलने पर एक की पूँछ दूसरे
की नकेल से बाँध दी जाती है जिससे वे इधर-उधर भागने न पायें ।
ऊँठ के गरे में बिलाई।
बेमेल जोड़। किसी काम में ऐसा अड़ंगा लगा देना जिससे वह हो न सके ।
कथा--किसी समय एक व्यक्ति का ऊँट खो गया। उसने प्रतिज्ञा की
कि यदि ऊँट मिल गया तो उसे दो पैसे में बेंच डालगा। संयोग से ऊँट मिल
गया। तब उस धूर्त ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के बहाने से ऊँट के
गले में एक बिल्ली बाँध दी और बिल्ली के उतने ही दाम रखे जितने
उस ऊंट और बिल्ली दोनों के' मिला कर होते थे। साथ ही यह शर्त भी
लगा दी कि दो पैसे में ऊंट खरीदने वाले को बिल्ली भी खरीदनी पड़ेगी ।
परंतु जब वह ऊँट को बाजार में ले गया तो उसकी झातें सुन कर कोई
उसे खरीदने को तैयार नहीं हुआ। इस तरह उसका ऊंठ उसके पास रह
गया और उसकी प्रतिज्ञा की रक्षा भी हो गयी।
ऊँठ के मों में जीरो!
बहुत खाने वाले को थोड़ी वस्तु देता ।
ऊँट कसी चम्मक।
ऊँट जैसी मजबूत पकड़। ऊँट के विषय में कहा जाता है कि एक बार किसी को
पकड़ लेने पर वह उसे आसानी ब्ले नहीं छोड़ता ।
ऊँट कौ चूमा ऊंठई लेत।
ऊँट का चूमा ऊँट ही खेला है। बड़ों का काम बड़ों से ही सटता है।
ह खकपकक ड्लै | प् खाक
इक
ॉँट ] [ बुन्देली कहाबत कोश
ऊंट चढ़ें कुत्ता नें काटो ॥
अर्थात् अनहोनी घटना घटित हुईं। जब कोई मनुष्य अपने को विपत्ति से
सब प्रकार से बचाता रहे, परन्तु फिर भी वह उसमें पड़ ही जाय तब
कहते हैं ।
ऊँट जब लौं पारबा तरें नईं जात तब लों बो समजत के मो सें बड़ो कोऊ नेयाँ।
अपने से अधिक बुद्धिमान के मिलने पर ही अपनी अल्पज्ञता का बोध होता है।
ऊअँटन खेती नईं होत।
ऊँटों से खेती नहीं होती । हर काम के लिए उपयुक्त साधन की आवश्यकता
होती है ।
अँठ पे चढ़के सबें सलक आउत।
ऊँट पर चढ़के सभी को मछकना आ जाता है। उच्च पद प्राप्त होने पर सभी
को गर्व हो जाता है।
ऊंट पे सलीता लूद कुरिया' पर पर जाय।
(१-कोरी, एक बुनकर जाति ।) ऊँट पर तो माल का बोरा लद रहा है
और कोरी चिल्लाता है कि हाय राम मरे ! परिश्रम तो किसी को करना
पड़े और कष्ट किसी को हो।
'ऊँट बये बये फिरें, गाड़र थाय लेय।
ऊँठ तो बहे जा रहे हैं, गाड़र थाह लेती है। अनुचित साहस ।
ऊंट बिलाई ले गई तौ हाँजू हांजू करना।
. 'ठकुर सुहाती कहना । बड़े आदमियों की हाँ में हाँ मिलाना ।
ऊँठ को बिल्ली उठा ले जाय यह बिलकुल असंभव है। परन्तु बड़े आदमी ने
कहा तो खुशामदी ने जवाब दिया कि हाँ, मैंने भी देखा था।
ऊंट मर तब पछायें खाँ मों कर।
ऊंट जब मरता है तब पश्चिम को मुँह करता है। अंत समय सभी को
अपना घर याद आता है। राजस्थान और अरब की मरुभमि जो ऊँटठ का
निवासस्थान है, पश्चिम की ही ओर है। इसीलिए ऊँट के संबध में ऐसा कहते
हैं। जब कोई आदमी ऊट-परटाँग काम करता है तब भी प्रयुक्त ।
- ३६ «-
यकि
बुन्देली कहावत कोई ] | अपर
ऊँट लदे गदा पंर पर जाय, राम जौ बोझा को ले जाय !
किसी के कृष्ट की किसी को चिन्ता।
ऊअते खों सब नमत, अथये खों कोऊ नईं।
उगते सूर्य को सब सिर झुकाते हैं, डूबते को कोई नहीं ।
ऊजर गाँव अंड कौ प्या, बेई माते, बेईब्या ।
(१-अनाज नापने का बर्तेन जो पाव भर का होता है। २-अनाज तौलने
वाला।) अंधेर की जगह।
ऊटपटाँग हॉकबो ।
ऊठपटाँग बात करना ।
ऊदल ब्याहन कों ना रेहें, बातें कंबे को रे जहें।
अर्थात किसी एक व्यक्ति विशेष के बिना काम अटका नहीं रहेगा, परन्तु बात
कहने को रह जायगी कि अवसर पर साथ नहीं दिया।
प्रसिद्ध वीर-काव्य ओल्हा में ऊदल के विवाह के लिए आल्हां जब॑ नरवर
की लड़ाई पर जाने से इन्कार कर देता है तब मलखान का कथन---
मोहरा मरिहें हम नरपति कौ औ ऊदन कों हैहें ब्याय।
ऊदन ब्याहन कों रहिहें ना यहु दिन कहिबे कों रह जाय॥
ऊधो कौ लंन, न साधो कौ देन।
ऐसे निश्चिन्त मनुष्य का कथन जिसे किसी का कुछ लेना-देना नहीं ।
ऊधोौ बन आये की बात।
कार्य सफल होने पर लोग प्रशंसा करते हूँ, अन्यथा वे ही लोग बुराई करने
लगते है।
ऊनें सो बरसेई।
बादल जब घिरे हैं तब बंरस कर ही रहेंगे ।
ऊपर बरछी नेंचें कुआ, तासें बानिया फारकत हुआ।
विवश हो कर काम करना।
कथा--किसी व्यक्ति को एक बतनिये का बहुत सा रुपया उधार देना था ।
ऋण चुकाने का कोई उपाय न देख एक दिन उसने बनिये को अपने घर बुलाया
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एक कास ] [ बुन्देली कहावत कोश
और उसे मार डालने की धमकी देकर फारखती लिखा ली। परन्तु बनिया
बड़ा होशियार था। फारखती की पुर्जी की पीठ पर चुपचाप लिख दिया---
ऊपर बरछी नैचें कुआ।
तासें बनिया फारकत हुआ।।
. और बाद में अदालत में नालिश करके रुपये वसूल कर लिये।
ऊपर सें राम रास, भीतर कसाई के काम।
पाखंडी आदमी।
ऊमर कौ बिरमांड।
ऊमर का ब्रह्मांड। साधारण काम को जबरदस्ती महत्त्व देना।
ऊमर फोरो न पखा उड़ाओ। क्
न कोई बुरा काम करो,और न उसका परिणाम भोगना पड़े ।
ऊसरा कौ बीज॥।
ऊसर का बीज । व्यर्थ परिश्रम। ऊसर जमीन में बीज बोने से नहीं उगता ।
ऊसर बरसे तृन नहिं जामे--तुलसी
द ए
एक अहारी सदा ब्ती। द
एक बार भोजन करने वाला संयमी ही माना जाता है।
एक लठिया से सबे हॉकत।
एक लाठी से सबको हाँकते हैं।
एकई साथें सब सधे सब साधें सब जाय।
(१) एक बार में एक काम ही करना चाहिए। (२ ) किसी काम के लिए
. एक आदमी का आश्रय ग्रहण करना ही ठीक होता है।
एक कओ, न वो सुनो.
.. किसी से न एक बुरी बात कहो, न दा सुनो ।
एक काम में दो काम
काम को बढ़ाना ।
बुन्देली कहावत कोश ] [एक तबा
एक कान से सुनीं दूसरे से निकार दई।
किसी बात पर ध्यान न देना ।
पा० जा कान सुतीं बा कान निकार दई। |
ऐक काने सांमलीने बीजे काने काहडबुं--गुज राती ।
एक की दो बनाउत।
एक की दो बनाते हैं। झूठा दोषारोपण करना।
एक के पुन्न सें सबरो गाँव तर जात।
एक आदमी के अच्छे काम का सब पर प्रभाव पड़ता है।
एक कुंजरिया न आहै तौ का हाट न भरहै ?
एक कुजड़िन यदि नहीं आयेगी तो क्या हाट नहीं भरेगी ? किसी एक आदमी
के बिता काम पड़ा नहीं रह जायगा।
एक घड़ी को ब्रआसत' जनम भरे को सुक्ख।
(१-बुराई | ) नाहीं करने से कोई बुरा मान जाय तो मान जाय, पर हमेशा
के लिए बला तो दल जाती है।
एक घर तो डॉकन बरका देत।
एक घर तो डायन भी छोड़ देती है। दुष्ट आदमी के हृदय में भी कुछ-त-कुछ
दया होती है।
एक जने से दो भले।
कहीं यात्रा में जाना हो तो एक से दो अच्छे ।
एक जीव दो कठारा।
एक जीव, दो देह। घतनिष्ठ प्रेम ।
एक ठढका दायजो, नौ ठका उपरती।
दहेज में तो एक ठका मिला, और पुरोहित को दक्षिणा देनी पड़ी नो टका।
लाभ से हानि अधिक ।. «*
एक तबा की रोटी, का छोटी का सोंटी ।
समान वस्तुओं में छोटी-बड़ी का क्या प्रश्न ।
लक ह ९ ०
हा
एक नाक ] [ बुन्देली कहावत कोश
एक तो गड़ेरिन| और लासन खायें।
( १-गड़रिया की स्त्री।) गंदगी में ओर भी गंदगी ।
एक तो बाई नाचनी और घुंघरू पेरें बाजनी।
एक तो नाचने का शौक, और ऊपर से पैरों में घुँधरू पहिन रखे हैं। फिर
क्या पूछना ? मनचीती हो गयी।
एके बऊ नाचनी ताय खेमटार बाजनी--“बंगला
(एक तो बहू को नाचने का शौक, ऊपर से खेमटे के नृत्य की घुँघरू पहिन
रखी है।)
एक तो रोउतूतीं और मुंस नें मारो।
एक तो पहिले से रो रही थी, फिर पति ने मार दिया। रोने का और बहाना
मिल गया। ऊँघते को ठेलते का बहाना।
एक थेलिया के चट्टा-बट्टा ।
सब एक से। कोई घट-बढ़ नहीं।
एक दाँत कौ सोल करौ, बत्तीसऊ खोल दये।
व्यर्थ दाँत निकालने पर प्रयुक्त ।
. एक दिता कौ पावनों, दो दिना कौ पई' , तीसरे दिना रये तौ बेसरम सई॥
.. (१-पथिक ।) मेहमानदारी तो एक दिन की ही ठीक होती है, दो दिन
रहे तो मुसाफिर है, और तीन दिन रहने वाला बेशरम ।
एक दिन का पाहुना, दूसरे दित अनखावना--फेलन
एक दोन दिवस पाहुणा, तिसरे दिवसीं लाजिरवाण--मराठी
एक नकटा सो खों नकटा कर देत।
एक बुरा आदमी सौ को बुरा बना देता है।
एक नाईं सौ दुख टारे।
एक नाहीं सो दुख दूर करती है।
एक नाक दो छींक । काम बने भौत ठौक॥ ”
छींक के संबंध में लोक-विश्वास। यदि एक माक से एक के बाद एक, दो'
छींकें हों तो कार्य सफल होता है।
हा ढ6 ना
बन्देली कहावत कोश ] [ एक स्थान
एक नारी सदा ब्रह्मचारी।
एक स्त्री वाला भी सदा ब्रह्मचारी ही माना जाता है।
एक पंथ दो काज।
किसी एक काम के लिए जाने पर दूसरा काम बनना अथवा दुहरा लाभ होना ।
चलो सखी वहूँ जाइये जहाँ मिले ब्र॒जराज।
गोरस बेचन हरि मिलन एक पंथ दो काज ॥।
एक पाख दो गहना, राजा मरे क॑ सहना ।
( १-शहना । अ० शिहनः: शासक, कोतवाल, कर-संग्रह करने वाला।)
ग्रहण के संबंध में लोक-विश्वस। यदि एक पखबारे में दो ग्रहण पड़ें तो
राजा मरे या शासक ।
एक पुत जिन जनमो साय। घर सूत्रों जो बाहर जाय ॥
एक पुत्र का होना अच्छा नहीं। उसके बाहर जाने पर घर सूना रहता है।
पा० एक पूत जिन जनतमों माय । घर रहै के बाहर जाय ।।
अक घेर तो घेर मां नहि ने एक दीकरो तो दीकरा भा नहिं
ने से रुप्पा ते रुप्या मां नहि । --गुजराती
एक पे एक ग्यारा।
एक के स्थान पर दो आदमी मिल जायें तो बड़ा काम कर सकते हैं। संघ में
बड़ी शक्ति होती है।
एक बिछौना सोओ और आग से आँग रूग नई।
कोई काम करो भी और उसके परिणाम से भी बचना चाहो, ये दोनों संभव .
नहीं ।
एक बेर जोगी, दो बेर भोगी, तीन बेर रोगी।
योगी दिन में एक बार, और भोगी दो बार शीच जाता है, इससे अधिक बार
जाय तो उसे रोगी समझना चाहिए।
एक म्यान में दो तरवारं नईं रतीं। *
किसी एक ही वस्तु पर दो का अधिकार नहीं हो सकता ।
एक म्यान में कैसे पटतीं, ईसुर दो तरवारें॥+'
का हे एप
क् |
'ऐरेनरे ] [ बुन्देली कहावत कोश
एक मिल काना तौ लोट घरे आना।
रास्ते में काना मनुष्य मिल जाय तो फिर छौट कर घर आ जाना चाहिए।
काने के संबंध में अंध-विश्वास ।
एक साँड़ के हमें बिटा नईं जुरत। *
एक साँड के गोबर से कंडों का ढेर इकट्ठा नहीं होता ।
'एक रती बिन नहीं रती कौ ।
( १-रति, धन, प्रतिष्ठा ।) मान-सम्मान के बिना मनुष्य कौड़ी काम का नहीं ।
एक सो आदो, दो सो चार।
एक तो आधे के बराबर है, और यदि एक से दो हो जायें तो उनमें चार की
शक्ति आ जाती है।
एक लिखता सो बकता।
एक लिखने वाला, सौ बकने वाले के बराबर है। कलम में बड़ी ताकत
होती है।
एक हर हत्या, दो हर पाप । तीन हर खेती, चौ हर राज॥
एक हल की खेती तो मुसीबत है, दो हल की पाप है, तीन हल की खेती के
खेती कहा जा सकता है, और चार हल की खेती हो तो क्या पूछना, वह तो
राज्य के तुल्य है। कृ०।
एक हात की तारी नईं बजत।
झगड़ा कभी एक ओर से नहीं होता । दो भनुष्यों में यदि एक लड़ाक् न हो
तो कभी लड़ाई नहीं हो सकती ।
'एकान्त बासा, झगड़ा न झाँसा।
अकेला रहना सबसे अच्छा।
क् ऐं
ऐरे-गेरे पचकल्यान ।
( १-घोड़े की एक किस्म । वह घोड़ा "जिसके चारों पैर घुटनों तक शरीर
के रंग से भिन्न हों और पैर का रंग थुथनी पर भी हो।) इधर-उधर के
लतू आदमी। ”
“- डर -+
आओ
बुन्देली कहावत कोश |] ' [ ओंधे
ऐसी कई क॑ घोई न छूटें। द
ऐसी बात कहना जो मन में चुभ जाय ।
ऐसी होतीं कातनहारी , तो काय-खाँ फिरतीं आँग उघारीं।
(१-कातने वाली ।) जो काम में चतुर न हो ऐसी स्त्री के लिए प्रयुक्त।
ऐसों बंज साव न करे ।॥ दानो खाय लीद हग भरे 0
बनिया ऐसा व्यापार नहीं करता कि जिससे राभ के बजाय उलठटे
हानि हो ।
इसकी एक कथा है कि किसी व्यक्ति को एक बनिये का रुपया उधार देना
था। उनके चुकावरे में उसने बनिये को अपनी घोड़ी देनी चाही।इस पर वनिये
ने कहा कि भाई मुझे तो अपने रुपये चाहिए। में ऐसी वस्तु को लेकर क्या
करूँगा कि गाँठ का दाना खिलाना पड़े और बदले में लीद मिले।
ऐसी सुहागिन से तौ राडई भले।
बहुत अहसान से कोई वस्तु मिले तो उससे तो न मिलना अच्छा ।
ऐसे जीबे से तो मरबो भलो।
किसी के कोई अत्यन्त अनुचित काम करने अथवा बहुत दुःखी होने पर प्रयुक्त ।
ऐसे न भरे तो जहर से का मरे !
किसी आदमी पर यदि कहने का असर न हो तो डाटने-डपटने या मारने
से क्या होगा ?
ऐसे बढ़े बेल कों कौन बाँध भुस देय।
अकमंण्य व्यक्ति के लिए कहते हें ।
ऐसे होते कंत तौ काय कों जाते अंत।
यदि किसी योग्य होते तो घर छोड़ बाहर क्यों जाते ?
0२ ओ
ओंधे मो डरे।
परास्त हुए पड़े हैं ।
«> ४३ «-
ऑंस ] क् [ बुन्देली कहावत कोश
ओई पतरी में खायें, ओई में छद करें।
जिसका खायें उसी को हानि पहुँचायें ।
ओई बाँस के डछा टठोकता, ओई के चलनी सुप।
उसी बाँस के डलिया-टोकरी बनता हैं, और उसी के चलनी-सूप । दो सगे
भाइयों अथवा भाई-बहिनों में परस्पर प्रेम जताने के लिए कहते हैं ।
बुन्देलखंड के प्रसिद्ध कथारौ गीत अमानसिंह कौ राछरौ' की एक पंक्ति ।
अमानसिह, जो पन्ना के राजा थे, एक साधारण सी बात पर अपने बहूनोई से
अप्रसन्न होकर उसके विरुद्ध युद्ध की तैयारी करते हैं तब उनकी मां कहती है -
ओई बाँस के डछा टोकना, ओई के चलनी सूप ।
ओई कूंख के केये राजा अमान जू, ओई कूंख की सहोद्रा बैन।
ओछी पूंजी खसमें खाय।
थोड़ी पूँजी धनी को खा जाती है।
ओछी पूँजी धणी ने खाय--गुजराती
छोट्टी पूँजी खसम खाँदा--गढ़वाली'
ओझा कमिया, बेद किसान | आड़ बेल अर खेत मसान॥
ओझागिरी करने वाला हलवाहा, वैद्य किसान, बिना बधिया किया बैलें,
और रुमज्ञान का खेत, ये चारों विपत्ति के कारण होते हैं।
ओर न छोर बड़ार' काय पे हो रई।
( १-भाँवर के दूसरे दिन की बड़ी पंगत।) विवाह का तो अभी कुछ ओर-
छोर नहीं लगा, फिर पंगत की तैयारी किस बात पर हो रही है? पूरे प्रबंध
के बिना किसी कार्य को शुरू कर देने पर प्रयुक्त ।
ओली में ग्र फोरबो।
ल॒के-छिपे काम करने का प्रयत्न ।
भोस के चाटें प्यास नईं बुझत।
जहाँ अधिक की आन्श्यकता है वहाँ थोड़े से काम नहीं चलता।
«०» हैंड ०
बुन्देली कहावत कोश ] द [ कंत
ऑओंगन' बिना गाड़ी नई ढेंडुकल।
(१-गाड़ी की घुरी में लगायी जाने वाली चिकनाई, जिससे पहिया आसानी
से फिरे।) ऑंगन के बिना गाड़ी नहीं चलती | अर्थात पैसा दिये लिये बिना
काम नहीं चलता। र
घर चाही गाडा ओंगण वांचून चालरुत नाहीं--मराढ़ी
औगुन तब खाँ सेंतिये, गुनें न पूँछे कोय।
अवगुण से तभी काम लो जब कोई गुण को न पूछे।
औसर के गीत औसर पे गाये जात। |
अवसर के अनुकूल ही काम अच्छा लगता है।
औसर कौ चूको क्रिसान और डार कौ चकौ बँंदरा।
किसान यदि अवसर पर काम करने और बंदर एक डाल से दूसरी डाल पर
उछलते समय चुक जाय तो फिर वह सँभलता नहीं।
प० असाड़ कौ... .
ओसर चूकी डोमनी, गावे ताल बेताल।
(१-डोम की. स्त्री)
जब कोई उत्तेजित होकर ऊट-पटांग काम करने लगे या बकने लगे तब
प्रयुक्त ।
औसर चूके पुन का पछतान।
स्पष्ट।
कंडी कंडी जोर बिदा जुरत।
थोड़ा-थोड़ा इकट्ठा करके बहुत होता है।
कन कन जोरें मन जुरे।
कंत.न पूछे बात मेरो घरो सुहागन नाम ।
जब कोई झूठ-मूठ ही अपने को घर के मालिक का विद्वासपात्र बताये का.
अपने को घर का मालिक कहे तब प्रयुक्त ।
कच्चो ] [ बन्देली कहाबत कोश
कऊं की इंट कऊँ कौ रोरा। भानमती' ने कुनबा जोरा॥
(१-ये दक्षिण देश की एक जादृूगरनी थीं। कुछ लोगं इन्हें राजा भोज की
पत्नी भी बतलातें है।) इधर-उधर की वस्तु इकटठी करके कोई चीज
तैयार करना।
कऊ डबे, कऊ उखरे ।
कहीं डूबे, कहीं निकले। कुछ कहा, कुछ किया।
कऊँ पनइंयन साँप मरे हें ?
कहीं जूतों से भी साँप मरे हैं ? दुष्ट को मारने के लिए तो पूरा साधन चाहिए ।
कओ बाई, काये पे रूठीं? कई---सूप चल्लाँ पे ।
: पछा--कक््यों बहिन क्यों रूठी हो? कहा--सूप चलना पर । व्यर्थ
रूठनेवाली स्त्री के लिए प्रपुक्त।
ककरा नच रओ।
बड़ा रोब-दाब है।
ककरा से गाड़ी अठक गई।
नाम मात्र की बाधा से काय॑ की प्रगति रुक गयी।
ककरी के चोर खों गतकन समझा लो।
ककरी के चोर को घूँसे मार कर ठीक कर लो। जैसा अपराध है वैसा दंड
दे लो। |
चाहिए कठोरता न एती बरजोर ऊधो,
काकरी के चोरन कठारी मारियतु है।
काकड़ीची चोरी बुकक््यां चा मार ।--सराठी
काकड़ी को चोर मुठगि धौ।--गढ़वाली
ककरिहा चोर का का गढ़िहा मारे ? --बघेली:
कलरी लरका गाँव ग॒ृहार।
.. घर में वस्तु रखी रहने पर भी बाहर तलाश करना।
क्यों काम। हे |
ऐसा काम जो मजबूल नहीं।
श्र * दंएू +
पड आर
बुन्देली कहावत कोद ] [ कड़ाकड़
कुछवार बगार नई लगत।
(१--तरकारी का खंत।) जहाँ का काम वहाँ ही किया जाता है। बघार
हेड़िया में ही लगता है, कछवारे में नहीं ।
कछ इन मूछन की निभाओ।
कुछ मेरी भी छाज रखो।
कछ झार झरो, कछ प्यार झरो।
कुछ झाड़ से दाता निकला और कुछ भूसें से ! कुछ तो काम पहिले हुआ.
और कुछ अब :! व्यंग में ।
कछ बसंतन की खबर है !
कुछ आगे का भी ध्यान है।
कटी उंगरिया पे नईं मतत।
कटी उँगली पर नहीं मृतता है। समय पर जरा भी काम नही आता है।
लोगों का विश्वास है कि कटी उँगली पर तुरंत पेशाब करने से पीड़ा कम
हो जाती है, और घाव भर जाता है। किसी व्यक्ति के समय पर काम न
आने पर प्रयुक्त ।
कटे पे नोंन मिर्च भुरकबो।
जले को और भी जलाना।
कठवा की हेंड़िया एकई बेर चड़त।
काठ की हाँडी एक ही बार चढ़ती है।
कड़वारे के कोदों खायें, ठसक के मारे मरी जायें।
उधार लेकर कोदों खाती हैं, फिर भी ठसक के मारे मरी जाती हैं ।
कड़वारों काड़ तीजा करी।
.. उधार लेकर हरतालिका ब्रत किया ! उधार लेकर काम चलाने वालों“
पर व्यंग । ४;
कड़ाकड बजें थोथे बाँस। द
निकम्मे और बातूनी आदमी के लिए कहते हैं ।
«» 3 ++
को ः
५. कक्षा
बह ऐ८
कत्थर ] _[ बन्देली कहावत कोंदीं
कड़ी' मुराई ना मुरं, बरिन खाँ हाथ पसारें।
(१-कढ़ी, दही और बेसन से बना भोज्य पदार्थ ।) कढ़ी तो दाँतों से
चबाते नहीं बनती, पकौड़ियों को हाथ फैलाते हैं । छोटा काम तो बनता नहीं,
बड़ा काम सिर पर लेना चाहते हैं।
कड़ी क दाँत नहीं, फूलैरी का हाथ पसा-रें-बघेली
रस गला हलाग, हाड़ सुं हाथ पसारनुं--गढ़०
(शोरबा तो गले में अटकता है, हड्डी को हाथ फंलाते हैं)
कड़ीं हमें खान दो के बगराउन दो।
कढ़ी हमें खाने दो या फंलाने दो!
हमें कुछ न कुछ करने दो। जबर्देसस्ती गले पड़ना।
कड़ेरे' के ब्याव कुंदेरी' हात जोरत फिरे।
(१-कड़ेरा एक जाति। २-क्ुँदेरा एक अन्य जाति जो खराद का काम
करती' है।) कड़ेरे के यहाँ शादी और कुदेरा' हाथ जोड़ता फिरता है।
कड़ेरे के लरका कुँदेरे कें बधाई।
बेमेल काम ।
कतकी कोरी टटोउत की करीं।
(१-कोंरी शब्द में इलेष है। उसका एक अर्थ मुलायम है और पानी में उबाले
हुए उन गेंहुओं को भी कोरी कहते हैँ जो शादी-विवाह के अवसर पर स्त्रियों
को बाँटे जाते हैं।) कहने को मुलायम, पर टटोलने में कड़ी। अर्थात्
व्यवहार में मधुर, पर हृदय की कठोर ।
कृतन्नी सी जीब चलत ।
बहुत बातूनी ।
कत्थर गुद्दर सोवें, मरजादी' बठे रोवें।
( १-मर्यादा वाले, प्रतिष्ठावान्) जिनके पास ओढ़ने को फटे-पुराने च थड़े
हैं वे उनमें ही सुख की नींद सोते हैं, परन्तु बड़े आदमी बैठे रोते हैं,
इसलिए कि उनके पास कीमती कपड़े नहीं। तात्पर्य यह कि गरीबों का
काम थोड़े में चल जाता है, अथवा संतोष बड़ी चीज है।
<> ४
बे
बुन्देली कहावत कोश | [ कपड़ा परे
कथनी से करनी बड़ी।
कहने की अपेक्षा काम करना अच्छा।
कथरी कौ मड़ायछो' बाँदें, गुलाल खाँ ठिनके फिरें।
(१-पगड़ी के ऊपर बाँधा जाने वाला दुपट्टा।) कथरी का मुड़ायछा
बाँध रखा है, और कहते हैं, हम भी गुलाल लगवायेंगे। किसी वस्तु के
पाने का उपयुक्त अधिकारी न होने पर भी उसकी माँग करने पर ।
- कथरी के टोपी, अबीर के झोंका मारै--बघेली
कथा सुन भागत सुन, भौत भई खुसी।
हृदय ज्ञान लागो नहीं, चिन्ता रॉड़ घुसी।॥।
चिन्ताग्रस्त आदमी को कोई बात' नहीं सुहाती।
फनक न कंडा, कोरे गुंडा ।
गाँठ में न आटा है, न ईंधन, शेखी बड़ी वघारते हैं।
कन कन जोर मन ज्रत।
कन कन जोरे मन जुरे, खाते निबरे सोय--व्रन्द
कनवाँ सें कनवाँ नई कई जात।
काने से काना नहीं कहा जाता।
कनवाँ सें कनवाँ कओ तुरतई जावे रूठ।
हराँ हराँ के पूछिये कसे गई ती फूट॥
काने से काना कहने से वह तुरन्त नाराज़ हो जाता है। उससे तो धीरे-धीरे
पूछना चाहिए कि भाई तुम्हारी यह आँख कैसे फूट गया।
कपड़ा परे जग भाता, खाना खेये सन भाता।
वस्त्र दूसरे की रुचि का पहने और भोजन अपनी रुचि का करे।
कपड़ा पर तीन बार, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्रवार।
तया वस्त्र पहिनने के संबंध में व्यवस्था ।
राजस्थान में यह कहावत इस प्रकार प्रचलित है:--कपड़ा पहरे तीन
बार, मंगल, बध अर थावरवार | (१-शनिवार।)
न, दर, न. न
ब् बन्द हा श् न
कभऊंँ ] [ बुन्देली कहावत कोश
कपास तो ओंटठबेई को बनो।
कपास तो ओटे जाने के लिए ही बना है। दीन-हीन तो पीड़ित होने के' लिए
ही बने हैं। |
कपासमल कों तौ करऊं उटठने।
कृपास को तो कहीं उँठना। दीन-हीन कहीं भी जायें, सत्र उन्हें कष्ट
उठाना है।
कपुत सें तो निपुतेई भले।
कपूत से तो निपूते ही अच्छे ।
कपूतन स्रें पिड की आस !
अयोग्य पुत्र से सहायता की आशा व्यर्थ है।
कपुर खुआयें सत्त नई चड़त।
कपूर खिलाने से सत्त नहीं चढ़ता। कुछ अपना भी गुण चाहिए।
किसी स्त्री या पुरुष के सिर जब देवी आती हैं तब उसके आगे कपूर का होम
किया जाता है। फिर भी यदि देवी न आयें तो कपूर खिलाने से तो काम नहीं
चल सकता । तात्पयं यह कि जिसके सिर देवी आने वाली हैं उसमें भी
कुछ पात्रता होनी चाहिए।
कों ० किक
कफन को बंठें।
कफन के लिए बेठे हैं। बिलकुल गरीब हैं। कफन के लिए भी पैसा नहीं ।
कबसे राजा ईसुर भये, कोदों के दिन बिसर गये।
(१-भैया के अर्थ में व्यंग्य में प्रयुक्त ।) भैया कब से जगदीश्वर बन
गये ? क्या वे दिन भूल गये जब कोदों खाकर रहते थे। छोटा आदमी बड़े
पद पर पहुँच कर डींग मारने छगे तबकहते हैं।...
कभऊं नाव गाड़ी पे, कभऊँ गाड़ी नाव प॑।
भिन्न-भिन्न प्रकार के दो मनुष्यों को, भी आपस में एक दूसरे की सहायता की
आवश्यकता पड़ती है। नाव जब बन कर तैयार हो जाती' है तब उसे गाड़ी
पर लाद कर ही नदी में ले जाते हे और गाड़ी जब नदी पार उतारी जाती है
तब नाव पर चढ़ा कर ही ।
> बबंन 3 ५ मम
बुन्देली कहावत कोश ] [ करघा
क्रमऊं सक्कर घना, कभऊंँ मुद्ठक चना।
कभी खूब शक्कर और कभी केवल मुठठी भर चने। संसार में सब दिन एक
से वहीं जाते, ईश्वर जो कुछ दे उसी में संतोष करना चाहिए।
कदे घी घणा कदे मुट्ठी चना--राजस्थानी
कम कूबत गुस्सा ज्यादा।
कमजोर आदमी को गुस्सा अधिक आता हैं।
कमरा कमरा की गाँठ नई लूगत। द
कम्बल कम्बल की गाँठ नहीं लूगती। बड़ों में समझौता कराना कठिन
होता है।
कमरी कौ खुडड मारें, अबीर कों ठिनकी फिरें।
किसी वस्तु के पाने के योग्य न होकर भी उसे माँगना।
करये कयें धोबी गदा पे नई चड़त।
आदमी कोई काम सेव भले ही करता रहे, पर कहने से वही काम
नहीं करता ।
कयें खेत की सुनें खरयान की ।
कुछ कहा जाय और कुछ समझा जाय।
देखति हौं ब्रज की लुगाइन भयौ धों कहा,
खेत की कहें तें खरियान की समझतीं--ठाकुर
कर खेती परदेसे जाय | ताको जनम अकारथ जाय ॥
खेती करके जो परदेश चला जाय उसका जन्म व्यर्थ जाता है, अर्थात् खेती
के काम में सफल नहीं होता।
कर गुजरान गरीबी में।
गरीबी में संतोष से काम लेना चाहिए।
करघा छोड़ तमासें जाय । नाहक चोट जुलाहा खाय॥
अपना काम छोड़ कर दूसरे के झगड़े में पड़ने से हानि उठानी पड़ती है।
इसकी एक कथा इस प्रकार हे--एक बार किसी शहर में, जो एक छोटी
नदी के किनारे बसा हुआ था, खूब वर्षा हुईं। उससे नदी में बाढ़ आ
+ ५१- हे
हा छा ख हैं५
40 5 0 5 6]
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४ 4 पी । ८
ृ ] हि । 6५ + की
५ 4 (20,78४
का] 8. ८ 4 भर
करम ] [ बुन्देली कहावत कोश
गयी। लोग बाढ़ का तमाशा देखने जा रहे थे। किसी जुलाहे से उसके
मित्रों ने कहा--चलो तुम भी बाढ़ का तमाशा देखो । जुलाहे ने इन्कार
किया और कहा कि करघे में थान चढ़ा हुआ है, और इस समय कुछ
बूँदा-बाँदी भी हो रही है, परन्तु मित्रों के बार-बार कहने से विवश होकर
वह भी उनके साथ हो लिया। जिस रास्ते वे लोग जा रहे थे उस पर
एंक पुराना मकान था। रास्ते में पानी जोर का बरसने लगा।जब वे उस
मकान के नीचे होकर निकले तो संयोग से उसकी रास्ते की तरफ
की दीवार उन पर गिर पड़ी। और लोग तो बच गये परन्तु गरीब जुलाहे
को गहरी चोट आयी और बेचारा मरने को हो गया। लोग उसे चारपाई
पर लाद कर घर लायें। इस पर वहीं एक व्यक्ति ने, जो इस सारे किस्से
से परिचित था, उक्त वाक्य कहा।
करतब की विद्या है।
विद्या अभ्यास करने से आती है।
करता सें करतार हारो।
कर्मठ व्यक्ति के सामने ईश्वर भी हार मानता है।
कर तो डर, ना कर तो डर।
कोई बुरा काम करे तो डरे, न करे तो भी ईइवर के कोप से डरता रहे ।
दोनों ओर संकट उपस्थित होने पर प्रयुक्त। कोई काम करो तो
मुसीबत, न करो तो भी मुसीबत ॥॥
कर देखो दगा, जो बच जाय तगा।
किसी को धोखा देना अच्छा नहीं, उससे सदेव हानि उठानी पड़ती है।
करनी के न करतुत के, खाबे कों अढ़ाई सेर। (अथवा करनी न करतृत, खावें
को मजबत।)
निकम्मे नौकर या लड़के के लिए प्रयुक्त ।
करम छिपें ना भभूत् रमायें।
साधू का वेश बता लेने पर भी बुरे कर्म नहीं छिपले।
न कण प्र २ अलकाक
की
बुन्देली कहावत कोदा ] [ करिये
करमन की गत कोऊ नें नई जानी।
भाग्य का लिखा कोई नहीं जान पाता।
करम लौट जाय, पे खाद न लौटे।
कर्म में लिखा भले ही लौट जाय, परल्तु खेत में डाली गयी खाद व्यर्थ नहीं
जाती। उसका अवश्य फसल पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
करमहीन खेती कर । बेल मरें के सूखा पर॥
कर्महीन के कोई कार्य सफल नहीं होते ।
करम बिनतानो खेती करे, बलद मरे के सुक्खण परे--गुजरातोी
कर ल)ओ सो काम, भज ल)ओ सो राम।
संसार में आकर जितना काम कर लिया और भगवान का जितना नाम ले
लिया उतना ही अच्छा। आलस करना ठीक नहीं ।
करिया अच्छर भेंस बरोबर।
अपढ़ के लिए श्रयुक्त।
करिया के आँगें दिया नई जरत।
काले सप॑ के आगे दीपक नहीं जलता | अर्थात धूत्त व्यक्ति के सामने किसी
की नहीं चर्कती। लोगों का विश्वास है कि काले सर्प के आगे दीपक बुझ
जाता है।
क्रिया कौ मंत्र मिल जे, पे गडंता कौ नईं मिलत।
(१-एक जाति का जहरीला सर्प, जिसके शरीर पर पूँछ से लेकर
सिर तक सफेद अथवा हलके पीले रंग के घेरे पड़े रहते हैं। कहीं-कहीं इसे
कौड़ीला और कहीं चित्ती कहते हैं। बंगाल में यह करैत के नाम से प्रसिद्ध
है। यह शान््त प्रकृति का, परन्तु फषधर की अपेक्षा कहीं अधिक जहरीछा
होता है और चुपचाप काठता है।) काले सर्प का मंत्र मिल जाता है, परन्तु
गड़ेता का नहीं मिलता। अतः धोखे से गहरी मार मारने वाले व्यक्ति के
लिए कहावत का प्रयोग करते हैं।*
करिये मन की, सुनिये सब को ।
बात सब की सुननी चाहिए, परन्तु करती मन की चाहिए ।
«- पिदे न
श्ँ कि ६]
करें ] [ बुन्देली कहावत कोश
करो और करके न जाती।
एक तो खोटा काम किया और फिर वह भी चतुराई से नहीं।
करा और करन जाना में होती तौ कर दिखाती ।--फंलन
करी कराई सब साटी में मिला दई।
बना-बनाया काम बिगाड़ दिया।
करी कमाई खो बेठे।
परिश्रम व्यर्थ गया।
करी न खेती, परे न फंद । घर घर डोलें मुसरचंद॥।
काम में मन न छगाने वाले अल्हड़ और स्वतंत्रता-प्रिय व्यक्ति के'
लिए प्रयुक्त ।
करोल कौ काँटो, साढ़े सोरा हात लाँबो।
गप्प हाँकना।
करुआ' तरें ठाँड़ | |
( १-नीम का वृक्ष । एक ग्रामीण देवता, जिनका निवास नीम अथवा आम के
वृक्ष पर माना जाता है। इसके संबंध में एक दोहा है--
आम नीम करुआ बसे, ऊमर बसत मसान।
भेंसासुर॒डाबर बसें, सिंह जु प्यासे जायेँ।)
दपथ के रूप में कहावत का प्रयोग होता है कि हम करुआदेव के वासस्थलू
के नीचे खड़े हैँ जो झूठ बोलते हों।
करें न धरें सनीचर लगो।
कुछ करते-धरते तो हैं नहीं, ग्रहों को दोष देते हैं।
करेला और नीम चढ़ो।
एक तो किसी मनुष्य का स्वभाव पहले से ही खराब हो, और फिर कुसंगत में
पड़ कर अथवा ऊंचा पद पाकर वह और भी खराब हो जाय तब कहते हैं।
एक ते (अ) तितलूउकी दूसरे चढ़लि तीमी पर--भोज०
कर बनत के दयें बनत। ह क्
कोई काम या तो स्वयं अपने हाथ से करने से होता है अथवा पैसा देने से ।
ह न पूरे --
हि व
ब॒न्देली कहावत कोश ] [ का क़रे
करो खेती और भरो दंड।
खेती करो और लगान दो, अथवा नाना प्रकार की अन्य मुसीबतें सहो।
कसाई कौ सुकेनों और पड़ा खा जाय !
कसाई का धूप में सूखने डाला गया अनाज जानवर खा जाय, यह कैसे संभव
है? टेढ़ें आदमी का अनिष्ट करने से सब डरते है।
कहता सो कहता, सुनता सरेख चाहिए।
बात कहने वाला तो ठीक है, परन्तु सुनने वाला भी सुघड़ चाहिए ।
कहते हैं करते नहीं बे हैं बड़े लवार।
कह कर जो करते नहीं वे बड़े झूठे हैं ।
कहूँ कहूँ गोपाल की गई सिटलल्ली भूल ।
काबुल में सेवा कियो, ब्रज में कियो करील।
जिस वस्तु की जहाँ आवश्यकता हो, वहाँ वह न हो, और अन््यत्र प्राप्त हो
तब प्रयुक्त।
कहै दुरकन' सुन पिय काँस ।
तुम लागौ दतुआ, हम लाग पाँस ।
बड़े बड़े बेल खुटारी' पाँस ।
का करे दुरकन का कर फॉँस।
(१--एक प्रकार की मजबूत बेल जिसकी जड़ें बड़ी गहरी जाती हैँ, और
जो खेत में फैल कर फसल को हानि पहुँंचाती है। २--एक प्रकार की घास।
३--जखर में लगे हुए लकड़ी के खूँटे, जिनमें पाँस फंसी रहती है। ४---
बखर में लगी हुई लोहे की चौड़ी धार दार पत्ती जो लगभग ३० अंगुल लंबी
और ५ अंगूल चौड़ी होती है। ५--ऊँची धार वाली।)
दुरकत् कहती हूँ कि हे प्रियतम काँस सूनो, तुम तो बखर के दँतुआ से चिपटो
और मैं पाँस में फंसूगी, जिससे खेत में जोताई बखराई न हो पाये। इस पर
किसान कहता है--मेरे बड़े-बड़े बलवान बैल हैं और पाँस भी मजबूत
धार वाली है, मेरा क्या तो दुरकनू बिगाड़ सकती है, और क्या काँस !
च्ह
काँधे ] [ बुन्देली कहावत कोश
काँ को पँवारों लगाओ।
कहाँ का पँवारा लगाया ? अर्थात कहाँ का लंबा-चोड़ा किस्सा छेड़ दिया !
काँस कौ बाघ हो गओ ।
घर का आदमी ही शत्रु बन गया ।
कॉँख बल सो निज बल ।
अपने शरीर का बल ही सच्चा बल है।
कॉटे की तौल ।
बिलकुल ठीक बात ।
काटे से काँठो निकरत ।
काँटे से काँठा निकलता है। जैसे को तैसा मिल जाय तभी काम चलता है
कण्टकेनैव कण्टक्म्--सं ०
काँटे से काँटो बिदो।
काँटे से काँटा बीघा है। मामछा अटक गया है। जैसे को तैसा मिल गया है ।
काँटो साले करील कौ, उर बदरोटा घाम।
लरका साले सौत कौ, उर साजे कौ काम ॥
क्रील का काँटा, बदली का घाम, सौत का लड़का और साझे का काम, ये
चारों कष्टदायक होते हैं।
काँठे से पूंछ नइयाँ, चेरिया' नाव।
(१-जानवर की रीढ़ की हड्डी का वह स्थान जहाँ से पूछ शुरू होती
है। २-वह गाय जिसकी पूछ का सिरा सुरा गाय की पूँछ के बालों की तरह
श्वेत तथा शरीर का रंग उससे भिन्न हो। चँवरी।) काँठे से तो पूछ नहीं,
फिर भी नाम है चँवरी। नाम के अनुसार गुण नहीं ।
काँधें कबरा पुटठन सेत, इनके बये जसे ना खेत ।
जो बल कंधे पर चितकबरा और पुट्ठों पर सफेद हो उसके बोये हुए बीज
नहीं जमते | तात्पर्य यह कि इस तरह का बैल बड़ा कमजोर होता है और
उसके द्वारा जोताई-बोवाई का कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न नहीं किया जा
सकता । विचार त्थाग दिया हो ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त ।
पे
4)
बुन्देली कहाबत कोश ] [ काऊ खों
का राजा भोज, का डुँठा तेली।
कहाँ राजा भोज, कहाँ डुठा तेली ।
जब दो व्यक्तियों अथवा दो वस्तुओं में कोई समानता न हो तब व्यवहृत ।
यह कहावत हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न रूपों में प्रचलित है।
ये सब रूप यहाँ दिये जा रहे हैं।
कोथाय राजा भोज कोथाय गंगाराम तेली---बंगला
कहाँ राजा भोज कहाँ गंगु तेली --मराठी
कठ राजा भोज, कठे गांगलो तेली--राजस्थानी
कां राजा भोज कां गंगवा तेली--कुमायँनी
का राम राम काँ टे दें।
जहाँ दो बातों की कोई तुलना न की जा सके, एक अधिक अच्छी और दूसरी
नितानत बुरी हो ।
काँसे' कौ सुर कॉाँसे मई रन दो।
(१-एक मिश्रित धातु जो ताँबा और जस्ते के संयोग से मिल कर
बतती है; कसकुट। इसके बने बत्तंव थोड़ी सी ठोकर छगने से खनकते
हैं।) काँसे का सुर काँसे में ही रहने दो, अर्थात घर की बात घर में ही रहने
दो, बाहर उसको प्रकृट करना ठीक नहीं ।
काऊ की बऊ, कोऊ बरा' बदलावे।
( १-टेहुनी से ऊपर हाथ में पहिनने का चाँदी या सोने का आभूषण ।)
किसी की बहू और कोई शराफ की दृकान पर उसका बरा बदलवाने जाय ।
जब कोई अनुचित रूप से किसी के काम में हस्तक्षेप करे, अथवा बुरी
नीयत से किसी की सहायता को उद्यत हो ।
काऊ खों भटा बायले काऊ खों पित्त करें।
बैंगत किसी के लिए तो वायुवर्धक होते हैं और किसी की भूख बढ़ाते हैं।
एक ही वस्तु किसी के लिए हानिकर और किसी के लिए गुणकारी
होती है । |
पा० काऊ खों भटठा बायले काऊ खों पथ्य बिरोबर
यह पर्स डन्न हर
७ ५ हद
काजर | [ बुन्देली कहावत कोर
कागज की भसम किन भसमन में । करो खसम किन खसमन में।।
कागज की भस्म की जिस प्रकार कोई गिनती नहीं, उसी प्रकार किया हुआ
दूसरा पति भी किस गिनती में ? अर्थात वह किसी काम का नहीं।
कागद के फूल।
बनावटी चीज़ ।
कागद थोरो हित घनो।
कागज में स्थान इतना कम है कि लिख कर प्रेम प्रकट नहीं किया जा सकता।
कागद होय तो बाँचिये, करम न बाँचे जायें।
कागज में लिखे हुए को तो पढ़ा जा सकता है, परन्तु कर्म में लिखे को कोई
नहीं पढ़ सकता। एक लोकगीत की कड़ी |
यह कहावत ठीक इसी रूप में, थोड़े से शब्द परिवत्तेंन के साथ, गुजरात
में भी प्रचलित है ।---
तन खाँ होय तो तोड़िओ रे, प्रीत न तोड़ी जाय।
कागज होय ते बाँचिओ रे, करम न बाँचा जाय।
का खाँड़ के घुल्ला' हो जो कोऊ घोर के पी ले (ए)॥
(१-घोड़ला, घोड़ा। मकर-संक्रान्ति के अवसर पर बनने वाले शक्कर के
घोड़े और खिलौने । ) क्या शक्कर के खिलौने हो जो कोई घोल कर पी लेगा ?
जब कोई मनुष्य अतिरिक्त लज्जावश किसी के सामने जाने में संकोच
करे तब उसके लिए प्रयुक्त ।
काछें काछ और, नाचें नाच और।
एक काम के लिए कमर कसी और दूसरा करने हलगे।
काजर की कोठरी में केसोहू सयानो जाय,
एक रेख काजर की लागि है पे लागि है।
बुरे के साथ ब्राई हाथ आती ही है।
काजर लगाउतन आँख फटी।
काजल लगाते आँख फूटी। अच्छा करते बुरा हुआ।
- ५८ +
| कद ं
बुन्देली कहावत कोश | [ कातिक
काजर सब कोऊ लगाऊत पे चितवन में फरक होत ।
काजल सब लगाते हैं, पर चितवन में फर्क होता है।
अनियारे दीरघ नयन' किती न तरुनि समान।
वह चितवन औरें कछ जिहि बस होत सुजान ॥--बिहारी
काटन लागे चारौ, जेसोइ जेठ तेसोइ बसकारो।
जब घास ही काटने बैठे तो जैसी जेठ मास की कड़ी धूप, वैसी ही वर्षा की
झड़ी । जब छोटा काम ही करने लगे तो कष्टों का क्या विचार ?
काटबो छोड़ दओ तौ फुंकारत तौ जाओ।
काठना छोड़ दिया तो फुंकारते तो जाओ, अर्थात थोड़ा-बहुत भय तो दिखाते
जाओ !
इसकी एक कथा है कि एक समय किसी सर्प ने एक साधू के उपदेश से
काटना बिलकुल छोड़ दिया। इस पर छोग उसे बड़ा तंग करने छूगे। जो
आता ढेला मारता। गुरू को जब इसका पता चला तो उन्होंने कहा, भाई
काटना छोड़ दिया, ठीक किया। परन्तु थोड़ा-बहुत फुंकारतें जाया करो,
जिससे लोग तुमसे डरते रहें, क्योंकि उसके बिता दुनिया में काम नहीं चलता।
काटे कटे, न मारें मरं।
किसी वस्तु से किसी प्रकार पिंड न छूटना ।
काठ छीलो चीकनो, बात छीलो रूखी।
बाल की खाल निकालना ठीक नहीं।
काड़-मूंस के कड़आ देय, फूटे घर खाँ तारो।
सारे संगे बहिनी पठवे, तीनऊ को मों कारो॥
जो कर्ज लेकर कर्ज चुकाये, फूटे घर में ताला दे, और साले के साथ बहिन भेजे,
ऐसे तीनों मनुष्य अंत में हानि उठाते हैं।
कातिक जो आँवर तर खाय । कुदुम सहित बकुंठे जाय॥
-कातिक के महीने में आँवला विशेष रूप से पवित्र माना जाता है।
कात्तिक-स्नान के दिनों में स्त्रियाँ उसकी पूजा करती हैं और आँवला-नौमी
तथा देवोत्यान एकादशी को उसके नीचे भोजन करने जाती हूं।
आह न थे
के है
कानी खो ] [ बुन्देली कहावत कोश
कातिक भोर दिवारी, ठेलमठेल कर ब्यारी।
कातिक बीतने के बाद खूब भर पेट ब्यालू करें तौ भी उससे कोई हानि नहीं
होती, क्योंकि रातें बड़ी होने से भोजन पच जाता है।
कानखज्रे कौ एक गोड़ो टूट जाय तो लूलो नई हो जात।
कानखजूरे का एक पैर टूट जाय तो वह हछूगड़ा' नहीं हो जाता। बड़े
आदमी का यदि थोड़ा बहुत नुकसान हो जाय तो वह उसे नहीं अखरता ।
घोणीचां एक पाय मोडला तरी लूँगडी होत नाहीं ।--मराठी
कान छिदाय सो गुर खाय।
जो कष्ट उठायेगा उसे आराम भी मिलेगा।
कान-धरी छेरी।
ऐसा मनुष्य जो पूर्णरूप से दूसरे के वश में हो और जो कहा जाय वही करे।
प्रायः क्वाँरी लड़की के लिए प्रयुक्त । बकरी का कान पकड़ लेने से वह
फिर भागने नहीं पाती।
कान में ठंठे लूगा लये।
अर्थात किसी की बात नहीं सुनते। अथवा सब ओर से तटस्थ हैं।
कानी अपनो टेंट' तौ निहारे नईं, औरन की फुली पर पर पझाँके।
(१-आँख पर का उभरा मांस-पिंड। २-आँख पर का सफेद धब्बा जो
चोट लगने अथवा चेचक में आँख के नष्ट होने पर पैदा हो जाता है।) कानी
अपना टेंट तो देखती नहीं, दूसरे की फूली लेट-लेट कर झाँकती है। स्वयं
अपना बड़ा दोष न देख कर दूसरे की साधारण त्रुटि को देखते फिरना ।
कानी को आँख में कुस गओ, कानी कों मिस भओ।
कानी की आँख में तिनका गया तो उसे बहाना मिल गया कि तिनके से मेरी
आँख फट गयी।
कानी के ब्याव में सो जोखों।
जिस कार्य के पूरा होने में शंका हो उसमें विघ्न भी बहुत पड़ते हैँ ।
कानी खो कानोई प्यारो, रानी खों राजा प्यारो।
अपता आदमी सबको प्रिय हीता है। . ... . ... ..
कब दर 0. #०-
कक छः
बन्देली कहावत कोश ] [ काम प्यारो
कानी बिटिया खुटईं खु्ठ गई।
कानी लड़की खुटे-खुटे ही अर्थात टोके-टोके ही गपी | एक तो काना होना ही
बुरा, फिर हर आदमी पूँछता है कि आँख कैसे फूट गयी ।
काबुल गये मुगल बन आये बोलन लागे बानी ।
आब आब कर मर गये खटिया तर रओ पानी।
जब कोई अपने घर में इस प्रकार की भाषा बोले जिप्तके सुतने के लोग अम्यस्त
न हों तब कहते है।
काबुल में का गधानों नईं होत ?
काबुल में क्या गधे नहीं होते ? जानकारों में भी मू्खों की कमी नहीं होती ।
काम खों काम सिखा लेत।
काम करने से ही काम करना आ जाता है।
काम के न दंद के डेढ़ सेर अन्न के।
निकम्मे और निठल्ले व्यक्ति के' लिए प्रयुक्त।
कामकाज कूँ थर-थर काँपे, खाने के मरदानी--ब्रज ०
काम के नाव बज्ज्रवारो चड़त।
काम के नाम से वज्न-ज्वर चढ़ता है, ऐसा आलसी है।
काम परे कछ और है काम सरे कछ और ।
तुलसी भाँवर के परे नदी सिरावत मौर॥
काम निकल जाने पर आदमी का रुख बदल जाता है।
काम परे पे जानिये जो नर जेसो होय।
काम पड़ने पर ही मनुष्य की पहिचान होती है।
काम प्यारों होत, चाम प्यारों नई होत।
काम प्यारा होता है, आदमी की सूरत शकल नहीं। भ्राय: ऐसे व्यक्ति के
लिए कहते हैं जो मनोनुकल काम नहीं करता।
-६१- हे
काल | [ बन्देली कहावत कोश
का भरतनईं साई पर जे (ए)।
( १-ढोरों के सड़े हुए घाव में पड़ते वाला एक कीड़ा |) क्या मरते ही साई
पड़ जायगी ? अर्थात क्या कार्य इतने शीघ्र बिगड़ जायगा कि सभाला न
जा सके ।
काम में काम नईं।
काम में काम नहीं । साधारण से काम को बड़ा बताना |
काम सरो, ठुख बिसरो।
काम निकल जाने पर दुख भूल जाता है।
काम सरा दूख बीसरा, छाछ न देत अहीर ।
काया राखें धरम।
दरीर बना रहे तभी धर्म की रक्षा होती है।
शरीरमादं खलु धर्म्म साधनम्
(धर्म करने का मुख्य साधन शरीर ही है)
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर।
धैयें धारण करने से ही काम बनता है।
कारी कबरी कछ तो करो।
अर्थात मुँह से कुछ कहो या करो तो ।
कारे कोसन।
काले कोसों, अर्थात बहुत दूर।
काल करता आज कर, आज करता अब्ब।
पल में परले होत है, फेर करेगा कब्ब॥
जिस काम को करना है उसे तुरंत करना ही चाहिए।
काल की काल सें लगी।
कल की कल से लगी। आज का काम आज देखो, कल का कल देखा जायगा।
* - ६२ -
बन्देली कहावत कोदा ] [ कीनें
काल के जोगी कलोंदे कौ खप्पर ।
जब कोई तुच्छ व्यक्ति बड़े आदमियों का अनुकरण करे।
ये अब सूबहु आवें सिवा पर, काल्हि के जोगी कलींदे को खप्पर'--भूषण
तिन दिनेर जोगी तार पा पर्यन्त जटा ।--दंगला
(तीन दिन के जोगी और पैर तक जटा )
काल के दिन तेर करबो।
किसी प्रकार समय काठटना। मौत की घड़ी गिनना।
काल के हात कमान, बढ़ी बचे न ज्वान।
मृत्यु से कोई नहीं बचा।
काल कौ भरोसो आज नद्याँ।
कल क्या होगा इसका आज भी ठीक निरचय नहीं किया जा सकता, फिर
पहिले से उसका निश्चय तो और भी कठिन है।
काल की कीनें जानी।
कल क्या होने वाला है इसे कौन जान सकता है ?
किलो फ्तें कर आय।
किला फतह कर आये। बड़ा भारी काम कर आयें | प्राय: व्यंग्य में प्रयुक्त ।
किसमत को खेल है।
सब भाग्य का खेल है।
की की छाती में बार हें?
किसकी छाती में बाल हैं ? अर्थात कौन इतना वीर है ? प्राय: चुनौती के रूफ
में प्रयुक्त ।
कौनें अपनी मताई कौ दृद पिओ।
किसने अपनी माँ का दूध पिया है ? कौन इतना बहादुर है ?
कीनें तुमे पीरे चाँवर दये ते ? ०
तुम्हें पीले चावल किसने दिये थे ? अर्थात तुम्हें यहाँ कौन बुलाने गया था ?
ब्याह आदि में पीले चावल और हल्दी की गाँठ देकर सगे-संबंधियों को
न्योतने की प्रथा बुन्देलखंड में प्रचलित है। उसी से कहावत बनी। ज़ब कोई
- ९३ - हें
कं |
कुआ | [ बन्देली कहावत कोश
अनधिक्ृत रूप से दूसरे के काम में हस्तक्षेप करने पहुँच जाय और मना
करने पर भी न माने तब कहते हैं ।
कील काटे सें दुरुस्त ।
पूरी तरह तैयार ।
कुअन में बाँस डारबो।
कुओं में बाँस डालना । किसी वस्तु की गहरी छांनबीन करना ।
कुआ को छाँयरी कुअई में रत।
कुएं की छाया कुएं में ही रहती है। बड़े आदमियों के घर की बात घर में
ही रहती है, बाहर नहीं जा पाती ।
बात प्रेम की राखिये अपने मन ही माँहि।
जैसे छाया कूप की बाहर निकसत नाँहि |--ब॒न्द
कुआ को साटी कुअई खों नईं होत।
कुआ खोदने पर जो मिट्टी निकलती है बह कुएँ में ही लग जाती है । जहां का
पैसा वहीं खर्च हो जाता है।
दराची माती दरास पूरत नाही --मराठी
(गड्ढे की मिट्टी गड्ढे के लिए पूरी नहीं होती )
कुआ के मेंदरे।
कुएँ का मेंढक । अनुभवहीन व्यक्ति ।
क्आ को गिरो सुको नई करड़त।
कुएँ में गिरा सूखा नहीं निकलता । बुरा काम करने पर कुछ-न-कुछ बदनामी
हो ही जाती है।
कुआ में भाँग परी।
सबकी बुद्धि मारी गयी है।
कुआ-बावरी नॉकत् फिरत।
कुर-बावरी लाँघते फिरते हैं। मारे-मारे फिरत है ।
ड़ दंड »+
५५8 ह
बुन्देली कहावत कोश ] [ कुत्ता की
कुजाँगा खाता और ससुर बेद।
बुरे स्थान पर फोड़ा हुआ है और इलाज करना है ससुर को ! किसी लज्जा-
जनक बात को किसी के आगे प्रकट न किया जा सके , पर किये बिना काम
भी केसे चले ? *
कुजगा दुखणो जेठाणो बैद--गढ़वाली
कुठोड़ खाई रे सुसरो वैद---राजस्थानी
अडचणीचें ठिकाणीं दुःख आणि जांवई वैद्य--मराठी
(अड़चन के स्थान पर पीड़ा और जमाई वैद्य)
कुटी दबाई और मुड़ो सन्यासी।
पिसी दवा और मुड़ा सन््यासी (इनको पहिचानना कठिन है। )
वैद्या्चे वाठलें आणि सन््याझाचें मुंडले कोणास समजत नाहीं--मराठी
कुठिया' धोएँ काँदो हात। ह
( १-अनाज रखने का मिट्टी का कुठीला |) कुठिया धोने से केवल कीचड़
हाथ आती है। छोटे आदमी को तंग करने से कोई लाभ नहीं होता |
कुतियाँ प्राग जेयें तौ हेड़िया को चाट १
कुतियाँ प्रयाग जायेंगी तो फिर हाँडी कौन चाटेगा ? यदि छोटे आदमी बड़ा
काम करने लगें तो फिर छोटों का काम कौन देखेगा ?
सकल कुकुर स्वर्ग जावे कारा तवे ऐएँटो खावे--बंगला
कुत्तन के भिरे में कक कौ दिया।
कुत्तों के बीच में कनक का दिया ! यदि रख दिया जाय तो वे उसे तुरंत खा
जायेंगे ।
कुत्ता की चाल जाओ, बिलेया की चाल आओ।
शीघ्र जाओ, शीघ्र आओ।
कुत्ता की पूँछ बारा बरतें पुंगरिया में राखी, जब निकरी तब टेड़ी की ठेड़ी !
कुत्ते की पूँछ बारह वर्ष तक नली में रखी गयी, परन्तु ज॑ब निकली तब ढेढ़ीं
की टेढ़ी । किसी मनुष्य की बुरी आदत कठिनाई से छूटती है ।
हि ६ >> रे ।
बु०--५
कुरयाऊ | | बुन्देली कहावत को
कुकुरेर लेज घि दिये उललेओ सोजा हय ना--बंगला
(कुत्ते की पूँछ घी लगा कर सूँतने से भी सीधी नहीं होती )
कुश्याचें शेंपुट किती ही दिवस नलकांडयांत घातलें तरी अखेरीस वांकड़ें
तें वांकडें --मराठी'
कुतरांनी पुछडी छ महीना नली मां (अथवा भोंय मां) राखे, तो पण वांकी
ने वांकी--गुजराती
ककुर के पोंछ बारह बरस गाड़ी तबहू टेढ़ के टेढ---भोजपुरी
कुत्ता के पेट में घी नई पचत।
ओछे आदमी के पेट में कोई बात नहीं रहती । अथवा ओछे के पास पैसा
हो जाय तो वह उसे छिपा कर नहीं रख सकता।
कुत्ता खों इंठई सृजत।
कुत्ते को ईंट ही सूझती है। बुरे का ध्यान बुरी ओर ही जूता है।
कुत्ता घसीटी में परबो।
ऐसे काम में पड़ना जिसमें व्यर्थ की खींचातानी सहनी पड़े ।
कुननेते' से पड़ा बंधो ।
(१--कुनेंत। धात दलने की चक्की जिसका नीचे का पाट मिट्टी का और
ऊपर का पत्थर का होता है। यह हौले से चलायी जाती है। उसे पड़ा अथवा
किसी अन्य जानवर से खिचवाना मूखंता है।) कुनेंते से पड़ा बँबा है, अर्थात
दो वस्तुओं का बेमेल जोड़ है।
कुमाँर कभहें साजे बासन में नईं खात।
कुम्हार कभी अच्छे बत्तंन में खाना नहीं खाता। अच्छे और साबित बर्त्तन
वह बेचने के' लिए रखता है।
कुम्हेंडे कसी जउआ।
( १-लौकी, कह, आदि के मादा फूल की बौंड़ी।) कुम्हड़े के जौए की
तेरह सुकुमार ।
कुरयाऊ हाट लगी ६
कोरियों की हाट छगी है। अर्थात बड़ा शोरगुल हो रहा है।
९"
“ ६५
8
| का
बुन्देली कहावत कोश ] | केबे कौ
कुरयाने पावन भई।
कोरियों के मुहल्ले में त्यौहार हुआ । विलक्षण बात हुई।
क्कुर को मुंस लड़इया ।
(१-गीदड़ ।) एक के लिए दूसरा बढ़ कर।
के कढ़ें मरस मिलत, के मरें।..
या तो स्वयं करने से किसी बात का ज्ञान प्राप्त होता है, या फिर अपने को
बिलकुल खपा देने से । कक
ककरे कौ जाव भादी कुकेरत।
केकड़े का बच्चा पैदा होते ही मिट्टी कुरेदता है। जिसका जो जन्मगत स्वभाव
होता है वह नहीं छुटता ।
के उठे, क॑ भाँवर पारे।
किसी काम के लिए जल्दी मचाना।
के खाय घोड़ा, क॑ खाय रोरा।
या तो घोड़ा रखने में खर्चे होता है, या मकान बनवाने में ।
के नो मंदा की, के फिर ठतका की।
या तो नौ मैदा की चाहिए, या फिर बिलकुल भूजे रहेंगे । क्
खाईनतर तुपाशीं नाहीं तर उपाशी--मराठी
(खायेंगे तो चुपड़ी नहीं तो उपासे )
के बस भीतरी, के बर्स तीसरी।
द्विरागमन के संबंध में प्रचलित नियम कि वह या तो विवाह के उपरान्त
एक वर्ष के भीतर हो जाना चाहिए, अथवा फिर तीसरे वर्ष ।
के बसे हजारी, के बसे कबाड़ी। हि
बड़े हर में या तो धनाढ्च ही रह सकता है या फिर कबाड़ी |
केबे की लाज, न सुनबे की सरम। के
निर्लेज्ज के लिए ।
ख्ण्क । कमल ढ ४
क्रोऊ मर | [बन्देी कहावत कोश
के आी
कंबे में भाँत है।
बात के कहने-कहने में अन्तर होता है।
के सोवे राजा कौ पूत, के सोबे जोगी अबधूत।
संसार में राजा-महाराजाओं या जोगी अवधूतों को छोड़ कर ऐसे बहुत कम
मनुष्य होते हैं जिन्हें कोई चिन्ता न हो ।
क॑ हुंसा मोती चुगे, के लंघन मर जाय।
बड़े आदमी अपनी आन-बान को नहीं छोड़ते।
कोऊ कौ घर जरे कोऊ तापे।
किसी की तो हानि हो और कोई दूसरा उससे छाभ उठाये।
कोऊ कौ मों चले कोऊ कौ हात चले।
कोई गाली बकता है तो कोई मार बेंठता है।
कोणाचें तोंड चालतें कोणाचें हात चालतो--मराठी
केअरी जीभ चाले केऔरा हाथ चालै---गुजराती
कोऊ गिनें ना गूंथे, में लालन की बआ।
कोई मनुष्य जब जबदेंस्ती किसी विषय में अपनी टाँग अड़ाये तब ।
आवे न जावी॑ हूँ लाडेरी भूवा--राज०
कफोऊ नाचे कंसउई, ऊघो ताचे ऊसउडई।
कोई किसी प्रकार नाचे, पर ऊधो तो उसी प्रकार नाचेंगे, अर्थात अपनी टेक
नहीं छोडेंगे; बार-बार वही बात कहेंगे ।
कोऊ मताई के पेट सें सीक कें नई आऊत।
कोई माँ के पेट से सीख कर नहीं आता। अर्थात करने से ही सब काम आता है।
कोऊ मर काऊ कौ घर भरें।
किसी की हानि से किसी को ला# होना ।
कोऊ मर कोऊ मलार गावे।
कोई तो विपत्ति से मर रहा है और कोई मल्हार गाता है। संसार में कोई
दूसी है तो कोई सुखी ।
“- ६८ -
रह
बुन्देली कहावत कोश] [ कोरी को
कोंऊ मरे, कोऊ मोरों बाँघे।
कोई तो मरता है और कोई उसे जलाने के लिए लूकड़ियों का बोझ बाँध कर
ले जाता है। संसार की विचित्र गति है।
कोऊ राजा कौ सारो, कोऊ रानी कौ सारो॥।
कोई राजा का निकट संबंधी है तो कोई रानी का । किसको प्रसन्न किया जाय ?
किस किस की बात मानी जाय ?
कोऊ रोबे मुंड़ावनी, कोऊ रोबे मंड़।
सब अपना-अपना दुख रोते हैं।
कोठन कोठन जी दुकाउत।
कोठे-कोठे जी छिपाते हैं। काम से जी चुराते हैं। जिम्मेवारी से भागते हैं।
कोठे कोठे कौ बद्धि।
अपनी-अपनी बुद्धि।
कोढ़ और कोढ़ में खाज।
विपत्ति में और विपत्ति।
कोदन की रोटी और कहल्ल लगाई।
पानी के सयर' में राम को का थराई॥
(१-महेरा, मट्ठे के साथ पकाया गया ज्वार या मकक््के का दलिया जिसे गुड़
या नमक-मिर्च के साथ खाते हैं।) कोदों की रोटी, काली-कलूटी स्त्री और
म॒ठे की जगह पानी में पका महेरा, भला इसमें भी राम का क्या अहसान ?
कोरी की बिटिया केसर कौ तिलक।
हैसियत के विरुद्ध काम ।
कोरी कौ भेंस ने कब पसर' चरी।
( १-प्रसर, विस्तार, खुला मैदान । “डोरों को रात्रि के समय खुले मैदानों
अथवा खेतों पर ले जाकर स्वतंत्रतापूर्वक चरने के लिए छोड़ देने को
पसर चराना कहते हैं। पसर प्रायः चोरी से ही चरायी “जाती है। दूसरों के
खेतों की मेंड्रों पर चुपचाप ढोर छोड़ दिये जाते हैं।) कोरी की भैंस में...
“ ९ है
श्धू
कोलूके | ' [ बुन्देली कहावत कोश
इतना साहस कहाँ जो रात्रि में दूसरों के खेतों पर घास चरने जा सके ?
. सीधे और दब्बू मनुष्य से साहसपूर्ण कार्य की आशा व्यर्थ है।
कोरी के बियाव कड़ेरो पर पर जाथ। ....
(१-बाँस की लाठी आदि बेचने वाली एक जाति।) कोरी के यहाँ तो
: विवाह है और कड़ेरा लोगों की खुशामद करता फिरता है। काम तो किसी
का अठका है और चिन्ता दूसरे को है।
काजी जी दुबले क्यों, शहर के अंदेदी ।
कोरी के लरका खों सरगई में बेगार। कर
कोरी के लड़के को स्वर्ग में भी बेगार। गरीबों और सीधे-सादे लोगों की हर
जगह मृसीबत।
ढेंकी स्वर्ग गेलेओ धान भाने--बंगला
(मूसल स्वर्ग में जाकर भी धान कूटता है)
कोरी कौ सुआ का पढ़े 7--तगा-पौनी ।
कोरी का तोता क्या पढ़ता है 7--सूत और पौनी ? जो जिसका धंधा होता
है उसके घर में उसी की चर्चा रहती है।
कोरी कौ बेगारी कुचबँंदिया ।
( १-बुन्देलखंड की एक घुमक्कड़ जाति जो मूँज की रस्सी, सींके' तथा कोरियों
के काम आने वाले कूँच आदि बना कर जीवन-निर्वाह करती है। ये छोग
धीरे-धीरे अब सजदूरी और खेती करने लगे हैं।) कोरी को' जब बेगार
के लिए किसी की आवश्यकता होती है तब वह कुचबदिया को पकड़ता है।
जैसे को तेसा मिल ही जाता है।
कोरे के कोरे र गयें।
जैसे खाली हाथ थे वैसे ही रह गये ।
कोरो बतबच्ना।
. कोरी बातें बनाना।
कोल के बेल। क्
एसा मनुष्य जिसे दिन-रात .काम में जुता रहना पड़ता हो
क्ः
“ 3०. *०*
बुन्देली' कहावत को |. [ कौआ काने
फोल के बेल कों घरई में पचास कोस की मजल।
कोल्हू के बैल को घर में ही पचास कोस की मंजिल ते करनी पड़ती है। जिसके
भाग्य में कष्ट भोगना बदा है, वह घर में भी चन से नहीं बेठ पाता ।
पा० तेडी के बैल. . . .
कोल के बेल को नाहर खाय, अपनी घानी उतर जाय।
(१-तिलहन की वह मात्रा जो एक बार में कोल्हू में पेरने के लिए डाली
जाती है।) हमारा काम बन जाय फिर चाहे दूसरे की हानि भछे ही हो। ह
स्वार्थी व्यक्ति के लिए। क्
कोस-कोस लो गोड़े धोवे, दो-दो कोस पे खाय।
ऐसो बोले भड़डरी, चाय जहाँ लों जाय॥
पैदल यात्रा में थोरड़ी-थोड़ी दूर पर शीतल जल से पैर धोने और कुछ खा लेने
से थकान दूर होती है।
कोस कोस पे पानी बदले, बारा कोस पे बानी ।
कोस-कोसत पर पाती और बारह कोस पर भाषा बदल जाती हूं।
को हाथी मार को दाँत उखारे द
कठिन काम कौन करे ?
फोंडी के तीन-तीन होबो।
मारा-मारा फिरना। बरबाद होना ।
कौंड़ी कौंडी माया ज्रे।
थोड़ा-थोड़ा करके' बहुत इकट्ठा हो जाता है।
कौअन' के कोसे ढोर नईं मरत।
कौओं के कोसने से पशु नहीं मरते ।
कावढ याचें श्रापेनें ढोरें मरत नाहींत--मराठी
कागडाने श्रापे ढोर न मरे--गुज ०
कौआ कान ले गओ, टटोये तौ दोऊ लगे। ः
कौआ कान ले गया, टटोले तो दोनों लगे हैं। सुनी-सुनायी बात पर जब कोई
दृढ़ विश्वास कर ले तब । शश,
-“ ७१ -
कौत कान ] | बन्देली कहावत कोश
इस पर एक दृष्टान्त है। किसी मूर्ख से लोगों ने कहा, तुम्हारा कान
कौआ ले गया । इस पर वह तुरन्त कौए के पीछे दौड़ पड़ा लोगों ने
पूछा, भाई यह क्या कर रहे हो ? उसने उत्तर दिया-मेरा कान कौआ हे
गया है । उसी को छीनने जा रहा हूँ । तब वहीं खड़े एक आदमी ने कहा,
तुम्हारे कान तो दोनों छूंगे हें। कौआ कौन सा कान ले गया ? उसने जब
टटोल कर देखा तो अपनी मूखंता पर बड़ा लज्जित हुआ ।
कौआरोरो।
कागारोल। कौओं की तरह का बेहद शोरगुल ।
नगर कनबज की बरिया तरें ठाँड़े सबरे सूरमा सो कौआ रौरो होय ।
ह --एक लोकगीत
कौआ हाड़ न लजें।
कोआ हड़ियाँ नहीं ले जायेंगे ।. मरने पर कहीं ठिकाना नहीं लगेगा।
कौन अकेली तुमाई सताई नेई सोंठ-बिसवार खाई।
(१-सोंठ, पीपल, अजवाइन आदि का मसाला जो गुड़ के साथ प्रसूता को खाने
को दिया जाता है।) अकेली तुम्हारी माँ ने ही सोंठ-बिसवार नहीं खायी
है, हमारी माँ ने भी खायी है। हम भी कुछ बूता रखते हैं ।
कौन इते तुमाओ नरा' गड़ो।
(१-नाल, रक्त की नलियों तथा एक प्रकार के मज्जातंतु से बनी रस्सी. के
आकार की वह डोरी जो एक ओर तो गर्भेस्थ बच्चे की नाभि से और दूसरी
ओर गर्भाशय की दीवार से मिली होती है। बच्चा पैदा होने पर इसे काट
क्र अलग कर देते हैं और सूतिकागृह में ही गड्ढा खोद कर गाड़ देते हैं।)
तुम्हारी कोन यहाँ नाल गड़ी है ? अर्थात तुम्हारा यहाँ क्या हक है? किस
बूते पर तुम यहाँ अपने अधिकार की बात करते हो ? तुम्हारा तो यहाँ जन्म
भी नहीं हुआ। मु
कौन कान में कौर जात। क् ह
कौन कान में कौर चला जायगा । किसी कार्ये के लिए जल्दी मचाने पर |
. “« 3४०२ «
हु
ब॒न्देली कहावत कोश ] [ कौन तुम
कौन कौन गुन गायें अपने राम के।
किसी की करतूतों का बखान करते समय व्यंग्य में। अर्थात हम इनकी क्या
क्या बात कहें ।
कौन जनम भरे की साई हरई।
( १-वह रकम जो मजदूरों को काम पर नियुक्त करने के उद्देश्य से बयाने
के रूप में पेशगी दी जाती है।) क्या काम करने का जन्म भर का ठेका लिया
है? उस समय प्रयुक्त जब किसी आदमी से बारबार किसी एक काम
को करने के लिए कहा जाय ।
कौन तुमाई टॉँक' से टाँक जोर के खालें।
(१-जाँघ।) हमें कोन तुम्हारी जाँघ से जाँघ मिला कर बैठना और खाना
है। अर्थात् हमें तुमसे क्या मतलूब ? क्यों हमें आँखें दिखाते हो ?
कौन तुमईं अकेले ने मताई कौ दूध पिओ।
कौन तुम्हीं अकैले ने माँ का दूध पिया है। अर्थात तुम्हीं बड़े शूरवीर नहीं हो ।
हममें भी कुछ बूता है।
कौन तुम इते गुना गोंठ रये।
( १-एक पकवान विशेष जो मोटा और कुंडलाकार होता है और जिसे दर्शनीय
बनाने के लिए किनारों पर चारों ओर से गोंठते हैं। यह प्रायः दहेज के साथ
देने को बनता है।) अर्थात कौन तुम यहाँ बड़ा भारी काम कर रहे हो। जब
घर का कोई छोटा व्यक्ति कोई काम करने या कहीं जाने से इन्कार कर दे
प्रायः तब ।
कौन तुम इते म्यॉर को मृड़ा साद रये।
(१-घर के छप्पर को साधने के काम आनेवाली वह मोटी लकड़ी जिसके
सहारे बड़ेरे की लकड़ी रखी जाती है। भारी होने के कारण इसे दीवारों
पर उठा कर रखने के लिए कई आदमियों की आवश्यकता पड़ती है।)
कौन तुम यहाँ म्याँर का सिरा साध रहे हो ? अर्थात तुम यहाँ कौत सा
महत्वपूर्ण काम कर रहे हो।
«- छठे -
खटपाटी ] | [ बुन्देली कहावत कोश -
कौरई कौरा कौ पुन्न।
थोड़े-थोड़े का ही बहुत पुण्य होता है। अथवा थोड़े-थोड़े का ही पृण्य सही ।
कौरयाऊ कुतिया मखमल की झूल।
पा० खौरियाऊ कुतिया . . . .
कौरा खाने वाली कुत्ती और उसके लिए मखमल की झूल !
क्वाँर करेला, कातिक दही । मर नहीं तौ पर सही।
क्वाँर में करेला और कातिक में दही खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकर होता है ।
क्वॉर के झला, साव के लला।
( १-यकायक आ जाने वारा पानी का हलका झोंका।) क्वाँर के महीने
में पानी के झोंके उसी प्रकार सहसा रह-रह कर आते हैं जिस प्रकार बड़े
आदमी का निठल्ला लड़का गाँव की गलियों में कभी इधर से निकल जाता
है, कभी उधर से।
क्वॉरी कन्या को सौ बर। ह
क्वाँरी कन्या के लिए वर की कमी नहीं रहती । मिल ही जाता है।
क्वॉरी कन्या कों बर और धरती कों बीज मिलई जात।
क्वाँरी कन्या के लिए वर और खेत में बोने के लिए बीज कहीं न कहीं से
मिल ही जाता है।
ख
खजुद गदहया खों सोने की खुजोरी।
अपात्र को बढ़िया वस्तु।
खटपाटी लगें परे। के
खटपाटी लेकर पड़े हैँ, अर्थात रूठे हुए हैं।
किसी विषय पर अप्रसन्न होकर 'अथवा किसी से रूठ कर घर के किसी
'एकान्त-स्थान में चारपाई पर चुपचाप करवट लेकर लेट जानें और बात
न करने को खटपाटी लेकर पड़ना कहते हैं। भारतीय छोक-कथाओं में
कि
. बन्देली कहावत कोश ] : [शरे
जगह-जगह इसका उल्लेख मिलता है। इसे कोप-भवन में जाकर बैठने का
ही एक लोक-प्रचलित रूप समझना चाहिए।
खट्दयाऊ' चपिया, ऊमर को अथांनौ'।
( १-खठाँद देने बाली, बुरी, बदबूदार। २-अचार |) गूलर का अचार, वह
भी बदबूदार बत्तेंन में रखा गया। एक तो वस्तु पहिले से ही बहुत अच्छी
नहीं, और यदि उसमें कुछ अच्छाई भी थी तो उसको भी नष्ट कर दिया गया ।
खता' मिट जात पे गूद बनी रत।
( १-क्षत, फोड़ा, घाव। ) फोड़ा भर जाता है परन्तु उसका चिह्न बना
रहता है। मन में चुभी बात कभी दूर नहीं होती।
खता में खता, ढका सें ढका।
पीड़ा के स्थान में और भी पीड़ा आकर उत्पन्न होती है, हानि में और भी
हानि होती है।
खर' खाई और कुत्तन जूठी। .
( १-तेल निकाल लेने पर तिलहन की बची हुई पीठी, खली । ) एक तो
खर खाई और वह भी कुत्तों की जूंठी । एक तो अशोभन कार्य किया, वह भी
ठीक ढंग से नहीं ।
खराउचेल पारबो।
तवा पर से गरम-गरम रोटी उचेलना। किसी काम में जल्दी मचाता।
खंरी कहइया डाढ़ी जार।
खरी बात कहने वाले को कोई पसंद नहीं करता ।
खरी मजूरी चोखो काम।
पूरी मजदूरी देनें से काम भी अच्छा होता हैं।
खरे खोटे की राम जानें।
किसी विषग्र की जिम्मेवारी न लेना
खरे साल-के सो गाहक्।..
अच्छी वस्तु को चाहने वालों की कमी नहीं रहती।
श्र
खाओ.' न] [ बन्देली कहावत कोश
खरो खेल फरकक््खाबादी।
स्पष्ट ओर खरे लेन-देन के संबंध में प्रयक््त ।
फरखाबाद के रुपये की चांदी किसी समय बहुत शुद्ध और खरी मानी
जाती थी। उसी से कहावत चली।
खसम करो सुख-सारे को । लग गये झकरा दुआरे कों॥
विवाह तो सुख भोगने के लिए किया, परन्तु उल्ठा दुःख माथे आया।
खाँड़ खने जो और को बाकों कप तयार।
दूसरों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न करने वाला स्वयं हानि उठाता है।
खाँड़ बिना सब रॉड रसोई।
शक्कर के बिता भोजन किसी काम का नहीं।
खाईं गकरियाँ' गाये गीत । जे चले चेतुआ' मौत॥
( १-हाथ की बनी छोटे आकार की मोटी रोटी, बाटी। २-चैत की फसल
काटने वाले मजदूर, जो फसल के दिनों में झुंड के झुंड बाहर निकलते हैं, जहाँ
तक काठने के लिए खड़ी फसल मिलती है आगे बढ़ते जाते हैँ और कटाई
का काम समाप्त हो जानें पर फिर घरों को लौट जाते हैं। ) स्वार्थी अथवा
निर्मोही व्यक्ति के लिए प्रयुक्त ।
दिन चार कौ प्रीत लगाकें धनी,
अब जे भले चेतुआ मीत चले ।
क् “कवि जुगलेश
साईं गकरियाँ गुर घी से । डुकरा लग गओ हमाय जी सें॥
निकम्मे और बूढ़े आदमी के लिए ।
खाओ उते तो अचेइयो इते।
जल्दी आने का आदेश देते अथवा अनुरोध करते हुए कहते हैं।
खाओ न पिओ ऐसेईं जिओ (अथवा खाओ न पिओ जग जग जिओ। )
जब कोई आदमी किसी से काम तो पूरा लेना चाहे परन्तु खिलाने-पिलाने
में कजूसी करे तब काम करने वांले की ओर से उपाल्म्भ।
ह - ७६ -
|
बन्देली कहावत कोश ] [खादी
खाक पर रइये, मार के भग जइये।
खाकर लेट जाय, मार के भाग जाय ।
खाक मृत, सोबे बायें । ताकें बेद कबहुँ ना जायें।॥
भोजन के बाद त्रंत पेशाब करने और बायीं करवट सोने से आदमी कभी
बीमार नहीं पड़ता।
खा खा के घर पोलो करो।
खा-खा कर घर खोखला कर दिया। घर के निकम्मे लड़के के लिए कहते हैं ।
खा खा के बोरो।
खा-खा कर घर डुबो दिया।
खा खा के मों चोकनों कर फिरत।
छेल-चिकतिया बने फिरते हूँ।
खा खा के संडा परे।
केवल खाना' काम कुछ न करना ।
खा जाने सो पचा जानें।
जो खाना जानता है, वह हजम करना भी जानता है।
खात के अपने, अचेउत के पराये।
खाने भर के लिए हमारे, और हाथ-मुँह धोने के लिए दूसरे के । अर्थात केवल
मतलब के दोस्त है। भोजन हमारे यहाँ किया और तुरन्त ही उठ कर चले
गये दूसरे के यहाँ ।
खाद परे तौ खेत, नईं तौ क्रा रेत।
खाद के बिना खेत कड़ा-रत का ढेर है।
खादी क्रा ना टर, करस लिखो टर जाय।
दे० करम लौट जाय. . . .
तन जी 3 ० के
खायें ] [ बुन्देली कहावत कोश
खाने के गिरम्म' गेरने।
(१-गिरमा, ढोर बाँधने की रस्सी, पगैया।) तुम्हें खाना है या रस्सी
का चक्कर काटना है? अर्थात तुम्हें अपने काम से मतलब या हमें व्यर्थ
परेशान करना है।
खाबे को पृत, लड़बे कों भतीजे।
मतलब के यार।
खाबे को मौआ, पेरवे कों अमौआ'।
( १-एक प्रकार का खाकी रंग जो आम के पत्तों से बनता है। आम के पत्तों
से बने हुए रंग में रँगा कपड़ा।) खाने को महुआ, पहिनने को अमौआ।
संतोषी का कथन ।
खायें पियें होओ तो बने रओ।
खा-पी कर आये हो तो बने रहो । जब किसी आदमी को खाने-पीने के' लिए
न पूछा जाय तब उसकी ओर से व्यंग्य में ।
खाय खेले तो पिराय का ?
खाता-खेलता रहे तो पीड़ा कहाँ से हो ? ऐसे बच्चों के लिए जो सदैव
बीमार रहते हों।
खाय दिल बोर, लड़े सिर फोर।
भोजन करने में और लड़ने में कसर नहीं रखनी चाहिए
खायें खसम कौ गायें यारन कौ।
. खाना किसी का और गीत किसी के गाना।
खायें खायें पार बड़ात॥.
खाते-खाते पहाड़ भी बिला जाता है। बैठे-बैठे खाने से चाहे जितना धन क्यों
न हो, एक-न-एक दिन खत्म हो जाता है। द
खायें गदयानें', भोंकन जायें चमरयाने।
( (-गदयाना>-धोबियों का मुहल्ला, जहाँ गधे रहते हैं।) खायें धोबियों
के मुहल्ले में और भोंकने जायें चमारों के मुहल्ले में | खायें किसी का, काम
किसी का करें।
० - ७८ -
'बुन्देली कहावत कोद | द [खीर में
खाली हातन आये, खाली हातन जाने।
संसार में न तो कोई कुछ लेकर आया और न.यहाँ से कोई कुछ लेकर जाता
है।
खालो पीलो सो अपनो।
खाया-पिया ही संसार में काम आता है और तो सब नष्ट हो जाता है।
खाबें-पीवें लरका बिटियाँ, सत्त को डकरियाँ।
माल-मसाले तो उड़ायें जवान लड़के और लड़कियाँ, और ब्रत-उपवास या
कठिन कार्य के लिए बूढ़े आदमी ! जब घर या समाज में किसी एक व्यक्ति
पर ही किसी काम की सारी जिम्मेवारी छोड़ दी जाय और दूसरे व्यक्ति
आराम से बेठे तमाशा देखें तब प्रयुक्त ।
खाबे को मलाई, बोलवे को म्याऊ।
खाने को माल-मसाले काम के वक्त आँख दिखाना।
खासी तोरी घर-घिनौच्ी' खासी तोरी चाल।
(१-पानी रखने का स्थान, जलूधरा ।) अनहोना काम करने पर व्यंग्य ॥
खिसयानी बाई पुँआर' लॉंचें।
( १-एक छोटा जंगली पौधा, जिसकी जड़ बड़ी मजबूत होती है।) रूज्जित
होकर क्रोधित होना, अथवा किसी का गुस्सा किसी पर उतारना ।
खिसियानी बिल्ली खंभा नौंचे--फंलन
खिसयानो भाँड दिवारी' गावे।
(१-दीपावली के अवसर पर गाये जाने वाले गीत, जो चिल्ला कर ऊंचे स्वर
में गाय जाते हैं।) जब कोई आदमी किसी न किसी प्रकार अपना क्रोध
शान्त करता चाहे, या गुस्से में ऊठ-पठाँग बात करे।
खीर में सोंज, महेरी में न््यारे।
स्वार्थी व्यक्ति ।
मित्र न ऐसोौ कृरे सपनें,
रहै खीर में सौंज महेरी में न्यारो | _
0७.
जमकन ३8 न क्
खुशी कौ | [ बुन्देली कहावत कोश
खीसा तर तो जो भावे सो कर।
पैसे से सब कुछ होता है ।
खुंस' सें मुंस नई मिलो तौ कौन काम कौ?
(१-क रोष, अप्रसन्नता ।) क्रोध में यदि दूसरा पति तलाश नहीं कर लिया तो
बाद में किस काम का ? अथवा क्रोध में पति को तलाश करके उस पर
अपना गुस्सा नहीं उतारा हो तो बात ही' क्या रही' ?
खुआवे, पियावे कौ नाव नई, मारवे कौ नाव।
खिलाने-पिलाने का तो नाम नहीं मारने का नाम। दूसरे के बालक को चाहे
जितना छाड़-प्यार से रखो, उसे तो कोई नहीं देखता, परन्तु थोड़ा भी पीट
देने से अपयश हाथ आता है।
खुदा मिले और नंगे सिर।
अपने ही मतलब की बात करना, दूसरे की न सुनना ।
खुरदरी भीत पे चितेउर करत।
खुरदरी दीवाल पर चित्रकारी करते हैँ । ऊठपटाँग काम करते हैं।
ख्रपी कों टेढ़ो बेंट मिलई जात।
खुरपी को टेढ़ा बेंट मिल ही जाता है। जैसे को तैसा मिल जाता है।
खरपो के ब्याव सें हेसिया के गीत।
बे अवसर का काम ।
खुली किवरियाँ डरीं।
खुली खिड़की पड़ी है। अर्थात् सदैव तुम्हारा स्वागत है। कभी भी आ
सकते हो ।
खुसामद से आमद है।
खुशामद से ही पैसा मिलता है।
खुसी कौ सौदा। .
कोई जबरदस्ती नहीं। लेना हो छो, न लेना हो, न लो ।
क्र
के अकबन्कर्क, ८८9 गा
बुन्देली कहावत कोश | [ खेती
खूंटा के बल बछरा नाचे।
किसी के बल-बूते पर ही आदमी किसी बड़े काम को करने की हिम्मत
करता है।
खूब खाईं ताती-ताती।
खूब गरम-गरम खायीं ! आदर-सत्कार न होने. पर व्यंग्य में कहते हैं।
खेत कबीरा लन लगे, सिला बीन लये सुर।
बची खुची तुलसी रई, जगत बटोरे धूर॥
फसल तो कबीर ने काट ली, दाने सूर ने बीन लिये। बचा-खुचा तुलसी ने
लिया। अन्य कवि तो अब केवल धूल बटोरते हैं।
खेत के बिजुका ।
(१-पशु-पक्षियों को डराने के लिए खेत में खड़ा किया गया घास-फूस का ऐसा
ढाँचा जो दूर से देखने पर आदमी सा जान पड़ता है।) ऐसा व्यक्ति जो
न स्वयं खाय और न खाने दे।
खेत न जोते राड़ी, ना जनी मरद की छॉड़ी।
न भेंस बिसाहे पाड़ी, ना बिपदा लेवे आड़ी॥
ऊसर का खेत नहीं जोतना चाहिए, दूसरे पुरुष की छोड़ी हुई स्त्री नहीं करनी
चाहिए, बिना ग.भिन हुई भेंस नहीं खरीदनी चाहिए, और जान-वूझ कर कोई
विपत्ति भी मोल नहीं लेनी चाहिए।
खेत बिगारे ख रतुआ सभा बिगारे दृत।
खर-पतवार से खेत बिगड़ता है, और चुगलखोर से सभा का आनंद।
खेत बिगारथो खरतुआ, सभा बिगारी कूर।
भक्ति बिगारी लारूची, ज्यों केसर में धूर। . --कघीर
खेत राखे बारी खों, बारी राखे खेत खो ।
एक यदि दूसरे का ध्यान रखे तो दूसरा" उसका भी ध्यान रखता है।
खेती आप सेती |
खेती को स्वयं न देखा जाय तो उससे कोई लाभ नहीं।
> ८१-
बु०-६ ध
खेती बारो ] | बन्देली कहावत कोश
खेती कर आलस कर, भीख माँग सुस्ताय।
सत्यानास की का चली, अठ्यानास को जाय ॥।
खेती के काम में आलस ठीक नहीं ।
खेती करें अधिया, बेल ना बधिया।
अधिया-बँटिया से खेती करना चाहते हैं, परन्तु गाँठ में न बेल है न बधिया ।
खेती करे ऊख कपास । घर कर व्यवहरिया पास ॥
खेती ऊख कपास की करना चाहिए और घर साहुकार के पास बनाना चाहिए
ताकि वह समय पर काम आ सके।
खेती कर न बंज जाय। विद्या के बल बंठों खाय॥
खेती कर बनज खाँ धाव। ऐसा डबा थाह न पावे॥
खेती करं साँस घर सोवे। काटे चोर मूंड़ धर रोबे॥
खेती तो थोरी करं मेहनत करे सिवाय।
राम चहें वासनुस कों टोटा कबहुँ न आय ॥
खेती धन को नास, जो धनी न होवे पास।
खेती धन की आस, धनी जो होवे पास।
स्पष्ट ।
खेती, पाती, बीनती ओ घोड़े को तंग।
अपने हात सँवारिये लाख लोग होय संग॥।
सब काम अपने हाथ का ही ठीक होता है।
पा० खेती, पाती, बीनती और खुजावन खाज।
घोड़ा आप पलानिये जो पिय चाहो राज॥
खेती बारो झक मारे। हँसिया बारो खो गाड़े॥
( १-खंती, जिसमें अनाज संग्रह करके रखा जाता है।) खेती से स्वयं
किसान को इतना लाभ नहीं होता जितना फसल काटने वाले मजदूरों
को, क्योंकि उन्हें तो परिश्रम के पैसे मिलते हैं, गाँठ से कुछ लगाना
नहीं पड़ता।
+- ८२ --
को
बुन्देली कहावत कोदा ] [गंगा की
खेती राज रजाये, खेती भीख मंगाये।
खेती सदा सुख देती।
खेते गयें किसनई ।
खेती का काम तो खेत पर जाने से ही हो सकता है।
खेते बारी खाय तो बिध से कहा बसाय।
स्वयं बाड़ ही यदि खेत को खाने लगे, अथात् रक्षक ही यदि भक्षक बन जाय
तो फिर उसके लिए क्या किया जाय ?
खेल में काये के लालाजी |
( १-बुन्देलखंड में लाला दामाद और देवर को कहते हैं।) खेल में छोटे-बड़े
सब बराबर हैं।
खों गा और कौरा माँगत।
कंजूस के लिए।
खो गओ हछाँगा नंदई खो भयो ।
खो गया लहगा नंद के लिए ही हुआ। किसी को कुछ न देकर व्यर्थ का
अहसान करता ।
खोटो पइसा और खोटो लूरका बखत पे काममें आऊत।
खोटा पैसा और खोटा लड़का समय पर काम आता है।
खोदंत पानी, घोक॑त विद्या ।
खोदने से ही पानी निकलता है, अभ्यास से ही विद्या आती है।
खौरियाऊ' कुतिया मखमल की झूल।॥
( १-खौरही, गंजी, खजेलू।) दे० कौरयाऊ कुतिया . . .
॥
गंगा की की खुदाई !
मु्खतापूर्ण प्रश्न ।
गंगा की गंगा सिवराजपुर की हाट। रे
किसी काम में एक साथ दो लाभ ।
> ८३े- ५
१ र्
गई | [ बन्देली कहावत कोश
गंगा की गेल में मदारन' के गीत ।
गंगा के रास्ते मदार के गीत। वे अवसर का काम।
(१-शाह मदार मृसलमानों के एक पहुँचे हुए फकीर हो गये हैं। उनका जन्म
सन् १०५० में फरुखाबाद में हुआ था। कहा जाता है वे ४०० वर्ष जीवित
रहे और सन् १४३३ में मरे। कानपुर जिले में मकनपुर में उनकी समाधि
है और प्रतिवर्ष वहाँ मेला लगता है। मुसलमान उन्हे जिन्दा शाह कहते हैं
और आज भी उन्हें जीवित मानते हैं।)
गंगा गये गंगादास जमना गयें जमनादास।
जब जैसा अवसर देखा तब तैसा बन जाना।
काशीस गेला काशीदास मथुरेस गेला मथुरादास--मराठी
गंगा गयें मुंडायें सिद्ध ।
सामने आ गये काम को पूरा कर डालने में ही समझदारी है।
गंगाजी की धारा, पाप काटवों कों आरा।
गंगा की महिमा का बखान।
गंगा नहाबो ।
झगड़े से छूट्री पाना । किसी काम की जिम्मेवारी से मुक्त होना।
गेंवार की अक्कल चेंथरी में।
गँवार पिटने से ही मानता है।
गेँवार को पापर।
अयोग्य को कोई अच्छी वस्तु देना।
गई परथन लेन, कुत्ता पींड' ले गओ।
( १-गुंदे हुए आटे की पिंडी।) एक काम करने गये तब तक दूसरा चौपट
हो गया । हु
गई गुजरी हुई।
जो होना था हो गया, उसकी चर्चा क्या ?
“- ८
बुन्देली कहावत कोश | [गदा
गओ धन आधोई पाओ।
गया धन आधा ही पाया।
गओ मरद जीने खाई खठाई, गई राड जीनें खाई मिठाई।
गगरी में नाज गँवारे राज।
घर में खाने को होने पर गवार सीधे बात नहीं करता।
गड़वाँत' के पथरा।
( १-गाड़ी के आने-जाने का कच्चा रास्ता।) ऐसा निरीह और असहाय
व्यक्ति जिसे चाहे जो रौंदता और कुचढछता चला जाय।
गढ़े कुमाँर बरते संसाराँ
एक के परिश्रम से सबको लाभ होता है।
गदन की गोने ', मनन की झोलें।
(१-गोन का ब० व०, बड़ी खेस जिसमें छगभग पाँच मन अनाज आता है।)
थोड़े. हिसाब-किताब में लंबी-चौड़ी भूल।
गदन की बातें, लडइयन की लातें।
गधों की बातें और गीदड़ों की लातें। मूखें की बेतुकी बात।
गदा के कान गदई खजाउत।
गधा के कान गधा ही खजाता है। ओछों की मित्रता ओछों से ही होती है।
गदन खाओ खेत पाप न पुतन्न।
मूर्लों को खिलाना-पिलाना व्यर्थ है।
गाढवाने खाल्लें पाप न पुण्य--मराठी
(गधों के खाने से पाप न पुण्य)
गदा गदइया से जीते नई, रंगठटा' के कान मरोरे।
(१-गधा का बच्चा।) गधा गधी से,तो जीतता नहीं बच्चे के कान ऐंठता
|
गदा धोये से घोड़ा नई होत। मर
. प्रयत्न॑ करने पर भी किसी की प्रकृति नहीं बदली जा सकती।
“- ८५ « क
द् श्ष्
अरब | [ बन्देली कहावत कोदा
गदा दाख खा गये।
मूर्खों के खिलाने पिलाने में पेसा खर्च हुआ |
गदा न सई रेंगठा सई।
गधा न सही रेंगटा सही व्यथे तके-वितक के समय प्रयुक्त ।
गनेस ज् खों चौक पुरो, मेंदरे जू आन बिराजे।
किसी के स्थान पर कोई बेठ गया।
गम्म बड़ी चीज है।
गम खाना बड़ी बात है।
गये हान न मरे पछतान।
ऐसी वस्तु के लिए प्रयुक्त जिसके खो जाने या चले जाने से कुछ बनता-बिगड़ता
ने हो। ऐसे व्यक्ति के लिए भी जिसके मरने पर कोई रोने वाला न हो।
गर (अ) ओ पथरा चूम के छोड़ दओ जात |
भारी पत्थर चूम कर छोड़ दिया जाता है। जो काम अपने सामथ्यं से बाहर
हो उसे चुपचाप छोड़ देना।
गरज परे पराई मताई से मताई कने परत।
गरज पड़ने पर दूसरे की मां से मां कहना पड़ता है।
गरज बुराई होत। द
गरज बुरी होती है।
गरजें सो बरसे का। |
गरजने वाले बादल बरसते नहीं। बकवादी आदमी से काम नहीं होता।
गरब कियो रतनाकर सागर नीर कर डारो खारो।
ग़रब कियो चकवा चकवी रन बिछोहा पारो॥
एक लोकगीत की पंक्तियां जो ठीक इसी रूप में गृजरात में भी प्रचलित हैं।
गरब कियो रतनाकर सागर नीर कर डालो खारो,
गरब कियो चकवा चकवी रैत बिछोहा डारो। गुजराती
न्न्न हैँ, छू साहा
छ
ब॒न्देली कहावत कोद ] | गाँव के
गरब कोऊ कौ नई रओ।
गवे किसी का नहीं रहा।
गरब तौ रावन कौ नई रओ।
गवे तो रावण का भी नहीं रहा।
गरया बल करारा खों।
निकम्मा बेल करार से पटकने के लिए ! किसी तरह पिंड तो छूटे !
गरीब की लगाई, सब की भोजाई।
गरीब को सब दबाते हैं।
गरीब की हाय, सरबस खाय।
गरीब की हाय सर्वेस्व नाश कर देती है।
गरीब को खाय बाको सत्यानाश जाय।
गरीब का खाने से सर्वनाश होता है।
गर परो (ढोल) बजाये सिद्ध ।
जो काम सिर पर आ गया उसे तो किसी प्रकार पूरा करना ही पढ़ता है।
गर्रानो सो अर्रनो।
बहुत घमंड करने वाला नष्ट होता है।
गाँज बरें, पुरन को लेखो।
घास के ढेर-के-ढेर तो जल जाये, और एक-एक पले का हिसाब रखा जाय।
फिजलखर्ची करके अनूचित मितव्ययिता से काम लेना।
अदफियाँ लटें और कोयलों पर छाप।
गाँठ की गंठयावन देखो ।
गाँठ का भी पैसा खो बैठना ।
गाँव के खदरा तौ गाँव कौई अंदरा जानत ।
गाँव के गड़ढे-तो गाँव का ही अंधा जानता है। किसी स्थान की त्रूटियाँ तो
वहाँ का असली निवासी ही जान सकता है।
>> ८७ -- &
।॥
गाजर की ] [ बुन्देली कहावत कोश
गाँव कौ जोगी जोगिया अनगाँव को सिद्ध ।
आदमी की अपने घर में क़द्र नहीं होती, अथवा अपरिचित स्थान में पहुँचने
पर गणहीन व्यक्ति भी विद्वान् मान लिया जाता है।
गाँव कौ समधी, पोंदन की ओट।
गाँव के समधी की कहाँ तक लाज शरम की जाय ? सामता होने पर
पीठ फेरी और निकल गये। निरंतर समीप रहने से मान-सम्माव कम
होता है।
गाँव न्योतें, गाँठ में कोंडी नाईं।
बिना पैसे के बड़प्पन दिखाना।
गाँव में आई डोरी, का माते, का कोरी । |
गाँव में लैेनडोरी आयी है, तब फिर क्या महते और क्या कोरी, सबको ही
रसद बेगार देनी पड़ेंगी।
ब्रिटिश शासन-काल के प्रारंभिक दिनों में लोगों को आतंकित करने के
लिए ग्रामीण क्षेत्रों में होकर प्रायः गोरों की पैदल पलटनें निकला करती
थीं। इनके आगे रसद आदि का प्रबंध करने के लिए एक छोटी पछटन चलती
थी। वह लेनडोरी या संक्षेप में डोरी कहलाती थी। लैनडोरी जहां पड़ाव
डालती थी वहाँ रसद और बेगार से कोई आदमी बचता नहीं था।
गा गा के भुवानी बुला लई।
जानबूझ कर विपत्ति मोल ले ली।
गाँव में जब किसी के सिर भवानी आने को होती हैं तो उसके पूर्व ढोल और
झाँझ के साथ माता के भजन गाये जाते हैं। कहावत में उसी से अभिप्राय
है कि गा-बजाकर कर देवी को बुला लिया। बैठे-ठाले विपत्ति मोल
ले ली।
गाजर को पुंगी, बजी तौ बजी, नईं तो टोर खाई।
ऐसे अवसर के लिए कहते हैं जब काम बन जाय तौ अच्छा, न बने तौ भी
अच्छा।
बे डीट
बन्देली फहावत कोश | [गाड़ीवारे की
गाजरन की तुला दई, बिसान की बाट हेरें।
गाजरों का तुलादान किया और प्रतीक्षा इस बात की कर रहे हैं कि स्वर्ग से
विमान लेने आयेगा। नाममात्र का खर्चे करके बड़े यश या लाभ की आशा
करना।
गाजर की सदा देंकें तुला,
उर बैँठों विमान की बाट कों हेरत।
--कवि जुशलेश
गाजे-बाजे से आये हैं।
बड़ी धूमधाम से आये हैं (व्यंग्य में) |
गाड़र गाडर में तोय जड़ाउर सिमाँठत, कई--मोरी ऊन न कतर लियो।
गाड़र-गाड़र, मैं तेरे लछिए जाड़े के कपड़े सिलवारऊंगा--गाड़र ने कहा--मेरी
ऊन मत काट लेना। स्वार्थी व्यक्ति के उपकार से सतर्क रहना चाहिए।
गाड़र आनी ऊन को लागी चरन कपास।
लाभ के लिए काम करने पर हानि हुई,
स्वामी होनो सहज है दुर्लभ होनों दास।
गाडर आनी ऊन को छागी चरन कपास ॥। “तुलसी
गाड़ी अटक गई।
कार्य में विष्न पड़ गया ।
गाड़ी देख लाड़ी' के पांव फूले।
( १-लड़ेती, लाड़ली लड़की।) सुविधा देखकर सब आराम चाहने लगते
हैं । द
गा देखी लागे थाक,
घोड़ा देखी थाके पाग ॥--गुजराती
गाड़ीवारे की नार जनम दुखिया। है
क्योंकि गाड़ी वाले को प्रायः बाहर ही रहना पड़ता है और उसकी स्त्री घर
में अकेली रहती है। |
- ८९ --
।
गिरी] [ बुन्देली कहावत कोश
गाड़े से पाड़ो जिन बाँधो।
गाड़ी से पड़ा मत बाँधो। बेतुका काम मत करो।
गायें गाये बियाव होत ।
ब्याह जैसा कठिन कार्य भी जब गाने-बजाने से हो जाता है तब दूसरे कार्य
भी आसानी से किये जा सकते हैं। हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
गाये गीत कौ का गादये। रंधे भात कौ का राँधियें॥
गाये गीत का पुनः क्या गाना ? रंघधे भात का फिर क्या राँधना ? अर्थात्
किसी विषय के पृष्ठपेषण से क्या छाभ।
गावो रोवो को नईं जानत ?
गाना रोना कौन नहीं जानता ?
गा (ह) क और मौत कौ का ठीक, कबे आ जाय !
मौत की तरह गाहक का भी ठीक नहीं कि कब आ जाय, इसलिए दृकानदार
को दूकान नहीं छोड़नी चाहिए।
गिरदोना की दौर मंगरे' लों।
( १-मगरी, छप्पर के ऊपर का वह हिस्सा जहाँ से वर्षा का पानी नीचे को
लुढ़कता है।) जहाँ तक जिसकी पहुँच होती है वह वहीं तक जा सकता
है। शक्ति से बाहर कोई काम नहीं कर सकता।
गिर परे की डंडोत। ।
इच्छ न रहते हुए भी संयोगवश किसी एक अच्छे काम को करने का अवसर
मिल जाना। अथवा हानि में से ही छाभ की कोई बात निकल आना।
उलटून पडली खरी म्हण ती सूर्यास दंडवत करी--मराठी
हि (आधे गिरे तो सूर्य को दंडवत किया )
गिरा घेर।
अ्रह घेरे हुए हैं। बुरे दिनों का चक्कर है।
गिरी अटठारी सढ़ा बिरोबर।
गिरी अटारी कोठे के बराबर। धनी आदमी बिगड़ेगा भी तो कहाँ तक
गरीब होगा ?
कक ९ 06. -००
शि
बुन्देली कहावत कोश | [गुर
गिरे में सब चार छातें मारत।
दुबेंल को सब सताते हैं ।
गिलोय और नीम चढ़ी।
बुराई में और भी बुराई।
गीलीं सूकीं सब जरतीं।
गीली-सूखी सब जलती हैं। चीज अच्छी हो या बुरी सब काम आ जाती है।
गन न हिरानो, गुन गाहक हिरानो है।
संसार में गुण वालों की कमी नहीं, कमी है गृणग्राहकों की ।
ग्रई खो माँछी लगतीं।
गृड़ को ही मक्खियाँ लगती हैं।
गुर के बाप कुलआ।
गृड़ के बाप कोल्हू। अर्थात् सब उपद्रवों की जड़ ।
गुर खाने ओर पाग राखने।
अच्छा खा-पीकर भी अपनी इज्जत रखनी है।
ग्र खाने उर पाग राखने
जे हैं काम सुधर के ।--ईसुरी
गुर खायें पुअन कौ नेम करें।
दिखावटी परहेज करना ।
ग्र ग्र बिद्या सिर सिर अक््कल।
सबकी अपनी अलग-अलग समझ होती है।
ग्र च्र॑ंउत की हेड़िया फूट गई।
गृड़ पकाने की हाँड़ी फूट गयी। बना-बनाया काम चौपट हो गया। लाभ का
मुख्य साधन मिट गया।
गुर डिंगरियन घी उंगरियन।
गुड़ तो एक-एक डली करके ग्राहकों द्वारा उठाये जाने से नष्ठ होता है और
घी उँगलियों में लेने से ।
9
बन 4 कमर
श्र
गुरू से | [ बुन्देली कहावत कोश
हँसिया 7
ग्र भरो हँसिया।
ऐसी वस्तु जिसे न तो छोड़ते ही बने और न ग्रहण करते ही ।
ग्र में होयें सवा, तऊ न कर रवा। नोन में होयें पौन, तऊ न छाँड़े नौन॥
गुड़ में यदि सवाये भी होते हों तौ भी उसे खरीद कर न रखे, परन्तु नमक
में रुपये के बारह आने भी होते हों तौ भी उसका संग्रह करे, इसलिए कि
गृड़ को चींटे खा जाते हैं, ग्राहक भी एक-एक डली करके उठा लेते हैं। जबकि
नमक में नष्ट होने की ऐसी कोई संभावना नहीं रहती।
गुरु बिन सिले न ज्ञान, भाग बिन मिले न संपत ।
स्पष्ट ।
गुरु बित ज्ञान भेद बिन चोरी। बहुत नहीं तो थोरी थोरी॥
गुरु के बिना ज्ञान और भेद के बिना चोरी नहीं होती।
गुरू कीज जान के, पानो पीज छान के ।
गुरू देखभाल कर और पानी छान कर पीना चाहिए।
गुरू करवे जेने
जल खावे छेने--बंगला
गुरू की विद्या गुरुई खों फली।
गुरू ने जो कुछ किया उसका परिणाम उनको ही भोगना पड़ा।
गुरूची अक्कल गुरूलाच फछली ।--मराठी
गुरू गर्इ रये, चेला सकक्कर हो गये।
गुरू से चेला अधिक बढ़ गया।
गुरू न गुरु भया, सब से बड़ो रुपेया।
संसार में रुपया सबसे बड़ी वस्तु है.।
गुरू से चेला सवाओ।
गुरू से चेला सवाया।
गुरू से कपट मित्र से चोरी। के हो निर्धन के हो कोढ़ी॥
स्पष्ट।
हानि
« ९२ ««
हर
बय&
हि है |
ब॒न्देली कहावत कोश ] [
गूजर तके ऊजर।
गूजर ऊज़ड़ स्थान में रहना पसंद करता है, इसलिए कि उसके ढोर बिना
रोक-टोक चर सकें ।
गेंबड़ आई बरात, बौंडार कातबे बेठे ।
( १-कन्या के विवाह के अवसर पर दहेज में दिये जाने वाले कपड़े।)
ऐन मौके पर कोई काम करने बेठना।
गवड़े खेती, गाँव सगाई, जिनकर, जितकर जिनकर भाई।
यह कहावत बुन्देलखंड में इतनी ही सुनने को मिलती है। परन्तु पूरी इस
प्रकार है:--गेंवड़ें खेती गाँव सगाई, तिलगुर भोजन तुरुक मिताई, पैलें
सुख पाछे दुखदाई, जिनकर जिनकर जिनकर भाई।
गेंबड़ें खेती हम करो कर धोबिन सों हेत।
अपनो करो कौन से कइये चरो गदन ने खेत ॥
किसी किसान का एक धोबिन से प्रेम हो गया। उसके कहने से उसने गाँव
के बाहर गेंवड़े में ही खेती की। परिणाम यह हुआ कि सब फसल उस धोबिन
के गधे ही चर गये।
गेंबड़े पीपर, मेंडे महुआ, बन में तिली, रॉड़ में रहुआ ।
(१-ऐसा नौकर जो केवल रोटियों पर रखा गया हो) । गाँव के बाहर, जहाँ
लोग शौचादि के लिए जाते हैं पीपछ, खेत की मेंड़ पर महुआ, कपास में
तिली, और राँड़ के घर में रहुए का होना ठीक नहीं ।
गे गे पृथिवी भारी है।
पग पग पर पृथिवी भारी है। अर्थात् एक से एक बढ़ कर वस्तुएं संसार में
भरी पड़ी हैं। रत्नगर्भा वसुंघरा।
इसकी एक कथा है कि एक पहलवान को कमनेती का बड़ा शौक़ था।
वह नित्य प्रातःकाल उठ कर अपनी पढ्नी की नथ में से तीर चलाया करता
और कहा करता कि कहो संसार में मुझसे बढ़कर कोई धवनुधधर नहीं। स्त्री
बेचारी डर के मारे इन शब्दों को दुहरा दिया करती। परन्तु एक दिन खीझ कर
बोली--तुम्हीं अकेले धनुर्धर नहीं। गे गे पृथिवी भारी है। स्त्री की. यह
| + है हे न ५
है है
4]
गोंऊ | [ बन्देली कहावत कोश
बात पहलवान को बहुत बुरी छगी और वह उसी समय घर से बाहर निकल
पड़ा। चलते-चलते रास्ते में एक ऐसे पहलवान से उसकी भेंट हुई जो एक
साँस में दस हजार डंड और बैठक लगाता और कलेवा में दस मन सत्तू घोल कर
पी जाता था। फिर एक ऐसा तीरंदाज मिला जो आकाश में इन्द्र के अखाड़े
तक अपना तीर फेंक सकता था। फिर एक ऐसे व्यक्ति से भेंट हुई जो एक
लाख योजन की वस्तु देख सकता था, और सब पशु-पक्षियों की बोली समझ
लेता था। इन सबको देख कर पहलवान को मन ही मन इस बात का चेत
हुआ कि उसकी स्त्री ने वास्तव में ठीक कहा था कि ग॑ गे पृथिवी भारी है।
उसका यह दंभ चूर हो गया कि वही संसार में सबसे बड़ा गूणी है और वह
अपने घर लौट आया।
गेल कौनऊं जायें, बेल घरई के आयें।
किसी आदमी के बेल भटक गये। उसके साथी ने कहा--देखो, तुम्हारे बैल
कहाँ जा रहे हैं ? इस पर उसने उत्तर दिया--चिन्ता की बात नहीं, बैल घर
के ही हैं। किसी रास्ते जायें। भूलेंगे नहीं। ढोरों की स्मरण-शक्ति के
संबंध में कहावत।
गेल में ठाँडे।
अर्थात संसार का सब झगड़ा छोड़ चुके हैं। जाने को तैयार खड़े हैं। हमें
किसी बात से क्या मतलब ?
गेल में पाई फकीरनी , गुर बाँटो न सिन्नी।
(१-वह रंगीन डोरा जो मुहरंम के दिनों में ताजिए पर गुड़, शबंत या मिठाई
चढ़ाने के बाद प्रसाद के रूप में गले में पहिनने को मिलता है। यह छोटे
बच्चों को पहिनाते हैं।) रास्ते चलछते फकीरी मिल गयी, न गृड़ बाँटना
पड़ा और न मिठाई। अर्थात मुफ्त में काम हो गया।
गोंऊ खेत में, लरका पेट में, पासनी की दिन धरई दो।
गेहूं खेत में खड़े हैं, अभी कटकर नहीं आये, लड़का पेट में है, फिर भी अन्न-
प्राशन का दिन निशरुचत ही कर दो। किसी एक अनिश्चित कार्य की
योजना पहिले से बनाना।
है - ९४ --
बुन्देली कहावत कोश ] [ गोली की
अजातपुत्र नामोत्की्तेत न्याय: ।--संस्कृत
घऊ खेत में, बेटा पेट में,
ने लगन पांचमनां छीघां ।--गजराती
गोंऊअन के संग घन पिस गओ।
गेहुओं के साथ घुन पिस गया।
गोकुल गाँव कौ पेंड्रो' स्यारो।
(१-रास्ता।) अपनी अलग निराली बात चलाने पर कहते हैं।
क् सुंदर! कोउ न जान सके यह गोकुल गाँव कौ पेंड़रोइ न्यारो।
गोदी लरका गाँव गुहार ।
दे० कखरी लरका , . . .
गोपी ते चिकनियाँ' रामदास।
( १-चिकने, कंजूस )। सब एक-से-एक बढ़ कर हैं।
गोबर के गनेस जो पटा प॑ बेठत बई खो नईं फोर पाउत।
गोबर-गनेस जिस पढे पर बैठते हैं, उसको ही तोड़ने की सामर्थ्य॑ नहीं रखते ।
गोबत गनेस।
बुद्ध आदमी ।
गोबर गिरत तौ कछ लेई के उठत।
गोबर गिरता है तो कुछ लेकर ही उठता है। उसमें जमीन की मिट्टी लग जाती
है। जब कोई आदमी विवश होकर किसी के सामने झुकता है, अथवा किसी
को कोई सुविधा प्रदान करता है, तो उससे भी वह अपना कोई न कोई मतलब
निकाल ही लेता है।
गोबर सेला नीस की खली। यातें खेती दूनी फली ॥
गोबर, मेछठा और नीम की खली की जाद देने से खेती को विशेष लाभ
होता है।
गोली को घाव भर जात, पे बोली. कौ नईं भरत। ह
गोली का घाव भर जाता है। पर बोली का नहीं भरता।
- ९५ - ०
धरई की | [ बुन्देली कहावत कोश
गोली से बचे, पे बोली से न बचे ।
गोली से बचना आसान है, परंतु बात की चोट से नहीं बचा जा सकता।
गौर रूठं तौ अपनी सुहाग लें, का कोऊ को भाग लें (एँ) ।
गौर रूठेंगी तो अपना सुहाग लेंगी, क्या किसी का भाग्य लेंगी ?
जब कोई व्यक्ति घर के किसी आदमी से अनुचित रूप से अप्रसन्न होता है
अथवा अपने किसी आश्रित या नौकर से नाराज होकर उसे निकालने की
धमकी देता है तब अपनी स्वाधीनता प्रकट करने के लिए वह आदमी अपने
आगे कहता है कि नाराज़ होते हैं बला से गौर रूठेंगी तो, . . . . . . . ।
घ
घेंघरिया कौ चीलरा । कि
(१-चीलर, एक प्रकार का छोटा जुआँ, जो प्रायः गंदे कपड़ों में पेदा हों जाता
है। कपड़ों में इसे खोज निकालना बड़ा कठिन होता है।) घाँघरे का चीलर
अर्थात् मुसीबत की चीज़ अथवा मुंह लगा ऐसा आदमी जिससे पिड छूड़ाना
कठिन हो।
घटती बढ़ती छाया है।
संसार में सुख-दुख लगा है।
घर आय नाग न पूजें, बाँमी पूजन जायें।
अवसर से लाभ न उठाना।
घरइया को घर बाँद आऊत ।
घर-गृहस्थी वाले आदमी को घर का सब प्रकार का प्रबंध करना आता है।
घरई की अछरू माता, घरई के पंडा। द
जब कोई व्यक्ति आपस वालों से अनुचित लाभ उठाये, अथवा जहाँ मालिक
और नौकर एक दूसरे की सलाद से कोई चीज़ दूसरों को दे रहे हों वहाँ
प्रयुक्त ।
अछरू ग्राता का मंदिर वत्तेमान मध्यभारत के टीकमगढ़ जिले के
पृथ्वीपुर नामक स्थान में है। यहाँ प्रतिवर्ष बड़ा मेला लगता है। यह स्थान
-. .॥. -“ ९६ -
कक का
बुन्देली कहावत कोश | [घर की
अपने एक जलाशय के लिए प्रसिद्ध है जिसके संबंध में कहा जाता है कि
पंडा से प्रसाद में जो वस्तु माँगो वही उसमें तैर कर ऊपर आ जाती है । इसी से
कहावत की सार्थकता है। मंदिर अछरू माता का इसलिए कहलाता है कि
उसे अछरू नाम के किसी अहीर ने बनवाया था।
घरई की कुरइया सें आँख फूठत।
(१-छप्पर के छावन में लगने वाली रूकड़ी | यह प्रायः ओछती से बाहर
निकली रहती है और ओलती यदि नीची हो तो उसके आँख में छूगने का डर
रहता है।) घर के आदमी से ही अधिक हानि पहुँचती है।
घरई के नंद बाबा, घरई की जसोदा।
दे० घरई की अछरू माता, . . ,
घरई के सुरबीर हो।
घर में ही बहादुरी दिखाने वाले के लिए कहते हैं।
घर कये मोय खोल देख । ब्याव कये मोय कर देख॥।
घर की मरम्मत और ब्याह में सदेव अंदाज से अधिक ख्च होता है।
घर किनईं कों दबा पाओ।
घरवालों को ही दबा पाया। अर्थात घर के लोगों पर ही वश चलता है।
बाहर कुछ नहीं कर पाते ।
घर की आधी भलो।
घर की थोड़ी वस्तु भी बहुत।
घर की खाँड़ किरकिरी लागे, बाहर कौ गुर सीठो।
घर की वस्तु की क़द्र नहीं होती ।
घर की मुर्गी दाल बराबर।!
घर की खेती। . .. हे
अनायास पैदा होने वाली वस्तु ।
“ ९७ ««
घर के | [ बन्देली कहावत कोश
घर की घूस।
घर में घुसी रहकर चुपचाप माल-मसाले खाने और घर को बर्बाद
करने वाली ।
घूस चहे की जाति का जानवर होता है जो घर में बड़े-बड़े बिल बना कर
दीवालों को खोखली कर देता है।
घर को दाही बन गई, बन में लागी आग।
बन बिचारो का कर, करमें लागी आग ॥
भाग्य ही प्रतिकूल हो तब कोई क्या करे ?
घर की मूछेई' मूंछे हे।
घर में ऐंठ और अकड़ के सिवा और कुछ नहीं ।
घर के खपरा बिक जेयें।
बर्बाद हो जाओगे।
घर के घर और बायरे।
घर के घर और बाहर। जब कोई आदमी घर में जैसा काम करे वैसा बाहर
भी करता चाहे तब प्रयुक्त ।
घर के घरईं न समायें ढटिंगर पाउने आये।
जब किसी के घर में इतने आदमी हों कि उनका निर्वाह होना कठिन हो, और
ऊपर से बाहर के लोग आ जायें तब कहते हैं ।
घर के जान बराते गये, आलीपुरा' कठवा' में दये।
( १-देशी राज्यों के विलीनीकरण के पूर्व की मध्यभारत की एक छोटी रियासत ।
२-लकड़ी का मोटा कुंदा या बेड़ी जिसमें अपराधी को दंड देने के छिए उसका
पैर फंसा दिया जाता था।) अधिकांश देशी रियासतों में उन दिनों जो
अंधेरगर्दी और स्वेच्छाचारिता “विद्यमान थी कहावत उसका स्मारक है।
कोई सज्जन घर वालों के जान तो बरात में गये । परंतु आलीपुरा में वे बिना
किसी अपराध के कठवा में फंसा दिये गये। कहने की आवश्यकता नहीं कि
कहावत में, आलीपुरा नाम केवल एक प्रतीक के रूप में व्यवहृत्र हुआ है।
कि की
रो
री
ब॒न्देली कहावत कोद | [घर कौ
घर के पीरन खों गुर कौ मलीदा।
घर के आदमियों की अपेक्षा बाहर वालों का अधिक आदर-सत्कार करना ।
घर को उसारो, छलरके सारो।
घर में आँगन चाहिए और लड़के के साला।
घर कौ कुआ है, तो का कोई डूब के मरत !
किसी वस्तु का केवल इसलिए दुरुपयोग नहीं किया जाता कि वह घर की है।
घर कौ घर स्वाहा कर दओ।
सब घर बर्बाद कर दिया।
घर कौ ग्र घरइ में फोर लो।
घर की बात बाहर मत जाने दो। चुपचाप काम कर लो।
घर कौ चून चुखरियाँ खायें, पर/ये खाँ डुबकेयाँ लेये!
जब घर में सब प्रकार का सुभीता होते हुए भी कोई आदमी इंधर-उधर
खाने-पीने की फिक्र करे तब कहते हैं ।
घर कौ परसदया, अँदियारी रात।
एक तो अँधेरी रात, दूसरे परोसने वाला अपना, जितना चाहो खाओ और
उठा ले जाओ, कोई देखने वाला नहीं । अथवा घर का परसने वाला और
अँधेरी रात, इसलिए पंगत में घरवालों को मनमाना परसता है, दूसरों को छोड़
देता है।
घर कौ बालक चोरी कर, कओ राम घर कंसे चले ?
जब घर के लोग ही हानि पहुंचायें तो फिर घर की रक्षा कैसे हो सकती है।
घर कौ भूत सात पेरी के नाव जानत।
यहाँ घर के भेदी से मतलब है। जिस प्रकार घर का भूत सात पीढ़ी तक के
लोगों के नाम जानता है, उसी प्रकार मेदिएं को भी घर की सब भीतरी
बातों का पता रहता है। इसलिए उससे सावधान रहना चाहिए।
घर कौ भेदी जो मिले, जरा मूंर से लेय।
घर का भेदी जड़-मूल से नाश करता है।
खा, ९ पट अन्ाकी ञैँ
घर घर | [ बुन्देली' कहावत कोश
घर कौ भेदी लंका जार।
घर की फूट से स्वनाश होता है ।
घर खाबे आरो, के सारो।
आले के होने से तो दीवाल कमजोर होती है, और साछे के होने से घर
बर्बाद होता है क्योंकि अपनी बहिन के कारण, वह मनमाना खाता-पीता है।
घर सोर तो बाहर खीर।
बड़े आदमी का सब जगह आदर-सत्कार होता है, अथवा घर जंसा सम्मान
बाहर भी चाहते हैं जो संभव नहीं ।
घर खोदें और आसपास, तिनको नाव रामदास।
जो अपना और दूसरों का भी काम चौपट कर दे, ऐसे आदमी के लिए प्रयुक्त ।
घर गुन बहू, सार गुन्त बच्छा।
(!-छोर बाँधने का घर, पशुशाला |) बहू जैसे घर की होती है बसे ही
गुण उसमें आते हैं, उसी तरह बछड़ा भी जैसी सार में बँधता है वैसे ही अच्छे
या ब्रे लक्षण उसमें प्रकट होते हैं। ।
घर घर के निपट लो, बराती भौत हें।
घर-घर के जीम लो, बराती बहुत हैं। पहिले अपना काम बनाओ, फिर
दूसरों की चिन्ता करता।
घर घर कथय, के नाउन स।
( १-नाइन, नाई की स्त्री ।) यदि बात-घर-घर पहुँचानी है तो नाइन से
कहना ठीक होगा । इधर की उधर भिड़ाने वाले पर व्यंग ।
नाइन छोटे-बड़े सभी घरों में बेरोक-टोक जाती है और वह प्राय: एक
घर को बात दूसरे घर जाकर कह दिया करती है। कहावत में उसी का
संकेत है। «
घर घर मठया चूले हैं।
सब घरों का एक सा हाल है, अथवा सब घरों में कुछ-त-कुछ भेद की बात
रहती है । ।
शा ण्न्मो ्् 00 -««
बन्देली कहावत कोश |] द ..._ [घर भरबो
घर, घोड़ा, गाड़ी, इन तीनन के दाम खड़ा खड़ी।
घर, घोड़ा, गाड़ी, इन तीनों के दाम तुरन्त ले लेना चाहिए।
घर फूंक तमासो देखबो।
नामवरी के पीछे घर उजाड़ देना ।
घर बरो सो बरो, चोंखरन की ऐंड तो खुल गई।
घर जला तो जला, चोंखरों की अकड़ तो खुल गयी । घर के जलने से वे भी जलू
गये अथवा भाग गये । जब कोई थोड़े से छाभ के लिए अपनी बड़ी हानि कर
बेठे तब उस पर व्यंग ।
घरबारो मेंड़ में, मेंड-कटा खेत में।
खेत का मालिक तो मेंड पर खड़े होकर खेत की रक्षा कर रहा है, परन्तु मेंड
पर की घास को चोरी से काट कर ले जाने वाला खेत में घुसा है और अधिक
स्वच्छंदता पूर्वक चोरी कर रहा है ।
घर बेंच तीरथ करे।
एक लाभ के लिए दूसरी हानि की।
घर बेठें गंगा आईं।
अनायास काये सफल हुआ।
घर बढ मृतियन चौक पुरत।
घर बैठे ही मोतियों के चौक पूरते हैं। काम-धंधा न करके बैठे-बंठे मंसूबे
बाँघते हैं।
घर बेठें सब कोऊ राजे डाॉड्त।
दे० अपने आँगे सब कोऊ. . . .
घर भर के ऊंठ छोर लये। ५
घर का घर नष्ट कर दिया, अथवा घर भर को बदनाम कर दिया।
घर भरबो। #
मुफ्त का पैसा लाकर घर में रखना ।
+ १०१-- *
घवा में | [ बन्देली कहावत कोदा
घर में आई लगाई, भूले बाप सताई।
स्पष्ट ।
घर में खाबे खों नई, ढाबे पे धुंआ करें।
घर में तो खाने को नहीं, छत पर धुआँ कर रहे हैं जिसमें लोग समझें कि कुछ
पक रहा है।
घर में नइयाँ चून चनन कौ, ठाकुर बरी करावें।
मो दुखनी को हलाँगा नइयाँ कुत्तन झूल डरावें॥
घर में खाने को न होने पर भी ठाट-बाद का दिखावा करना ।
घरांत नाहीं दाणा व मला श्रीमंत म्हणा ।---मराठी
घरे नेई भात दोरे चँदोया ।--बंगाली
घसया घोड़ा, रुटया चाकर।
केवल घास खाकर रहने वाला घोड़ा, और रोटियों पर रखा गया नौकर,
ये दोनों ही निकम्मे होते हैं।
घरी में घर जरे, नौ घरीं भद्रा ।
( १-बाधा, फलित ज्योतिष के अनुसार एक योग जिसमें कोई काम करना
ठोक नहीं माना जाता । ) ऐन मौके पर जब कोई टालमटोल करे, अथवा कोई
अप्रत्याशित बाधा आ जाय तब कहते हें ।
घरी भरे कौ ब्रआसन, सब दिन को आराम ।
किसी को किसी वस्तु के लिए नाहीं करने से केवल थोड़ी देर की बुराई अवश्य
पैदा होती है, परन्तु उससे सदैव के लिए झगड़े से छुट्टी मिल जाती है. क्योंकि
वह फिर दुबारा माँगने नहीं आयेगा ।
घरे आई बरात, बऊ पौपरें। 5
घर में तो बरात आयी है और बहू पीपल तले गयी है।
घवा' में घवा डार- दओ।
(१-घाई, दो उंगलियों के बीच का स्थान 4) पंज़े में पंजा डाल दिया।
द > १०२ -
डे
बन्देली कहावत कोश ] [घी
घाट घाट कौ पानी पिये हैं।
बड़े अनुभवी हैं। दुनिया देखे हुए है ।
बारा बंदर थे पाणी प्याला--मराठी
(बारह बंदरगाह का पानी पिये हुए हैं )।
घायल की गत घायल जानें।
दूखी का दूख दुखी आदमी ही समझ सकता है।
घास-फूस कौ तापबो।
क्षणस्थायी वस्तु का उपयोग ।
घिऊ न सिऊ, पक्की बने।
घर में तो घी नहीं और पकवान खाने का मन !
घिना लड़इया छींट कौ बागो।
घिनौना गीदड़ और छींठट का जामा।
घियाने पुृतन कुलबंती बती फिरतों।
किसी वस्तु का अनुचित गवें करना ।
घिसे पिसे (अथवा घिसे मेंजे) हें।
बड़े होशियार हैं ।
घिसे बिना चिलक नईं आऊत।
आदमी को दबाये बिना काम नहीं निकलता । घिसने का अर्थ खुशामद करना
भी हो सकता है। खुशामद किये बिता काम नहीं बनता ।
घी किते गओ ? कई खिचरो में।
जो वस्तु जहाँ ख्चे होने को थी वहाँ खर्च हो गयी ।
घी के कुप्पा सें लगे।
ऐसे स्थान पर पहुँच जाना जहाँ खूब खाने को मिले।
घी खिचरी हो रये। प
दोनों का एक गुट हो रहा है।
बन ५ ० ३ तन
घोड़ा की | [ बुन्देली कहावत कोश
घी गर भीठो के बऊ।
घी गुड़ मीठा या बहू ?
पैसे से ही सब काम बनता है। आदमी का कोई महत्व नहीं होता।
घी देतन नरंयात। अथवा घी देतनं बामत नरंयात।
भलाई करते बुराई मानते हैं। जाड़े के दिनों में घोड़े को स्वस्थ रखने के लिए.
घी दिया जाता है, जिसे वह आसानी से नहीं खाता।
घी नई तौ कुप्पई बजाओ।
निराश के प्रति व्यंग ।
घी सेंवारे रसोई नाव बऊ कौ।
दे० घी-गुर मीठो. . . क्
घी सुधारे सालना बड़ी बहू कौ नाम |
घुल्ला जा पार के बा पार।
घोड़ा इस पार या उस पार। परिणाम कुछ भी हो, काम करना ही है।
घुसया हाकिस मुसया चाकर।
रिश्वतखोर हाकिम और चोर नौकर ये दोनों अच्छे नहीं ।
घूघट लॉ की लाज।
एक बार छाज-शरम टूटी सो टूटी ।
घूंटे नउत तब पेटई कों।
घुटनें पेट ही को नवते हैं। आत्मीय जनों का सब पक्ष छेते हैं ।
घ्रन घूरन फिर हो।
मारे-मारे फिरोगे। '
घोड़न कौ चारो गदन को नईं डारौ जात।
अयोग्य को अच्छी वस्तु नहीं दी जाती।
घोड़ा को पछारी और हाकिम की अँगारी। (इनसे बचें चइये)
घोड़े के पीछे खड़े होने से दुलत्ती लगने का डर रहता है और हांकिम के आगे
चलता धृष्टता है। इनसे बच कर चलो ।
नि
“- २१०४ «-
का
बन्देली कहावत कोश | ' [ चंग पे
घोड़ा की लात घोड़ई सऊत।
घोड़े की लात घोड़ा ही सहन कर सकता है। बड़ों की ठोकर बड़े ही सहन
करते हैं।
घोड़ा घास से यारी कर तो खाय का ?
प्रायः रिश्वतवोरों के लिए व्यंग में कहते हैं ।
घोड़ा चले चार घड़ीं, ब्याज चले आठ घड़ीं।
मूल पर ब्याज बराबर बढ़ता रहता है।
घोड़ा जोड़ा मिले भाग सों।
सवारी के लिए घोड़ा और अच्छी स्त्री भाग्य से ही मिलती है ।
घोड़ा दूर, कै मैदान ?
न घोड़ा दूर, न मेदान। सब वस्तु तुम्हारे सामने है, परीक्षा करके देख लो ।
घोड़े घी, मंदें तमाख्। | |
घोड़े को घी चाहिए और मर्दे को तमाखू। .
धोसिया' घोकत रओ, कसरिया ब्या ले गओ ।
(१-दूध-दही का व्यापार करने वाली एक जाति। २-अहीरों की एक
जाति।) घोसी तो सोच-विचार में ही पड़ा रहा और कमरिया उस स्त्री को
ब्याह कर ले गया जिसके साथ घोसी विवाह करना चाहता था। काम न
करके केवल' मन के लड्डू खाना।
घोर, मोर, सोर, पानी पियें बड़े भोर।
( १-शवर जाति के लोग, सहरिया।) घोड़ा, मोर और सहरिया ये तीनों
प्रातः:काल उठ कर पानी पीने के अम्यस्त होते हैं।
च
चंग पे चढ़ावो। हि
इधर-उधर की बात करके अपने अनुकूल बनाना । मिजाज़ बढ़ा देना ।
्
न्न््व १० प् बन
चढ़े | ...[ बन्देली कहावत कोश
घंडाल चोकड़ी।
दृष्टों की जमात ।
चट् के ब्याव, भेंड न््योतें आई।
चटोर स्त्री के यहाँ ब्याह में चोटी न््योते आयी। जैसे के यहाँ तैसे ही आते हैं।
अथवा जैसे को तैसे मिलते हैं।
चट्ट रॉड़ पट्ट ऐबाती।
किसी बात के लिए उतावली मचाने पर कहते हैं ।
चढ़ जा बच्चा सुली पे, भली करंगे राम।
किसी को बढ़ावा देकर झगड़े में फँसा देना और स्वयं अछग रहना।
बढ़ाये की तान।
चढ़ावे के समय की नाइन । विवाह के दिन जब वरपक्ष की ओर से लड़की
के लिए चढ़ावा चढ़ने आता है तब नाइन विद्येष रूप से सजी-बजी तो
नजर आती ही है, पर उसके साथ ही वह बहुत व्यस्त भी रहती है। विवाह
संबंधी कार्यों के लिए उसे बार-बार इधर से उधर जाना पड़ता है। अतः
कहावत बनी-ठनी स्त्री, अथवा ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त जो किसी का
संदेश-वाहक बनकर आये।
ऊधो तुर्मों दिन केते भये,
सु इते करो बोध, उते परौ पाँयन।
उनकी हमसों, हमरी उनसों,
जे बातें कहो कहा जी लरूचाइन।
द्वारका वे तो अमीर भये,
'जुगलेश” भई कुबजा ठकुराइन।
हम तौ मन मार कें बैंठें घरे,
बनकें तुम आये चढ़ाये की नाइन ।।
चड़े घोड़ें आबो। -
घोड़े पर चढ़े आना । उतावली मचाना।
टः न २ ०६ ल्नन्य
हर
बुन्देली कहाबत कोश ] [ चनत के
चढ़ो ददा जू, चढ़ो कका जू, कोसक घुरिया रीती गई।
' ददाजू आप चढ़ें, ककाजू आप चढ़ें, इसी में एक कोस तक घोड़ी खाली ही गयी ।
झूठे शिष्टाचार में समय नष्ट करना।
चतुर को चौगुनी, म्रस कों सौगुती।
दूसरे की संपत्ति चतुर को चौगुनी और मूरख को सौगुनी प्रतीत होती है ।
चतुर चार जाँगाँ चकत।
चतुर चार जगह चूकते हैं। बहुत चतुराई करने वाला भी कभी-कभी धोखा
खा जाता है।
चतुर चार जाँगाँ सें ठगाए जात ।
दे० ऊपर
अति चालाकेर गलाय दड़ि, अति बोकाय पाये बेडी--बंगलूा
(बहुत चालाक के गले में फंदा और बहुत मूख् के पैरों में बेड़ी )
चतुर होय सो चेते।
चतुर थोड़ा इशारा पाते ही सावधान हो जाता है।
चतुराई चूल्हें परी।
कोई चतुराई काम नहीं आयी।
चनन के धोके करऊं सिच न चबा जइयो।
चनों के धोखे कहीं मिर्चे मत खा' जाना। अर्थात् काम उतना आसान नहीं
जितना समझ रखा है। समझ-बूझ कर हाथ डालना ।
रारि परी नागर में एक ब्रज नागरि सों,
रोकौ ना डगर कानन््ह दान दधि पैयो ना ।
लूटो रस गोरस काहू गूजरी गंवारन को,
वाही के धोखे ब्र॒जराज भूलि जेयो ना।
कहें जुगलेश” जा कहॉँगी प्रान प्रीतम सौं,
बोलियो सम्हार पर नारि कर गैयो ना ।
कहोगे एक तौ सुनौगें अनेक द्याम,*
चनन के धोखे कहूँ मिरचें चबेयो ना।।
ब्् ५ हि छ जन
चलती कौ ] [ बन्देली कहावत कोश'
चना और चुगल मों लगे अच्छे नईं होत।
चना खाने में अच्छे छूगते हैं, उसी प्रकार चुगली की बात भी सुनने में अच्छी
लगती है। परन्तु बाद में दोनों कष्ठकर होते हैं।
चना चिरोंजी हो रये।
चना चिरौंजी की तरह महगे हो रहे हैं। अथवा इततने दुष्प्राप्प हैँ कि चिरौंजी
की तरह मीठे रूगते हैं। खाद्य-वस्तुओं के बहुत मेहगे होने पर कहते हें ।
चना चिरोंजी हो रये, गोऊँ हो गये दाख।
घर में गहने तीन हैं, चरखा, पीड़ी, खाट ।।
चमचोल' के बाप बकलफोर।
(१-ऐसी वस्तु जो मुलायम होते हुए भी कठिनाई से टूटे।) कंजूस।
चमार' के कोसे ढोर नईं मरत। द
१-पा० कौवा।
चरखा अब नई चलत।
यह शरीर अब नहीं चलता ।
चरमाक के चार हींसा।
चालाक सदेव मुनाफे में रहता है ।
चलत बेल खों अरई' गुच्चत।
_(१-बैल हाँकने की छकड़ी जिसमें एक नुकीली कील और चमड़े की बधियाँ
लगी रहती हैं।) काम करते हुए आदमी को छेड़ते हैं।
चलती के पौ बारा।
प्रभावशाली आदमी अपने हर काम में सफल होता है।
चलती कौ नाव गाड़ी।
गाड़ी जब तक चलती है तभी तैक गाड़ी है, अन्यथा काठ-कबाड़ का ढेर है।
ऐसे आदमी के लिए प्रयुक्त जिसकी बात लोग मानो हों अथवा जिसके
हर काम आसानी से होते हों ।
ह चाललातर गाडा नाहीं तर खोडा---मराठी
«- १०८ ««
का
बुन्देली कहावत कोश ] [ चलों
चलती गाड़ी में ऑगन सब कोऊ देत।
लाभ की आशा से ही खत किया जाता है।
घलती रोजी पे लात मारत।
मूर्खतावश बँधी-बंधायी नौकरी छोड़ते हैँ।
चलतो घोड़ी आप दानों माँग लेत।
काम करने वाले को स्वयं पैसा मिलता है।
घल न पावें, कंदना नायें।
(१-कूदने वाले।) चल तो पाते नहीं, ताम है कृदन । गृण के विपरीत
नाम ।
चलती में दृद दोयें, कपार खोर' देयें।
चलनी में दूध दुहते हैं, और दोष देते हैं भाग्य को !
चलबो भलो न कोस को, बेटी भली न एक।
माँगन भलो न बाप को, जो बिध राखे टेक ॥॥
स्पष्ट ।
चलिए फिरिए बठ न रइये, करिये गोड़ापाई।
दृद-दही नित खाये बिलइया, कब कब भेंस बिसाई॥
मनुष्य को सदेव कुछ न कुछ करते रहना चाहिए।
चलीं चलीं बिजमक्खों आईं।
इधर-उधर की झूठी खबर फैलाने अथवा गप्प हाँकने वाले के लिए प्रयुक्त ।
फैलन ने इस कहावत को इस प्रकार लिखा है--- चली चली बी माखो आईं”
जो अशुद्ध है। वास्तव में बिजमक्खों एक खेल है, जिसमें खेलनेवाला एक
लड़का पहिले कहता है--चली चली बिजमक्खो आईं, और फिर दूसरा
उससे पूछता है--कहाँ से आई ? काहें पर सवार हैं ? क्या पहिने हुए हैं?
क्या खाती हैं? इत्यादि। इन सब प्रश्नों का उत्तर पहिले लड़के को ऐसे
शब्दों में देना पड़ता है जो सब एक ही अक्षर से प्रारंभ होते हों। न दे सकते
पर उसे खेल में हार माननी पड़ती है। इस रोचक खेल को लोग भूछ चले
हैं। पर कहावत के रूप में उसकी स्मृति शेष है।
लि ५ ०९ *»«
चार ] [ बन्देली कहावत कोदझ
चले बहुत सो बीर न होई।
बहुत परिश्रम करने वाला बहादुर नहीं माना जाता । उसके परिश्रम में
कुछ सार भी होना चाहिए।
चलौ जान दो ढला-चला।
जिस तरह लस्टम-पस्टम काम चल रहा है उसी प्रकार चलने दो; बोलो मत ।
चलौनयाऊ' हो रईं।
(१-गौने में आई हुई नववध् ।) बहुत सजी-बजी स्त्री के लिए।
चाँदी कटबो ।
चाँदी कटना। किसी काम में खूब मुनाफा होना ।
चाँदी को जूता मारबो।
पैसा खर्च करके काम बनाना ।
चाँवर की कनी और भाला की अनी।
पकने में चावल यदि कच्चा रह जाय तो उसकी कनी भाले की नोंक की तरह
हानिकर होती है।
चाँवर बेंच कुदई' लई, जा अक्कल तोय कौन् ने दई ?
( १-कोदों, सावाँ की तरह एक मोटा अनाज । )
चाकर खों ठाकुर भौत, ठाकुर खों चाकर भौत।
नौकर को मालिकों की' कमी नहीं रहती और न मालिक को नौकरों की।
चाकर सें कूकर भलो, सोवे अपनी नींद।
चातुर खों चिन्ता घनी, नहिं म्रख खों लाज।
सर-औसर जानें नहीं, पेट भरे सों काज ॥
स्पष्ट । घ्
चार्मे तेल, गुलामे रोटी ।
तेल लगाने से जिस तरह चमड़ा मजबूत रहता है, उसी तरह भर पेट खाना
खिलाने से नौकर भी ठीक काम करता है।
झा
-+ ११० -
कर
बुन्देली कहावत कोश ] [चार
चारऊ उरियाँ चुचात।
चारों ओलूती टपकती हैं। सब ओर से घर का नाश हो रहा है।
चार कलेवा, आठ दुपर कीं, नौ ब्यारी की देओ गोपाला।
इतने में कऊ फेर पर तौ, जा लेओ कंठी, जा लेओ माला॥
चार चुअना' को चौमासो । दो नकटयावने कौ ब्याव॥
( १-छप्पर में हो जाने वारा वह छिद्र जिससे वर्षा का पानी भीतर चुए।
वर्षा के पानी का टपकना। २-नकटयावना"-ताक कटना, बदनामी
होना। ) वर्षा ऋतु में यदि छप्पर दो चार जगह से टपकने भी छगे तौ
भी वर्षा के चार मास तो किसी न किसी प्रकार बीत ही जाते हैं, इसी
प्रकार विवाह में भी यदि किसी बात को लेकर कुछ झंझट या बदनामी
हो तो भी विवाह तो होकर ही रहता है और उन बदनामी की बातों
को भी लोग शीघ्र भूल जाते हैं। अत: चिन्ता किस बात की ?
चार चोर, चोरासी बानिया, एक एक के लूटे।
चार चोरों ने चौरासी बनियों को एक-एक करके लूट लिया। एका न होने
से हानि उठानी पड़ती है।
चार जनन नें घर दओ घरो । बिटिया पकरें बाप कौ गरो॥
चार आदमियों के सिखाने से लड़की बाप के गले से जाकर छलग गयी। ( कि
में ससुराल नहीं जाऊँगी, अथवा मेरे लिए अमुक कार्य तुम कर ही दो)
दूसरों के कहने-सुनने से जब कोई हठ पकड़ ले तब प्रयुक्त ।
चार दिना तौ आयें नईं भये, और सोंठ बिसाउन रूगीं।
अभी चार दिन तो ससुराल आये नहीं हुए, और सोंढठ अभी से खरीद कर रखने
लगीं । किसी अनिश्चित कार्य का पहिले से सिलसिला बाँधना ।
चार दिनां की चाँदनी फिर अँधियारी रात।
मन मोहन को हिलिबो मिलिबो दिन ब्वार की चाँदनी है गई री ।--ठाकुर
घार विना खो मउआ हमें दे दो, फिर तो तुमाय अई आयें।
दूसरों को मूर्ख बना कर अपना काम बताना । महुओं में जब”फूल आते हैं तब
दस-पाँच दिन के भीतर ही टपक कर समाप्त हो जाते हैं। उन्हीं दिलों के
- १११ -
चिटी को ] - [ बन्देली कहावत कोड
लिए ---कोई कहता है कि--महुए हमें दे दो, फिर तो तुम्हारे हैं ही। अर्थात
उनका मुख्य लाभ हमें उठा लेने दो ।
धार बेद एक कुदाई, चातुरी एक कुदाई।
(१ ओर, तरफ ) चातुरी बड़ी चीज है।
चार बेद, पाँच (अ) आओ लबेद।
चार वेदों से भी बढ़ कर पांचवी बकवाद अथवा गप्प।
चार मइना ताल कौ, चार मइहना हाल कौ।
चार महीने तो तालाब का पानी पिया जा सकता है, परन्तु वर्षा-ऋतु में कुएँ
का ताजा पानी पीना चाहिए।
चारू सो भारू।
जो ढोर अधिक चारा चरता है वह अधिक बोझ भी ढो सकता है।
चारू कभी नः हारू।
भारे से बर करो चरो का।
स्पष्ट ।
चालीस सेरी बात।
बिलकुल ठीक बात, जिसंमें लाग-लपेट न ही ।
चाव घटे नित के घर जाय, भाव घटे कछ मुख सें मांगें,
रोग घदे कछ औषध खायें, ज्ञान घटे कुसंगत पायें।
चाहत की चाकरी कौजे । अनचाहत को नाव न लोौजे॥
जो प्रेम से रखे उसी' की नौकर करनी' चाहिए।
चिठा मारो, पानी कड़ौ।
चींटी को मारा तो पानी निकछा। एक तो बुरा काम किया और कुछ मिला
भी नहीं। गुनाह बे लज्ज़त। गरीब को सताने से कोई लाभ नहीं होता ।
चिटी कों कन । हाती खों सन ॥॥
भगवान देता है।
न
5२३२ /
हा
बुन्देली कहावत कोश |] [ चित्रा
चिटी कों रथ सजो।
किसी साधारण कार्य के लिए बड़ा आडंबर।
चिंटी पे सनन कौ बोझ।
असमर्थ पर बड़ा बोझ।
चिंटी होकें घ॒से, म्सर ;होके कड़े ।
बातें बना कर अधिकार जमा लेना, और फिर मुश्किल से छोड़ना ।
चित्त कोड़ी है।
खूब लाभ हो रहा है।
चित्त चेंदेरी, मन सालयें।
चित्त तो चंदेरी में और मन मालवे में। अस्थिर चित्त।
चत चंगेडी मन मालवे, हियो हाड़ोती जाय ।--रशज०
चित्त तुमाई, पट्ट तुमाई।
सब प्रकार से अपना ही हित देखना ।
चित्त भोरी, पट्ट मोरी, अंटा' सोरे बाप कौ।
(१-ऐसी कौड़ी जो न तो पूरी चित्त हो, न पट्ठ )) ऐसे आदमी के लिए
व्यंग में प्रयुक्त जो हर तरह से अपना ही लाभ चाहता हो ।
चित्त में, न पट्ट में।
अर्थात किसी में नहीं ।
चित्रा गोऊँ, अद्रा धान, न उनके गिरुआ, न इनके घाम॥
क्वार में चित्रा नक्षत्र में गेहूँ और भादों के महीने में आर्द्रा में धान
बोने से न तो गेहूँ को गिरुआ रूगता है और न धान को धूप सताती है।
चित्रा बरसे तीन गये, कोदों, तिली, कपास ।
चित्रा बरस तीन भये, गोऊँ, सकक्कर, मास ॥।
क्वॉर के महीने में चित्रा नक्षत्र में पानी बरसने से कोदों, तिली, कपास, इन
तीनों की फसल को हानि पहुँचती है, और गेहूँ, ईख तथा उ्दे को लाभ होता है।
- ११३ - ५
तु 0००८ ७ बे
च्खरियाँ | [ बुन्देली कहावत कोदा
चिरई के मों में सोनो।
चिड़िया के मुँह में सोना । बड़े आदमी के मुँह से जो निकल जाय वही ठीक।
चिरई चौंके, न बाज फरके।
घोर निस्तब्धता।
चींटी चाँवर ले चली बिच में मिल गई दार।
कहें कबीर दोऊ ना मिलें, जा ले बा ले डार ॥
स्पष्ट ।
चीकने घेला।
ऐसा बेशर्म आदमी जिस पर कोई उपदेश काम ही न' करे।
चीकनो मों सब कोऊ देखत।
बड़े आदमी का सब सम्मान करते हैं।
चीकनों सों कर फिरत।
चिकना मुंह किये फिरते हैं। केवल अपना स्वार्थ देखते हैं। अथवा छैल-
चिकनियाँ बने हैं।
चीकने गाल तिलनियाँ के, जरे-बरे भरभुंजिया के।
जो जैसा काम करता है उसके अनुसार उसका शरीर भी बनता है।
चील के घेंचुआ में माँस काँ ?
चील के घोंसले में माँस कहाँ ? उड़ाऊ-खाऊ के पास पैसा कहां?
चोलरन के दुखन कथरो नई छोड़ी जात।
दुष्टों की परवा नहीं करनी चाहिए।
चील से मंडरा रये।
किसी वस्तु की ताक-घात में रहने पर।
चुखरियाँ दुलत्तों खेलतीं।
ह दुलत्ती खेलते हैं। घर में कुछ भी खाने को नहीं है। बहुत गरीबी का
ना।
हे
- ११४०
६
बुन्देली कहावत कोश | | चूले की
चुगल चुगली से नई चूकत।
चुगलखोर चुगली' से नहीं चूकता।
चुगली लग जात, पै बिनती नई लूगत।
चुगलखोर चुगली करके काम बना लेता है, परच्तु प्रार्थना काम नहीं आती ।
चुटया तो हमाये हात में तो जये काँ।
चोटी जब हाथ में है तो जायगा कहाँ ?
चुन चुन गये मोरा। बीद गओ लिड़बोरा ॥॥
(१-लिड़ो रा, नर मोर।) मोरनियाँ थीं, चुन चुन कर चली गयीं, मोर फेस
गया। होशियार आदमी तो काम बना कर चलता बना, मूर्ख चक्कर में
आ गया।
चुपर के और चार ठउआ।
वस्तू अच्छी भी माँगना और अधिक भी ।
चुरियाँ लादीं पाठ परी । खाँड़ छादी दो में परी ॥
सब प्रकार से दुर्भाग्य ॥ किसी आदमी ने चूड़ियों का व्यापार किया तो जिस
बैल पर वह उन्हें छाद कर लिये जा रहा था, एक चट्टान पर उसका पैर
फिसल गया । चूड़ियाँ नीचे गिर पड़ीं और फूट गयीं । इसी प्रकार जब
वह एक बार शक्कर लाद कर ले जा रहा था तो उसे एक नदी पार करनी
पड़ी और बैल के बिदकने से सब शक्कर पानी में गिर पड़ी और
घुल गयी ।
चून न म्न, चाल के दे पओ।
झूरठ। भड़क दिखाना ।
चुमचाट के खा लओ।
घर साफ कर दिया। सब खा लिया।
चले की नकरियाँ चूलेई में जरतीं।
चुल्हे की लकड़ी चल्हें में ही जलती हैं। जहाँ की वस्तु वहीँ काम आती है।
चुलीचें छांकूड चुलीत बरें---मंराठो
है
ध् ५ 3६ कु
हैः ६
चैत ] | बन्देली कहावत कोश
चले खो लूगर बताउत।
चुल्हे को जलती हुईं लकड़ी बतलाते हैँ। जानकार को सिखाना; अथवा जो
आ।दसी जिस बात का अभ्यस्त है उसे उसी बात का भय दिखा कर डराना।
चले में बिलदयाँ डंडोतें करतीं ।
चूल्हें में बिल्लियाँ दंडवत करती हैं। घर में खाने को नहीं ।
चले सें मूंड़ दओ तो लूगरन कौ का डर ?
दें० उखरी में मेड, . . .
चलो खोदें खाट बिछत।
घर में स्थान की इतनी कमी है कि चूल्हा खोद डालने पर ही खाट बिछ
सकती है।
चेंथरी प॑ आँखें चड़ीं।
अंधे बन कर काम करते हैं। भला-बुरा कुछ न सूझता ।
चेरी कौ चित्त महेरी में। (कि कब बने और कब खाऊँ)
बार-बार अपने ही मतरूब की बात करना ।
चेत सोवे रोगी, क्वाँर सोवे भोगी।
दिन में.चैत के महीने में रोगी और क्वाँर के महीने में भोगी सोता है ।
चेत मीठी चोमरी बेसाख मीठो मठा।
जेंठ मीठी डोबरी' असाढ़ मीठे लटा'॥
सावन सीठो खोर-खांड़ भादों भुंजे चना।
क्वॉर मोठी काकरी ल्याव कोरी टोर कें।
कफातिक मीठो कुदई दहिया डारो मोय कें।
अगहन खाब जूनरी भुर्रा-नीब् ज्ञोर के ॥
पूस मीठी खीचरी कछ गुर डारो फोर कें।
माघ मीठे पोंड़ बेर फागुन होरा बालें।
समय समय की मीठी चीज़ें सुधर खबेरा खादवें।
( १-महुओं की खीर, जो महुओं को चावल या सिमईं के साथ पानी में पका कर
बनायी जाती है। २-मभुने हुए महुओं को गुड़ के साथ कूट कर बनाया गया
पदार्थ, यह तिलूपट्टी की तरह होता है। ३-नमक। )
हर ह 5 १0
क्री
बुन्देली कहावत कोश | द [चोर
चेते गुर बेसाखे तेल, जेठे महुआ, असाढ़े बेल।
सावन भाजी, भादों मही, क्वाँर करेला, कातिक वही।
अघने जीरो, पुूसे धना, साघे मिसरी, फागुन चना।
इतनी चीज खेहों सभी, मरहो नहीं तो परहो सही ॥।
चेन की बंसी बजा रये।
मौज कर रहे हैं।
चोंटिया लेओ, न बकौटों भराओ।
न किसी को चुटकी लो और न वह तुम्हें हथेली से नोंचे ।
चोंखरे को जाव बिलई करकोरत।
चहें की संतान बिल ही खोदती है | जिसके घर में जो काम होता रहता
है वह बचपन से उसी को सीखता और करता है।
चोंखरे दंड पेल रये।
--दे० चुखरियाँ दुलत्ती खेलतीं ।
चोर के घर छिछोर।
चोर के घर भी दूसरे छोटे-मोटे चोर घुस ही जाते हैं। अथवा चोर के घर भी
छछोवा करने वाले घुस जायें तो यह एक आश्चर्य की ही बात है।
चोर के पाँव (अ) ईं किते ?
चोर के पर ही कितने । दोषी जाँच करने पर नहीं ठहरता ।
चोर खों चोर बसात।
चोर को चोर की गंध आती है। अर्थात चोर चोर को पहिचान लेता है।
चोर चोर मौसयायते भय्या।
एक पेशे या एक स्वभाव के छोगों में आपस में शीघ्र मित्रता हो जाती है।
एक की झूठ बात का जब दूसरा समर्थन करे तब ।
चोर चोरी से गओ, तो का टारा-फेरी सें गैओ॥।
किसी का जन्मजात स्वभाव आसानी से नहीं छटता।
इसकी एक कथा हूं कि एक चोर ने कई बार पकड़े जाने और दंड पाने के
कारण चोरी करना छोड़ दिया और साधू हो गया। भला साधुओं के पास
- ११७ - है
चोौका | [ बन्देली कहावत कोश
चोरी करने के लिए क्या रखा था? परन्तु उसे तो अपने मन को शान्त
करने के लिए कुछ न कुछ करना था। इसलिए जब सब साधू सो जाते तब
वह उनके दंड-कमंडल ही इधर के उधर कर दिया करता। एक दिन
साधुओं को पता छग गया कि यही मनुष्य हम लोगों की चीजों को अस्त-व्यस्त
कर देता है। जब उससे पूछा गया कि तू ऐसा क्यों करता है तो उसने उत्तर
दिया--मैं पहिले चोर था, यद्यपि मैंने चोरी करना छोड़ दिया। परन्तु
क्या करूँ, अपनी आदत से लाचार हँ। चोरी न करूँ, तो क्या टारा-फेरी
भी न करूँ ?
घोर जाने चोर की घाई।
चोर ही चोर की घात जानता है।
शोरन कुतिया सिल गई पहिरो कहु को देय ।
घर का आदमी ही यदि विरुद्ध हो जाय तो काम कैसे चले ?
चोर से कर्य चोरी कर, साव से कर्ये जगत रौ।
दोनों पक्षों को उकसाना। ु
चोर ने केह के खातर पाड ने साहुकार ने केह के जागतो रेह--गुज०
चोरी ओर मों जोरी।
अपराध करके उल्टे जवाब देना।
धो री-चोराँ खेती करी, जोतो का मेंझोटो ?
चोरी से खेती करके क्या आँगन जोतोगे ? बड़ा काम चोरी-छिपे नहीं होता ।
घोली के पान।
(१-चुलिया, बाँस का बना छोटा डिब्बा) सुकुमार वस्तु, विशेषकर दूध
पीते छोटे बच्चों के लिए प्रयुक्त | पान जिस प्रकार जल्दी सूखते हैं उसी
प्रकार छोटे बच्चों को भी रोग जल्दी सताते हैं।
घोका सो झार बठे ।
सब पैसा साफ कर बैठे।
हे - ११८ -
हा
बुन्देली फहावत कोश ] | छयपती
चौदा विद्या निधान।
सब कलाओं में प्रवीण | व्यंग में ।
चौपर के खिलेया।
दतरंज के खिलाड़ी, चतुर व्यक्ति ।
चौबे गये छब्बे होबे, दुबेई रे गये।
चोौबे छब्बे होने गये, दुबे ही रह गये ।
चोौमासे के रिपटे और राज के पिटे कौ का डर।
चोौमासे में रिपट कर गिर पड़ने और राज्य के द्वारा पिटने का डर क्या?
चौमासे को जुर और राजा को कर।
इनसे पीछा नहीं छुटता।
छ
छछुंदर छोड़बो।
(१--एक छोटी आतिशबार्ज! जो आग लगने पर बहुत तेज चक्कर काटती
हुई जमीन पर भागती' है।) ऐसी बात कह देना जिससे दो आदमियों में
बैठे-ठाले झगड़ा हो जाय ।
छटी कौ खाव-पिओ सब निकर गओ।
छटी का खाया-पिया सब निकल गया। बड़ा परिश्रम करना पड़ा।
छठी का दूध याद आ गया।
छठी कौ लिखो नई मिठत।
भाग्य का लिखा नहीं मिटता।
छठ की सातें करें फिरत।
छठ की सातें किये फिरते है। अनियमित काम करते हैं।
छयपती, घटे पाप, बढ़े रती।
छींक आना, कुछ विशेष अवस्थाओं में, अशुभ मानते हैं। अतः किसी के'
छींकने पर छींक के दोष को दूर करने के लिए कहते हैँ ।
“- रैश९ -
छिग्री | [ बन्देली कहावत कोश
छणप्पन ठका।
बड़ी रकम। व्यंग में ।
छल-छंद बगराबो।
चालबाजी दिखाना।
छाती के जम।
ऐसा आदमी जो टाले से न टले ।
छाती पेरबो।
जानबूझ कर किसी को कष्ट देना ।
छाती पे उर्दा (मूंग या कोदों) दरबो।
किसी के सामने ही ऐसा काम करना जिससे उसका जी दुखे।
छाती पे कोऊ नई धर देअ (ए)।
धन-दौलत कोई साथ नहीं रख देगा।
छाती पे पथरा धरो।
छाती पर पत्थर रखा है। ऐसा भारी दुःख है जिसे प्रकट नहीं किया जा
सकता ।
छाती पे पथरा धर लओ।
दुःख सहने के लिए हृदय को कड़ा कर लिया।
छाती पे धर के कोऊ नहीं ले जात।
धन के लिए कहते हें।
छाती पे होरा भूंजत।
छाती पर होला भूनते हैं। जानबूझ कर जी दुखाते हैं।
छाती में गमको मार लओ। ध
दुःख को पीकर रह गयें।
छिगुरी पकर' के कौंचा पकरवो।
थोड़ा सहारा पाकर गले पड़ जाना।
्ब्डू
बंध! २ र् 90 ४
बन्देली कहावत कोश | [ छंछी
छिदाम की हेड़िया ठोक बजा के लेत।
हर चीज देखभाल कर खरीदी चाहिए।
छिन सीरे, छिन ताते।
घड़ी-घड़ी में मिजाज बदलना ।
छिपनी से समुन्दर उलीचत।
सीपी से समुद्र उलीचते हैं । असंभव काये |
छिरिया' के गोड़े बुकरिया में, बुकरिया के गोड़े छिरिया में।
(१-बकरी का बच्चा) इधर की चीज उधर मिलाना। ऊट-पटाँग
काम करना ।
छींकतई नाक कठी ।
छींकते ही नाक कटी। बिना किसी अपराध के ही क्ूंक छूगा।
छोंकत नहाइये, छींकत खेये, छींकत रहिये सोय।
छोंकत पर घर न जाइये, चाय सर्व स्वनं कौ होय॥
छींक संबधी विश्वास ।
छींके को टूटन, बिलइया को रूपकन।
छींके का टूटना और बिल्ली का लपकना। संयोग से कोई अच्छा काम बन
जाना । बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा।
छींट की घेंघरिया गजी' को तना ।
(१-खादी । २-बाँघरे के ऊपर की वह गोट जिसमें डोरा डालते हैं।)
बेमेल काम |
छुपे रुस्तम ।
ऐसा व्यक्ति जिसके गुणों का लोगों को पता न हो।
छुरी, छड़ी, छतरी, छला, सदा राखिये पास ।
छुंछी हेडिया बजे टन टन। ५;
घर में कुछ खाने को नहीं। अथवा गुणहीन बहुत बात करता है।
- १२१ - हे
छोटो | [ बुन्देली कहावत कोश '
छुंछे काऊ न पूंछे।
धनहीन को कोई नहीं पूछता ।
छछो फठको उड़ उड़ जाय।
मूर्ख के पास से कोई सार की बात पल्ले नहीं पड़ती । अथवा मूर्ख बड़ा घमंडी
होता है।
छूटी घोड़ी भुसोरे ठाँड़ी।
जिसे जो आदत पड़ जाती है वह मुहिकल से छूटती है। अथवा जिसे कोई
और ठिकाना नहीं होता वह घूम-फिर कर अपने स्थान पर ही आता है।
छुटौ बैल भुसौरी में ।
छेरी अपने जी सें गई, राजा कये अरौनी भई।
बकरी की तो जात गयी, और राजा कहते हँ--इसमें नमक कम है। कोई
आदमी किसी के लिए मर-मिटे और वह उसके प्रति थोड़ा भी कृतज्ञ
न हो तब कहते हैं ।
बकरी जान से गर्य/ खाने वाले को मजा न आया |--फेलन
छे मईना को सकारो करत।
छ: महीते का सबेरा करते हैं। वादाखिलाफी करना। समय पर काम
क्र न देना । |
छोटे-बड़े, सब के दो कान।
क्या छोटे, क्या बड़े, सब बराबर होते हैं। सबके दो कान हैं ।
छोटे बिगर तब बड़न सें।
छोटे बड़ों का अनुकरण करके ही बिगड़ते हैं।
छोटो मों ऐंठे कान । जई बरद की है- पहचान ॥
अच्छे बैल की पहिचान यही है कि उसका मुंह छोटा और कान ऐंठ हुए हों ।
छोटो सब से खोटो । द
लड़कों से व्यंग में ।
अटीफि
बुन्देली कहावत कोश ] | जनम के
छोड़िये न जबान, खेंचिये न कमान। खेलिये न जुआ, फाँदिये न कुआ॥
पा० हज़िये न जमान . . . . . .
छोड़ी राम अजुध्या, जो चाहे सो लेय।
किसी बात से कोई मतरूब न रखना। रुपये-पैसे का मोह छोड़ कर झगड़े
से अलग होना । |
गढ़ सौंपा बादल कहूँ, गये टिकठि बसि देव।
छोड़ी राम अजोध्या जो भाव सो लेव --जा०
छोड़े गाँव को नातो का ?
जिस बात से कोई प्रयोजन नहीं उसकी चर्चा क्या ?
ज्
जंगी घोड़ा कों भंगी असवार।
जैसे को तैसा मिलने से ही काम चलता है।
जगजानो देस बखानी।
सबकी देखी-सुनी प्रसिद्ध बात ।
जग दरसन कौ मेला।
संसार में सबसे मिलूजुल कर रहने का ही आनंद है।
जगन्नाथ के भात कों जगत पसारे हात।
श्रेयस्कर वस्तु को लेने की इच्छा सभी करते हैं। पुरी जगन्नाथ जी के मंदिर
में भात का प्रसाद बँटता है और सभी वर्णों तथा जातियों के लोग प्रेम पूर्वक
एक साथ बैठ कर खाते हैं ।
जनम के आँदरे, नाव नेनसुख।
गुण के विपरीत नाम ।
जनम के कोढ़ी ।
सदा के रोगी। प्रायः गंदी आदतों वाले आदमी के लिए प्रयुक्त ।
न है न के: का हु
जब ] ह [ बन्देली कहावत कोश
जनम के दुखिया नाव सदासुख।
दे० जनम के आँदरे, . . .
जनम को कंटक टरो।
सदा की विपत्ति टली। किसी अवांछनीय व्यक्ति से पिंड छूटने पर।
जनम कौ कोड़ एक ऐंतवार में नईं जात।
कोई बुरी आदत एक दिन में नहीं छूटती |
चमेरोग से मुक्ति पाने के लिए सूर्य भगवात की उपासना करते हैं और
इतवार का ब्रत रखते हैं। उसी से अभिप्राय है।
जनम कौ सब कोऊ साथी होत, करम' कौ कोऊ नईह।
जनम' भरे में रूप धरो बोई कोड़ी कौ।
भूले-बिसरे कोई अच्छा काम करने बैठे तो वह भी बेतुका।
जब अपने लरकई मे लच्छन नइयाँ तब दायजे की का आसा करत ?
जब अपना लड़का ही निकम्मा है तब दहेज की क्या आशा की जाय ?
जब को जब तें लगी।
अर्थात अवसर आने पर देखा जायगा ।
जब के बूढ़े अब के ज्वान । अब के हूँंहे और निकाम॥॥
पुरानी पीढ़ी के बूढ़े लोगों का स्वास्थ्य जितना अच्छा है उतना आज कल के
नौजवानों का नहीं, और अब जो लड़के हैँ उनका स्वास्थ्य आगे चल क्र और
भी खराब होगा । वत्तमान समय के दुबले-पतले, क्षीणकाय नवयुवकों के संबंध
में उक्ति।
जब जसो तब तेसो।
जब जैसा समय हो तब वैसा ही करना चाहिए।
जब नटनी बाँसे चढ़ी तब काहे की लाूज।
जब कोई काम करने ही लगे तो फिर उसमें संकोच क्या ।
जब नचबे निकरीं-तो घूंघट काय पे ।
दे० ऊपर
+ क्र
बुन्देलो कहावत कोश ] [ बैला
जब बिगरे तब सुघर नर, का बियरेंगे क्र ।
सठा बिचारे का बिगरे, जब बिगर तब दूद॥
जब बोल तब उबाँडे।
( १-टेढ़े ।) सीधे तौरपर उत्तर न देने पर।
जब बोल तब बाँ-आँ-आँ।
जब बोलते हैँ तब ढोर की तरह। सीधी तरह न बोलना ।
जबर कौ पेंड़ो मड़ प।
जबरदस्त का बोझ सिर पर। बलवान के आगे सब झुकते हैं ।
जबर सारे रोउन न देय ।
जब लाद लई तो लाज काय की।
जब बेशरमी ही लाद ली तो फिर शरम किस बात की।
जब ओढ़ लीनी लोई तो क्या करेगा कोई ।
जब सबरी नठ जात तब बिटिया को खात।
सब नष्ट होने पर ही बेटी का धन खाते हैं।
जब सें जानी तब से मानी ।
किसी बात की जानकारी होने पर उसे मान लेता पड़ता है।
जबा जर गये भूृंजाई धर गये।
हानि की हानि हुई और गाँठ से भी देना पड़ा ।
जबान हारी तो सब हारो।
वचन दिया तो सव्वस्व दिया।
जमी न जाँगा, अचलपुर के राजा।
झूठी तड़क-भड़क ।
जरयाने उर काँस में खेत करो जिन कोय ७
बैला दोऊ बेंचक करो नौकरी सोय॥
झरबेरी और काँस की जगह खेती नहीं करनी चाहिए+ इससे तो बैल
बेच कर नौकरी कर लेना अच्छा ।
कप, |
जाँतो ] [ बुन्देली कहावत कोश
जरे पे फोरा पारबो।
दुःखी को और अधिक दुःख पहुचाना।
जल में खोद करम में कोरा । जाँ देखो ताँ कौरई कौरा॥
संसार में कोई वस्तु निर्दोष नहीं ।
जलेबी को पेंच ।
जलेबी बनाने में जिस तरह के पेंच डाले जाते हैं उस तरह की टेढ़ी-मेढ़ी धूत्तेता-
पूर्ण बात ।
जले और कुल मिलतन झेल नई लगत।
जल और एक कुल के आदमियों को परस्पर मिलने में विलंब नहीं लगता ।
जहर खाबे को फुर्सत नइयाँ।
बिलकुल अवकाश नहीं।
जाँ की माटी उतईं ठिकाने लूगत।
जहाँ मरना बदा होता है अंत समय आदमी वहीं खिंच कर पहुँचता है ।
जाँ चार बासन होत सो खटकतई हेँ।
जहाँ चार आदमी इकट्ठे रहते हैं वहाँ आपस में खटपट हो ही जाया करती है।
जाँ जाँ चरन परें संतन के ताँ ताँ बंदाढार।
कोई आदमी जहाँ पहुँचे वहाँ ही काम चौपट हो जाये तब व्यंग में उसके लिए
कहते हैं । '
जाँ जाँ संत सठा कों जायें, भेंस पड़ा दोऊ मर जायें।
दें० ऊपर।
जाँते प॑ बेठ के सबे गा आउत।
चक्की पर बैठ कर सबको गाना सूझता है।
जाँतो फूटो, नातो टूटो। न
जाता फूटा और नाता टूठा । विवाहिता लड़की की मृत्यु हो जाने पर उसकी
ससुराल वालों से प्रायः फिर कोई विशेष संबंध नहीं रहता। रिश्ता एक
प्रकार से टूट जाता है । इस अर्थ में कहावत का प्रयोग ।
हू “ १२६ --
हक
बुन्देली कहावत कोश | [ जाओ
जाँ दूला ताँ बरात।
जाँ देखें गुना-पुरीं, ताँ जायें लरीं लरीं।
जहाँ माल-मसाला खाने को देखा वहीं पहुँच गये |
जाँ न पोंचे रवि ताँ पाँचे कवि।
2
जहाँ सूर्य की पहुँच नहीं वहाँ कवि की कल्पना पहुँच जाती है ।
जाँ पंच ताँ परमेसुर। '
पंचों में परमेश्वर होते हेँ।
जाँ बऊ कौ पीसनों, उतईं ससुर की खाट।
जहाँ बहू को सबेरे उठ कर पीसना है वहीं ससुर लेटा हुआ है। लछाज-शर्म या
अड़चन की बात।
जाँ मिलीं दो, तईं रये सो।
जहाँ खाने को मिलता है वहाँ सब जाते हैं।
जहाँ देखे तवा परात | वहाँ गावे सारी रात ॥।
जाँ म्रगा नई होत ताँ का भोर नई होत।
किसी के बिना किर्सी का काम नहीं रुका रहता ।
जा रूख नई उत अरंडई रूख।
जहाँ कोई विद्वान नहीं होता वहाँ साधारण व्यक्ति को ही लोग बड़ा मानते
हें
जाँ साठ, ता सत्तर।
थोड़े खर्चे के लिए काम बिगड़ रहा हो तब प्रयुक्त कि और सही।
जाँ सेर, ताँ सवा सेर।
दे० ऊपर
जाओ पूत दक्खिन, बेई करम के लच्छत।
अकमंण्य का कहीं ठिकाना नहीं लगता। अथवा कहीं भी जएओ प्रारब्ध साथ
चलता है।
>> १२७ « श्र
जाघर | | बुन्देली कहावत कोद
जा कान सुनी, बा कान निकार दई।
इस कान सुनी, उस कान निकाल दी। किसी बात पर ध्यान न देना ।
जाकी जाति के जौन हैं, ताकी पाँत के तौन।
बाघ, बाज के बाचवा, धरे सिखावे कौन ।
जाकी देखी जूनरी' ताकी न््योती चूल।
जाकी तइयाँ जूनरी, ताकी गई सुध भूल॥
(१-ज्वार। २-चूल न्योतवा>घर भर को भोजन के लिए आमंत्रित करना । )
जिसके घर में ज्वार नहीं उसे न््योतना भूल गये। तात्पर्य यह कि पैसे
वाले का सब आदर-सत्कार करते हैं।
जाके पाँव न फटी बिवाई । सो का जानें पीर पराई॥
जिसने स्वयं कभी कृष्ट नहीं भोगा वह दूसरों के कष्ट का क्या अनुभव करेगा ?
जाको ऊँचो बेठबो जाको खेत निचान।
ताको बरी का करे जाको मींत दिवान ॥
जो बड़ों की संगत में बैठता है, जिसका खेत नीचा है अर्थात जिसमें वर्षा का
पानी भरता है, और राजा के मंत्री से जिसकी मित्रता है उसका कोई क्या बिगाड़
सकता हैं ।
जाग जगन्ते पारुआ, राग लगंते और ॥
पहरुए जागते ही रहते हैं, चोरी करते वाले अपना काम बना ले जाते हैं ।
जागे जो कोऊ धन कौ धनी । जागे जो कों चिन्ता घनी ॥
जागें रात अंधेरी चोर । जागे भर बरसाते मोर ॥
जागे जीके घर में साँप । जागे जो बिदिया कौ बाप ॥
जागे जो कोउ जप जगदीस । जागे जीकों देने सीस॥
जाग जी के देह में दुक्व । जागे जी कों लगी भुक्ख॥
जागे सो पावे, सोबवें सो खोबे।
सावधान रहने से ही लाभ होता है।
जा घर के सब उकठई नकटा।
किसी घर में एक से निर्लज्ज अथवा विलक्षण व्यक्तियों का होना ।
है -“ १२८ -
बन्देली कहावत कोश | द [ जानहार
जाड़ो ठाँड़ो गेल में करे हेँत की बात।
भोरे बरी तीन हैं, रई, प्यार उर आग॥
( १-कोदों या धात का भूसा |)
जाड़ो जाय रुई से के दुई सें।
जाड़ा या तो रुई से जाता है या दो से ।
जात खाय, के जाँतो।
जात-बिरादरी के छोग खा पाते हैं या चक्की खाती है। कई जातियों में
हर छोटे-छोटे मामले में बिरादरी वालों को खिलाना पड़ता है। उसीसे
अभिप्राय है ।
जात से परजात भली।
जाति वालों से दूसरी जाति वाले अच्छे ।
जान न चिनार, चार मइना साझे में रं जान दो।॥
जान न पहिचान, चार महीने साझे में रह जाने दो। बिना पूर्व-परिचय के
ही निकट का संबंध स्थापित करना ।
जान न पहिचान, बड़ी बीबी सलाम।
जान न चिनार हतयार भीतरे धरौ।
बिता जान-पहिचान के अपनी चीज दूसरे को सौंप दो।
जान-समज के कुआ में गिरे।
जान-बूझ कर हानि की।
जान-समज के कुआ में ढकेल दओ।
प्रायः लड़की के लिए कहते हैं कि जान-समझ कर अयथोग्य वर को
सौंप दी। |
जानहार पैसा मुठी में सें चलो जात।
जो हानि होने वाली होती है वह होकर रहती है।
४240 + 5 जा *
० कस हु हे
जार] [ बुन्देली कहावत कोश
जानहार बऊ, बड़रे' खों खोर।
(१-वह लट्ठा जिस पर छप्पर के छावन की लकड़ियाँ रखी जाती हैं।)
बहू तो मरने को थी, दोष देते हैं बड़ेरे को, कि उसके गिरने से मरी॥
होनहार के लिए दूसरे को दोष देना।
जानि न जाय निसाचर भमाया।
दुष्ट मनुष्य का भेद जानता कठिन होता है।
जाने सो बे कहा, आद अंत बिरतंत।
समझदार को बहुत बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
जाप के बिरतें पाप।
धर्म की ओट में बुरे काम करता ।
जा बात बा बात धर टका मोरे हात।
बार-बार अपने मतलूब की ही बात करना ।
जा बेरा ना बा बेरा, गधे नोंन दे दो।
न तो यह वक्त, न वह वक्त, गधे को नमक दे दो। बेवक्त काम करना |
जामिन न होय चोर कौ, सींग न पकरं ढोर कौ॥
चोर की जमानत नहीं देनी चाहिए, ढोर का सींग भी नहीं पकड़ना चाहिए।
जामें जित्ती बुद्धि है उत्ती देव बताय।
बाको बुरो न मानिये, और कहाँ से लाय॥
जायें उत्तर, बतायें दक्खिन।
कुछ का कुछ बताना ।
जाये की पीर मताई खों होत ।
माता ही प्रसव की वेदना जानती है। अथवा माता को ही संतान के सुख-
दुख की चिन्ता होती है।
जार' खों जेरी, गँवार खों लठा। कोंदन की रोठी खों भेंस को मठा॥
(£-अरबेरी के कंटीले झाँखड़। २-झाड़-झंखड़ उठाने की लंबी, दुर्फेसी
लकड़ी । ) झाड़-झंखाड़ को उठाने के लिए जेरी, गँवार के लिए लट्ट और
कोदों की रोटी के लिए मठा चाहिए।
- १३० -
का
बुन्देली कहावत कोदा ] [जित्तो
जाही बिध राखे राम ताही ब्रिध रहिए।
जिअत जिअत के सब सेंगाती, मरे कौ कोऊ नहयाँ।
जिअत जिअत को नातोौ है।
जीते जी के ही सब नाते हैं।
जिअत भहोबे हम ना जहें कागा भरे हाड़ ले जायें।
किसी काम को न करने का दृढ़ निदचय ।
बुन्देली काव्य आल्हा' में आल्हा का परिमाल से उस समय का कथन जब
परिमार उसके पास कन्नौज से महोबा चलने के लिए उसे मनाता है।
जिओ पिया चायें बई सुहागिन।
जिसे पिया चाहें वही सुहागिन ।
जिते जाय भूखा उते पर सुखा।
दुःखी को सब जगह दुःख ही' मिलता है।
जिते पौनी उते तगा।
जहाँ पौनी वहाँ धागा। दो का घनिष्ट संबंध ।
जिते नइयाँ सुनवइया, उते मरो कहवइया।
जहाँ कोई सुनने वाला नहीं वहाँ कहने वाला बेमौत मरता है।
जित्ते उन्ना उत्ती (अ) ई ठंड।
जितना कपड़ा उतनी ही ठंड।
जिसे की तौ मज्री नईं जित्ते कौ लाँगा चिथ गओ।
दे० इत्ते की तो कमाई नई. . . . .
जित्ते मों उत्ती बातें। द
जितने मुँह उतनी ही बातें।
जित्तो फरम में लिखो उत्तो कर्ऊँ नई जात। *
जितना भाग्य में लिखा है उतना मिल कर ही रहता है।
सक आ
छ्
जीकी ] [ बुन्देली कहावत कोश
जित्तो खात उत्त (औ) ई ललात।
जितना खाता है उतना ही ललाता है। छोटे छालची बच्चों के लिए।
जत खाय तत ललाय--बंगला
जित्तो खाब सबरी बरात । उत्तो खाबे दुला कौ बाप॥
किसी एक आदमी के आदर-सत्कार में बहुत खर्च हो जाना ।
जित्तो ग्र डारो उत्तोई मीठो होत।
जत मेघ तत वृष्टि जत गुड़ तत मिष्टि---बंगला
जित्तो छोटो उत्तोई खोडो॥
उपद्रवी बालक के लिए कहते है।
जित्तो पानी पियाउत उत्तोई पियत।
किसी के बिलकुल अघीन बन जाना ।
जिन घर सास न नंदा, तिन घर बड़े अनंदा।
घर में सास और नतद न होने पर बहु को चैन ही चैन' रहता है।
जिन पे नौबतें बजीं, बे उपलन सें का छरकें।
जिन पर नौबत बजीं वे कंडों की मार से क्या भयभीत होंगे ? कठिन दुःख
जिसने झेले वह साधारण कष्टों की क्या परवा करेगा ?
जिये मेरो भैय्या । घर घर भौजेय्या॥
साधन हो तो कार्य भी हो जाता है।
जी की गूजर खीर खाय, बई की भेंस छोर ले जाय।
कृतध्न के लिए प्रयुक्त ।
जीकी बात कौ ठीक नहं, बाके बाप कौ ठीक नईं।
जीकी बेन अंदर । ऊको भाई सिकंदर ॥
भाई जब ससुराल में अपनी बहिन के पास जाता है तो उसे खब खाने पीने
को मिलता है? और बहिन के कारण वह किसी की परवाह नहीं करता।
जीकी भीतर बाई | ऊ की राम बनाई॥।
दे० ऊपर
&]
“ १३२ «-
_ऊ
बुन्देली कहावत कोश | [ जिकौ
जोको इते चाहना, ऊ की उते चाहना।
जिसकी संसार में चाह होती है उसे भगवान् भी चाहते हैं।
जाकी' यहाँ चाहना है वाकी वहाँ चाहना है,
जाकी यहाँ चाह ना वाकी' वहाँ चाह ना है।
“वाल
जीके जाँ सींग समात सो जात।
जिसका जहाँ ठिकाना छगता है, सो जाता है।
जीके जैसे बाप मताई तीके तेसे लरका।
जीके जेसे नदिया नारे, तीके तेसे भरका' ॥
(१- नदी किनारे के बड़े गड़ढे, खड्डी।) संतान अपने माता-पिता के ही
अनुरूप होती है।
ठाय तेवी ठीकरी ने माओं तेबी दीकरी--गुजराती
(जैसा बत्तेत वैसी ठीकरी, मा वैसी बेटी ।)
खाण तशी माती आणि आत तशी माची--मराठी
(जैसी खान, बैसी उसकी मिट्टी, जैसी काकी वैसी भतीजी ।)
जीकौ जोन सुभाव जाय नई जी सें।
नीम न मीठे होयें खाओ गर घी सें॥
जीकौ पेट पिरात सो अजवान ढूँढ़त।
जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता होती है वह उसे स्वयं खोजता फिरता है।
(बच्चा पैदा होने पर स्त्रियाँ अजवायन खाती हैं। उदर-विकारों की तो
वह एक बढ़िया औषध है ही।)
जार माथा भांगे सेई चूत खोंजे--बंगला
(जिसका सिर फूटता है वही चूना खोजता फिरता है।)
जीकौ मर सो रोवे । गंगादास मढ़ी में सोवे ॥।
किसी से कोई मतलब न रखना।
जीकौ लरका घूंटइ-घुंट्यन ऊकी बरात कौ का पूँछने।
जिसका लड़का घुटनों चलता है अर्थात अबोध या लँगड़ा है उसकी बरात
का क्या पूछता ? वह अवश्य विलक्षण होगी। थोड़ा देख कर बहुत समझना ।
प्य + आआ +
५५
जी पतरी ] [ बुन्देली कहावत कोश
जीके मार्थ परत सोई जानत।
जिस पर बीतती है वही जानता है ।
जीकौ आड़ बिके, बो बधिया काय खों कर।
जिसका आँड् बैल ही बिके वह बधिया क्यों करे। जिसका काम आसानी से
हो जाय, वह उसके लिए फिर अधिक कष्ट क्यों उठाये?
जीकौ काम ओई खाँ छाज । गद्धा मूंड डंड़का बाजे।
जिसका काम उसी को शोभा देता हैं। दूसरा करें तो उसे हानि उठानी
पड़ती है।
जीकौ खाइयें भतवा, ऊकौ गाइये गितवा 0
जिसका अन्न-जल खाय उसकी प्रशंसा करे।
जीकौ खावे, ऊकों गावें (अथवा बजाबे )।
दे० ऊपर।
जीकौ ढंडक जात, सो रूखो खात।
जिसका घी गिर जाता है वही रूखा खाता है। जिसकी हानि उसी को भुगतनी
पड़ती है।
ढेंडक जात घी जीकौ ईसुर तेई खां रूखौं खानें--ईसुरी
जो घर नहयों बड़डा, सो घर डिग्गमडिग्गा।
बूढ़े-पुराने आदमी के बिना घर का प्रबंध ठीक तोर से नहीं चलता ।
जीनें चोंच दई सो चुन दे (ए)।
जिसने पैदा किया वह खाने को भी देगा । भगवान का भरोसा।
जीनें बिटिया दई तोनें सब कछू दओ।
जिसने बेटी दी, उसने सब कुछ दिथा।
जी पतरी मे खायें ओई में छेद करें।
कृतध्न के लिए।
हे - हैरेड -
फेल
बुन्देली कहावत कोदा | [जें
3५
जी प॑ बीतत सोई जानत।
दे० जीके मार्थे परत।.
जीभ कंसो रहबो है।
जिस प्रकार दाँतों के बीच में जीभ रहती है उप्ती प्रकार परवश होकर रहना ।
जीभ कौ स्वाद।
केवल जीभ के स्वाद के' लिए कोई वस्तु खाना ।
जीभ जरी, न स्वाद पाओ।
कष्ट भी उठाया और कोई विशेष लाभ न हुआ ।
जी में जी आ गओ।
चैन मिल गया ।
जी सें जहान लगो।
जान है तो जहान है।
जग फूटो, न्द! मरी।
(१-चौसर की गोट।) जब तक एका है, तभी तक बल है। अलग हुए
और पिटे। चौसर के खेल में जब तक दो गोटे एक घर में रहती हैं तब तक
उन्हें कोई मार नहीं सकता।
जत जूत मरे बेलवा, बेठे खायें तुरंग।
बैल बेचारे खेत जोत-जोत कर मरते हैं और घोड़े आराम से बैठे खाते हैं।
जुर, जाचक, उर पाउनों, चौथो मॉगनहार । द
लांघन तीन कराय दे, फेर न आवे हार॥।
ज्वर, भाट, पाहुना, और भिखारी, इनको तीन दिन भूखों मारे तो ये फिर
दरवाजे पर छौट कर नहीं आते |
जूँठो खेये मीठे खों।
मीठा खाने के लिए कभी-कभी ज॑ठा भी खाना पड़ता है।
जेंकें छोड़ पाउनो, जी ले छोड़े ब्याष।
पाहुना भोजन करके और पुराना रोग प्राण लेकर ही पिंड छोड़ता है।
0 0 हे
है.
जसे | [ बन्देली कहावत कोश
जेंठ के भरोसें पेट ।
दूसरे के भरोसे काम करने पर प्रयुक्त ।
जेंठे की जिठाई राख दई।
बड़ों का बड़प्पन रख दिया |
जेंवरिया कौ साँप बनाउत।
रस्सी का साँप बनाते हैं।
जैसी करनी, ऊसी भरनी।
कर्म का फल भोगना पड़ता है।
जेसी गंगा नहाओ ऊसी सिद्धि।
जैसा काम करो वैसा फल मिलेगा।
जैसी देखी गाँव की रोत॥ ऊसी उठाई अपनी भींत॥
लोकरीति के अनुसार काम करना पड़ता है।
जेसी देवी तेसे पंडा।
एक से लोगों का मिल जाना।
जैसी देबो तेसे धमार ।
(१-होली के गीत ।) जैसी देवी हैं वैसे ही उनके गीत भी गाये जा रहे हैं।
जेसी नकटो नचनारी, ऊसोई टिड़का बज्जेया।
दोनों एक से।
जेसी बहे बयार पींठ तब तेसी दीजे।
समय के अनुसार चलना चाहिए।
जंसी बेटी गवनारी हें ऊसी नचनारी होतीं तो ना जाने का करतीं।
बेटी गाने में जैसी प्रवीण है वैसी नाचने में होतीं तो न जाने क्या करतीं ?
जैसी मत तेसी गत। दा
जसे असू तंसे बसू, न इनकें कछू न उनके कछू।
दोनों एक से निकम्मे ।
“ १३६ “-
बुन्देली कहावत कोश | [ जेंसे
जेसे कंता घर रहे तेसे रहे बिदेस।
निकम्मा आदमी जैसा घर रहा वैसा बाहर, सब बराबर।
जेसे खों तेसो मिल जात।
जैसे को तैसा मिल जाता है।
जसे को तेसो मिलो, मिली खीर में खाँड ।
तें जात की बेड़नी, में जात कौ भाँड़॥
कथा---एक ग्रामीण वेश्या ने पित् पक्ष के दिलों में ब्राह्मणों को अपने घर
भोजन कराना चाहा । परन्तु कोई उसके घर आने को राजी नहीं हुआ | बहुत
दूँढ़-खोज के बाद तिलूक-छापा लगाये और गले में माला पहिने हुए एक ब्राह्मण
मिला। उसे वह अपने साथ लिवा लायी और बड़े प्रेम से भोजन कराया।
अंत में दक्षिणा देकर, बोली--महाराज, मेरा अपराध क्षमा कीजिएगा।
मैं जाति की बेड़नी हूँ। ब्राह्मग-भोजन कराने की बड़ी इच्छा थी, इसलिए
आपको लिवा लायी। ब्राह्मण बोला--कोई बात नहीं। मैं भी भाँड़ हूँ।
ब्राह्मण का वेष बनाये फिर रहा था। सोचा चलो आज इस प्रकार ही कहीं
बढ़िया माल खाने को मिल जायगा और उसने ऊपर का दोहा कहा ।
जैसे खों तेसो मिले मिले कुलरिये बेंठ,
कानी खों कनवा मिले धर आँख पें टेंठ ।
जैसे को तैसा मिल जाता है।
जेसे गुरू तेसे चेला।
जैसे नब्बें तेसे सो।
जहाँ अधिक खर्च हो रहा है वहाँ थोड़ा और सही।
जसे नागनाथ तेसे साॉपनाथ।
दोनों एक से ।
जेंसे नेगा आज के, तेंसे नित के होयं। ..,
सदैव एकसा प्रेमभाव रखने का आग्रह।
जेंसे बाई के कोदों तेसी हींग हमार। ५
जैसा तुमने हमारे ऊपर खर्च किया वैसा हम कर रहे हैं।
“ १३७ हे
जो कोऊ ] [ बन्देली कहावत कोद्य
जैसो अन्न खाओ ऊसी (अ) ई डकार आऊत।
मनुष्य जैसा भोजन करता है उसके शरीर में वैसे ही लक्षण प्रकट होते हैं।
जेसो अन्न खाओ ऊसोई मन होत।
भोजन का मन पर प्रभाव पड़ता है।
जैसा अनजल खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी होय।
जेसो कास तेसो दाम।
काम के अनुसार दाम दिये जाते हैं।
जैसो देस तेसो भेस।
जिस देश में रहे वहाँ की रीति ग्रहण करनी पड़ती है।
जेसो नचाओ तेसो नचने।
तुम्हारे अधीन हैँ। जैसा कहोगे करना' हूँ।
जैसो भेय्या कौ मसालो, तेसोई बेन कौ बघार।
दे० जेसे बाई के कोदों।
जो आपकों न चाय, बाके बापकों न चाय;
जो आपकों चाय, बाके गुलाम कों चाय।
जो आओ है सो जे (ए)।
जो आया है सो जायगा।
जो उगो सो अथहे।
उदय के साथ अस्त भी लगा है।
, जो करऊ बरसे ऊतरा, कुदई न खाये कूतरा।
उत्तरा नक्षत्र में पानी बरसने से कोदों की फसल अच्छी होती है।
जो कोऊ जिये सो खेले होरी। ,
जो जीवित रहे वही जीवन का आनंद उठाये।
जो कोऊ हमें देसकें जरे बरे ऊकी आँखन में राई नोंन परे। -
टोटका करते समय स्त्रियाँ कहती हैं।
ह “ १३८ -
री
बन्देली कहावत कोश ] [जो जेसो
जोग में जोग मिल गओ।
जैसे को तैसा मिल गया।
जो गरजत सो बरसत नेयाँ।
जोगी कीके मीत।
जोगी किसी के मित्र नहीं होते। वे तो हमेशा घूमते रहते हैं ।
जोगी कंसी फेरी।
प्रियजनों का आना-जाना कम हो जाना ।
जोगी कौ डेरा कुमार के घरे।
जैसे की संगत तैसे के साथ ही होती है ।
जोगी जुगत सें जुग जुग जिये।
योगी संयम से रह कर ही दीर्घायु पाता है।
जो गुर खाय सो कान छिदाये।
लाभ के लिए कष्ट उठाना पड़ता हैं।
जो गल बताबवे सो आँगे होय।
जो चढ़ें सो गिरं।
जो जस कर सो तस फल चाखा।
जो जाके मन में बसे सो सपने दरसाय।
मन की बात सपने में दिखायी देती है ।
जो जामे जानें नईं सो काय खाँ जाय।
चोंच कपे में खप गई ऊपर पंख दिखाय॥
एक कौए नें किसी किलकिले को मछली का शिकार करते देखा। उसका
अनुकरण करके उसने भी पानी में डुबकी छगायी। परंतु उसकी चोंच पानी
में फेस गयी और पंख ऊपर फड़फड़ाते रह गये।
जो जेसो सो तेसो।..._ ;
जो जैसा है सो वैसा भोगेगा।
जो जसी | [ बुन्देली कहावत कोश
जो जेसी करनी करे, सो तेसो फल पाय।
बेटी पहुँची राज घर, बाबे बंदरा खाय॥
इसकी एक कथा है कि एक साथू किसी राजा की लड़की को देख कर
जस पर मोहित हो गया और उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने राजा से कहा
कि यह लड़की बड़ी कुलच्छनी है। इसे आप एक कठपघरे में बंद करके नदी
में बहा दीजिए, अन्यथा इससे आपके राज्य का नाश होगा। साधू की बात
मान कर राजा ने ऐसा ही किया। उसी नदी के किनारे जिसमें कठधरा
बहाया गया दूर जंगल में साधू की कुटी थी। इसलिए उसने सोचा था कि
कठघरा जब बहते-बहते कुटी के सामने पहुँचेगा तो उसे वह बाहर निकाल
लेगा, और इस प्रकार बिना किसी कठिनाई के उसे राजकुमारी मिल जायेगी ।
परन्तु संयोग से इसके पूर्व कि कठघरा उसकी कुटी के दरवाजे पहुँचता वह एक
दूसरे राजा के लड़के के हाथ पड़ गया जो उस समय अपने दलू-बल के साथ
जंगल में शिकार खेलने आया था। कठपघरे में राजकुमारी को बैठा देख कर
उसे बड़ा आइचर्य हुआ। उसका सब हाल सुन कर उसे तो उसने तुरन्त
अपने राजमहल में भिजवा दिया और उसके पश्चात कठघरे में उसके स्थान
पर एक भयावने बंदर को बंद करके उसे फिर ज्यों का त्यों नदी में छुड़वा
दिया | कठघरा जब बहते-बहते साधू की कुटी के सामने पहुँचा तो उसने चेलों
की सहायता से उसे बाहर निकाल लिया और चेलों से कहा कि देखो इसके भीतर
एक भयंकर भूत बंद है। रात्रि के समय कुटी का दरवाजा बंद करके मैं इसे
अपने वश में करूगा। संभव है उस समय भूत कुछ उपद्रव करे और चीखे-
चिल्लाये, तो तुम लोग इसकी कोई चिन्ता मत करना और न कुटी के पास
ही भाना। चेलों ने ऐसा ही करने के लिए कह दिया। रात्रि होते ही कुटी
का दरवाजा बंद करके ज्यों ही साधू ने उत्सुकतापू्वक कठघरे को खोला
तो उसमें से राजकुमारी के स्थान पर क्रोध से खों-खों करता हुआ भयंकर
बंदर निकल पड़ा और उस पर टूट पड़ा। कुटी के भीतर से शोरगुल और
चीत्कार की आवाज सुन कर चेल्लों ने समझा कि यह सब भूत की करामात है
इस कारण डर के मारे कोई पास नहीं आया। किसी प्रकार रात्रि बीती ।
प्रातः:काल नब कुटी का दरवाजा खोला गया तो बंदर तो निकल कर भाग
गया और चेलों ने देखा कि साधू वहाँ मरा पड़ा है।
क्र » शड४ड0०
बन्देली कहावत कोश | [ जो मोरें
जो दओ खाओ सोई अपनो॥।
जो दूसरों को दिया अथवा स्वयं खाया वही सार्थक ।
जो धन दीखे जावतो आधो दीजे बाँठ।
नष्ट होते हुए धन को बाँट देने में ही समझदारी है।
जो धावे सो पावे।
प्रयत्न करने वाले को ही लाभ होता है।
जो नजर से न मरे बो मार से का मरे ?
बेशरम के लिए प्रयुक्त ।
जो न भाव आपे, सो देय बहू के बापे।
जो वस्तु स्वयं अच्छी न छगे उसे दूसरे के मत्थे मढ़ना।
जो न मानें बड़न की सीख, ले खपरिया माँगे भीख ॥
बड़ों की सीख न मानने पर हानि उठानी पड़ती है।
जो पाँडे के पन्ना में सो जजमान के मों में।
किसी के मन की बात पहिले से ताड़ लेना ।
जो बिटियाँ सौ साठ तौऊ बाप की नाठ।
किसी आदमी के सौ बेटियाँ भी हों तो भी एक पुत्र के बिना वह निःसंतान
ही माना जाता है।
जो मूँदे कंबल के छेद । सो जाने जाड़े को भेद॥
कंबल पर एक पतला चादर भी डाल लेने से वह् अधिक गरमाता है।
जाड़ राड़ के कवन चिरउरी कम्मर पर जब होय पिछठरी ।--भोजपुरी
जो मोय जोते टोर मरोर । बाकी कुठिया देहों फोर 0
शत कहता है, जो किसान मुझे अच्छी तरह तोड़-मरोड़ कर जोतता है अन्न
से में उसका कुठला भर देता हूँ।
जो मोर है सो काऊ के नहयाँ। ४
व्यर्थ गे करना । द
- १४१ - क
जो नई | [ ब॒न्देली' कहावत को
जो मोरें है सो राजा के नददयाँ।
दे० ऊपर।
जोर जोर मर जायेंगे माल जमाई खायेंगे।
कंजूस के लिए प्रयुक्त ।
जोरा तेंगोरी कौ ब्याव, चचा लटकनियाँ।
जोड़-तँगोड़ कर किसी प्रकार तो लड़की का विवाह किया और वह कहती
है---चचा, लटकन बनवा दो !
जोरिया से ऐंठत।
रस्सी-से ऐंठते हैं। व्यर्थ अकड़ते हूँ।
जोरू चिकनी, म्रियाँ सजूर।
जिसकी स्त्री' बहुत बन-ठन कर रहती हो उसके लिए व्यंग में।
जोरू न जाँता अल्ला मियाँ से नाता।
बेफिक्र आदमी ।
जो सबकों हुइयें सो हमाओ हुइये।
जो सबका होगा सो हमारा होगा। सबके साथ हम भी परिणाम भुगतने को
तैयार हैं ।
जो हतिया पूंछ डुलाबे। तौ पेसा पइली बिकावे॥।
हस्त नक्षत्र में पानी बरसने पर रबी की फसल को लाभ होता है।
जौ घर बाबनईं बाबन खों भओ।
यह घर बाबों ही बाबों को हुआ। फिजूलखर्ची करने पर प्रयुक्त ।
जौ घर सोतनई सौतन को भओ।
दे० ऊपर।
जो नई तो और कर लओ, मोरो राम नें का कर लओ।
एक पति केश्मर जाते पर मेंने दूसरा कर लिया। राम ने मेरा क्या कर लिया ?
स्वावलंबी व्यक्ति का कथन ।
> “ रैड२ -
9
बुन्देली कहावत कोश |] । [ जौलों
जौनई दुखन मूँड़ मुड़ाओ, तौनईं दुक्ख आगे आँव।
जिस विपत्ति से बचना चाहा वही सामने आयी।
जौन गाँव जानें नईं बाकी गली का पूछने ?
जिस काम को करनता नहीं उसकी चर्चा से क्या प्रयोजन ?
जोन दुक््ख छोड़ी भेलसी, तौनईं तेली मिलौ परोसी।
दे० जौनई दुखन मुंड़ मुड़ाओ।
जौन नीम कौ कौरा, तौनई में मानत।
जिस आदमी को जैसे वातावरण में रहने का अभ्यास पड़ जाता है वह उसी में
सुखी रहता है ।
जौन रूख के जुआँ बनें तरेईं हो काय खों कड़ने।
( १-जुआ, संस्कृत युग, गाड़ी के आगे लगी हुई वह लकड़ी जो बैलों के कंधे
पर रहती है।) जिस वृक्ष की लकड़ी के जुआँ बने उसके नीचे से ही क्यों
निकलना ? अर्थात जिस आदमी को हानि पहुँचायी है उसके समीप ही क्यों,
जाना ? उससे तो बच कर रहना अच्छा ।
जौन बर देखें मोय ताप चढ़े तौनई बर ब्याहन आय।
जिस बात से चिढ़ वही सामने आयी।
जौ बौ गुर नइयाँ जिये चींठा खा जायें।
जौलों गाड़ी ढँँड़के तौलों ढड़कायें जाओ।
जब तक काम चले चलाये जाओ।
जौलों फूल केतकी तौलों बिलस करोल।
जब तक मनचाहा कार्य पूरा न हो तब तक कुछ-त-कुछ करते रहना चाहिए ।
जौलों भटा-भाजी तौलों बिरजों काकी। ह
मतलब की दोस्ती । ५
जतक्षण दूध ततक्षण पूत--बंगला
कामा पुरता मामा आणि ताकी पुरती आजीबाई--मराठी
(काम बने के मामा और मठा मिले की आजीबाई ) ।
० १४३ - ४;
से
झंडा ] [ बन्देली कहावत कोश
जौलों भूत गंगाजुए गये तौलों मरघटा जुत गये।
जब तक एक काम करने गये तब तक दूसरा चौपट हो गया ।
जौलों लरका बारे, तौलों बिगनई ।
(१-बिगनों का आक्रमण। बिगनाज-"भेड़िया।) जब तक लड़के छोटे हैं
तभी तक भेड़ियों का डर है। पास में जब तक पैसा रहता है तब तक लट-
खसोट करने वाले भी मौजूद रहते हैं ।
जौलों लालाज पाग संवारत तौलों दरबारइ उठो जात।
अवसर पर विलंब करने पर।
जौलों साँस तौलों आस ।
ज्यों केला के पात में, पात पात में पात ।
त्यों ज्ञानी की वात में, बात बात में बात ॥
ज्यों ज्यों कंचन ताइये त्यों त्यों निर्मल होय।
विपत्ति में ही सज्जन पुरुषों के गृण प्रकट होते हैं ।
ज्यों ज्यों भींज कामरी, त्यों त्यों भारी होय।
मनुष्य संसार में जितना ही लिप्त होकर रहता है उतना ही' पाप का बोझ
बढ़ता जाता हूँ ।
ज्वानी के सो यार।
ज्ञान घट जड़ मृढ़ की संगत, ध्यान घटे बिन धीरज ल्यायें।
ज्ञानी मारे ज्ञान सें रोम रोम भिद जाय।
म्रख मारे डेंडका टूट कनपटी जाय ॥
ज्ञानी सें ज्ञानी मिले कर ज्ञान कौ बात।
गद्धा सें गद्धा सिले, मारे लातईं लात ॥।
नी
स्क
झंडा गाड़बो। -
पूर्ण रूप से अधिकार करना। प्रभाव जमाना। अपनी बात ऊँची रखना ।
लि
“> शैहं्ड -+
बुन्देली कहावत कोश | [ झूंे
झरबेरी कौ काँटो।
: दुष्ट प्रकृति का आदमी। झरबेरी का काँटा अत्यन्त तीक्षण और टेढ़ा
होता है ।
श्वरे सें क्रा फेलाबो।
गड़बड़ पैदा करना ।
झललन खेती हल्लन न्याव।
अच्छी खेती के लिए थोड़ा-थोड़ा पाती और झग़ड़े के लिए शोरगृल चाहिए।
झाँसी .गरे की फाँसी, दतिया गरे कौ हार।
ललतपुर कबहुँ न छोड़िए, जब लग सिले उधार॥
ललितपुर में किसी समय रुपये का लेन-देन बहुत होता था।
झाम झंपट, घी संपट ।
डाँट-डपट कर किसी की वस्तु झपट लेना ।
झूँठइ लेता, झूँठद देना, झूंठइ भोजन, झूठ चबना।
झूठे व्यक्ति के लिए।
झूंठन के बादसा।
बहुत झठा ।
झंठी न बोलो तौ खाई रोटी न प्चे।
झूठे व्यक्ति के लिए।
झूँठे के आँगें सच्चो रो मरे।
झठे के आगे सच्चे की नहीं चलती।
झूठे ब्याव, साँचे न्याव। हु
विवाह झूठ बोल कर दी होता है। न्याय में सत्य से. काम' लेता
पड़ता है। ।
ब्रु० “२१० ;
ट्का | [ बुन्देली कहावत कोश
ट
टेंगपुछिया, उर ओछे कान । हिरन पेटिया रूपी मुतान ॥।
सींग अँगोइया चौंरी छाती । बेल न जानों बेटा हाती॥
ऐसा बैल जिसकी पछ टाँगों तक लटकती हो, कान छोटे हों, मूत्रस्थली
हिरन की जैसी, पेट से चिपकी हो, सींग आगे को मुड़े हों, और छाती चौड़ी
हो, काम करने में हाथी की तरह मजबूत होता है।
टंटो मोल ले लओ।
झगड़ा मोल ले लिया ।
टकन के चाकर।
पैसों के गुलाम ।
टकन खों न पूछे जेओ॥।
कोई टके को नहीं पूछेगा। मारे-मारे फिरोगे ।
टकसाली बात ।
पक्की, खरी बात ।
ठका घरो, पहइसा उठाओ।
ठका रखोगें और पैसा उठाओगें। उलझन में पड़ोगे ।
टका न खरचें गाँठ को नित्त बराते जायें।
मुफ्तख़ोरों के लिए ।
टका बताबो।
पैसे सीधे करना। रुपये कमाना |
टका में दका, ढका में ढका।
पैसे में पैसा आता है, विपत्ति में विपत्ति और बढ़ती है ।
टका लगे, चाय ठटाँची बिकाय। .-
(१-रुपये रखने की छंबी और पतली थैली जो कमर में रूपेटी जाती है।)
टका खर्च हो, और चाहे ठाँची बिक जाय। कुछ भी हो, काम प्रा करके
ही छोड़ा जायगा |
हे “ १४६ -
डॉ
बुन्देली कहावत कोश | [ ठाँड़े में
ढका सी सुनाबो।
खरी-खरी सुनाना |
ठका सो जवाब दे दओ।
खरी चुका दी।
टका सौ मों ले के रं गये।
चुप हो गये। कुछ कहते नहीं बना ।
टके गज की चाल चलबो।
धीमी चाल चलना । मंद-गति से काम करना ।
ठठोबे बेटी अपनो कपार।
बेटी अपना कपाल' टटोलती हैं। घर का कोई छोटा आदमी---लड़का या
लड़की, जब अपने हाथ से अपना कोई बड़ा अनिष्ट कर लेता है तब दुःख,
क्षोभ और व्यंग में कहते हैं।
टठिया, न लुटिया, खेये दार भात।
थाली न लोटा, खायेंगे दाल भात |
टठिया में खाओ, तो कई खपरा में खेयें।
थाली में खाओ, तो कहा, खप्पर में खायेंगे। हित की कहने पर कोई उल्दा
चले तब।
टठिया हिरात तौ गगरी में हात डारो जात।
थाली खोने पर गगरी में हाथ डाला जाता है। गरज पड़ने पर ऐसी जगह भी
जाना पड़ता.है जहाँ से काम पूरा होने की कोई आशा न हो ।
ठाँकी बज रई।
मकान शीक्र बन रहा दे व्यंग में ।
के
टाँड़े में हो लखरो' कड़ गईं नेकानज् कुंआँवन लगीं।
(१-लोखरी, छोमड़ी।) एक बार एक लोमड़ी बनजारों के एक दल के
बैलों के नीचे होकर खुलक कर निकल गयी । अपने इस वीरतापूर्ण कार्य के लिए
- शैड७ -“
है
ठेड़ी | | | बन्देली कहावत कोश
उसका नाम पड़ गया नैकानजू अर्थात लाँघ कर निकल जानेवाली साधा-
रण सी करनी के लिए जब कोई अपनी प्रशंसा का ढोल पीटे तब कहते है ।
टाँग तरे हो निकर जे ।
हार मान लेंगे। तुम्हारे चाकर बन जायेंगे ।
टॉयन्टॉय फिसस।
आउडंबर तो बहुत, परंतु अंत में काम कुछ नहीं ॥
ठिकली सेंदुर से गये तो का खाबे मेंई बज्ज्र परे!
बनाव-श्रृंगार की सामग्री से गये तो क्या पेट भर भोजन भी नहीं मिलेगा ?
टीप-टाप करबोौ।
बिगड़े हुए काम को इधर-उधर से बनाने का प्रयत्त करना।
दूटी तान कसौरिया प।
( १-देहाती बाजों के साज में मुदंग और इकतारे के साथ काँसे की एक कटोरी
भी रहती है, जो एक छोटी छककड़ी से बजायी जाती है। यह कसावरी कहलाती
है और उसे बजाने वाला कसौरिया।) बेसुरा तो हुआ कोई, परन्तु
सारा गुस्सा उतरा कसोरिया पर। भर्थात काम तो किसी से बिगड़ा और
उसका दोष मढ़ा गया किसी दूसरे के सिर ।
टेड़ी खीर है।
जब कोई मामला बेढब तरीके से उलझ जाय और उसे सुलझाना बहुत कठिन
हो तब कहते हैं ।
कथा---किसी' मनुष्य ने एक जन्म के अंधे से पूछा कि खी'र खाओगे ? उसने
कहा --खीर कैसी होती है ? उस मनुष्य ने जवाब दिया कि सफेद रंग की ।
अंधे ने फिर पूछा--सफेद रंग कैसा होता है ? जवाब मिला---जैसा बगला ।
अंधे ने पूछा--बगला कैसा होता है ? इस पर उस मनुष्य ने अपना हाथ टठेढ़ा
करके कहा--ऐसा होता है। उस अंधे ने टेढ़े हाथ को टटोल कर और सिर
हिला कर कैहा--नहीं बाबा, मुझसे ऐसी टठेढ़ी खीर नहीं खायी जायगी | यह
तो मेरे गले में ही अटक जायगी ।
“- रढं८ -
ल््
बुन्देली कहावत कोद | | [ ठाँड़े
टेढ़ जान संका सब काहू ।
ठ
ठंडो नहाय, तातौ खाय । ताकें बेद कबहुँ ना जाय॥।
नित्य ठंडे पाती से नहाने और गरम खाना खाने से कभी वैद्य की
आवश्यकता नहीं पड़ती ।
ठगाये सेईं ठाकुर ।
धोखा खाकर ही आदमी सयाना बनता है।
ठठेर ठठेरं बदलाई नई होत।
एक-सा काम या व्यवसाय करने वालों में आपस में लेन-देन का झगड़ा क्या ?
ठनठनपाल मदनगोपाल।
रुपये-पैसे से शून्य ।
ठवाकुरो पड़वा जबरई चोंखत।
(१-ठोकरी भैंस का पड़ा। ऐसा पड़ा जो उम्र में एक वर्ष से अधिक का हो
और जिसकी माँ ने दूध देना बन्द कर दिया हो अर्थात कम दूध देती हो । )
भैंस का एक वर्ष का पड़ा स्वाभाविक रूप से मजबूत होता है और वह
जबद॑स्ती माँ के थनों में मुँह डाल कर कुछ-न-कुछ दूध चोंख ही लेता है। अतः
जब कोई आदमी बल-प्रयोग करके दूसरे से कुछ छीन ले और दूसरा कुछ कह न
सके तब कहते हैं ।
ठाँडी खेती गाभिन गाय । तब जानों जब मों में जाय ॥।
खड़ी फसल के अनाज को घर में लाने और गाभिन गाय के दूध को प्राप्त
करने के मार्ग में सैकड़ों बातें बाधक हो सकती हैं, अत: जब ये खाने को मिल
जायें तभी समझो कि वे वास्तव में उर्त्न्न हुईं।
ठाँड़े तिलक सधुरिया बानी । दगाबाज की येई निसानी॥
दिखावदी पूजा-पाठ करने वालों पर व्यंग।
लिख रे डै९ « श्पः
औ
डंडा ] [ बुन्देली कहावत कोश
ठाँड़ो बेलखंदे सार।
बेकार बँधा हुआ बैल अपने बँधने के स्थान को ही खोदता है। निठल्ले आदमी
को व्यर्थ के उपद्रव सूझते है ।
ठाँव गुन काजर, ठाँव गुन कारख |
एक ही वस्तु स्थान के प्रभाव से अच्छी और बुरी बन जाती है। आँखों में
आँजें जाने के लिए इकट्ठा किया गया वही धुआँ काजल कहलाता है, और
वही दूसरी जगह लगने से कालिख समझा जाता है।
ठाकुर हते सो गये, ठग रे गये।
भले आदमी तो चले गये, केवल ठग रह गये ।
ठाली नाइन मुंडे पटा।
निठल्ला आदमी, यह बताने के छिए कि में बहुत व्यस्त और कामकाजी हैं,
व्यर्थ इधर-उधर का काम करता है ।
ठाली बऊ के नोंनई में हात।
दे० ऊपर।
ठाले सें बेगार भली।
(१-पा० बैठे सें।) आदमी को कुछ न कुछ करते रहना चाहिए ।
ठालौ बानियाँ का करे, जा कुठिया कौ धान बा कुठिया में घरे।
दे० ठाली नाइन ।
ठालौ बानियाँ का कर, सेर बाँठई तौले।
दे० ऊपर
डंडा सब कौ पीर है।
डंडा सबसे बड़ा है।
जिसकी छाठी उसकी भैंस ।
” + १५० -
ब॒न्देली कहावत कोश | [डुकरो
डरी डरी कार्मे आऊत।
बेकार वस्तु भी पड़ी-पड़ी काम आ जाती है।
डाँड़ी सारें साव कहावें, हर हाँके सो चोर।
चुपर-चुपर के बाबा खाबें, जिनके ओर न छोर॥
तराजू की डंडी मार कर अर्थात लोगों को धोखा देकर पैसा कमाने वाले तो
साहकार कहलाते हैं, साधू-सन्यासी, जिनके घरबार का ठिकाना नहीं, घी
चुपडी खाते हैं, और हल हाँकने वाला किसान, जो परिश्रम की रोटी खाता है,
चोर समझा जाता है।
डायन खाय तौ मों लाल, न खाय तो मों लाल ।
डायन को खाने को मिले तो रक्त से मुँह लाल रहता है, न खाने को मिले तो
गुस्से से लाल रहता है। कठोर प्रकृति के दुष्ट आदमी के लिए ।
डार के टूटे ।
ताज़े, हाल के टूटे हुए फल आदि |
डिलारो खेत सबकों परत।
ढीमें वाला खेत जोतने के लिए सबके पल्ले पड़ता है। एक पर पड़ने वाली
विपत्ति कभी-न-कभी दूसरों पर भी पड़ती है।
डींग हाँकनईं है तौ हलकी पतरी का हाँके ?
डींग हाँकनी ही है तो छोटी-मोटी क्या हाँके ?
डीलन चले तौ पाती काय पे ?
जब स्वयं ही जा रहे हैं तो पत्र की क्या आवश्यकता ? इसे कभी-कभी इस
प्रकार भी कहते है--डीलन चले तौ सँदेसो काय पे ?
डुकरो मरी सो मरीं, जम द्वारो देख गये।
एक बार किसी तरह एक आदमी से पिड छूटा, पर ह॒वेशा के लिए उसके
आने का रास्ता खुल गया ।
ढिंगां] ..._[ बुन्देली कहावत कोश
डंडा हर कौ, न बखर कौ, दायें कों ठायें टायें।
(१-ऐसा बैल जिसके सींग टूट कर गिर गये हों । २-कटी हुई फसल का दाना
निकालने के लिए उसे जमीन में बिछा कर बैलों से कुचलवाने की क्रिया । )
डंडा बैल न तो हल में जोतने के काम का होता है और न बखर में; दायें
के लिए तो टायँ-ठायें करता ही है। निकम्में और बूढ़े आदमी के लिए ।
डबा साद के रे गये।
डुबकी साध कर रह गये। चुप्पी साध ली। ऐन मौके पर गायब हो गये।
डबो बंस कबीर कौ उपज पूत कमाल। द
ऐसी अयोग्य संतान के संबंध में जिससे कुल को बद्दा छगे।
कमाल कबीर के पुत्र थे । कहते है कि वे स्देव कबीर के वचनों का खंडन
किया करते थे। कबीर जो कुछ कहते वें ठीक उससे उल्टी बात का प्रचार
करते | इसीलिए कबीर ने ऋुद्ध होकर उक्त बात कही थी।
डेरे हिरत दायनें जायें । लंका जीत राम घर आयें॥
यात्रा में यदि हिरन बायीं ओर से दाहिनी ओर जाते मिले तो कार्य सफल
होता है ।
हका में ढका लगत।
धक्के में और धक्का लगता है। हानि में और हानि होती है ।
ढब से खेती, ढब सें न््याव । ढब से होवे बढ़ें कौ ब्याव॥
ढंग से खेती, ढंग से न्याय और ढंग से ही बढ़े का विवाह होता है। तात्पर्य
यह कि इन सबमें चतुराई से काम लेना पड़ता है।
ढाक के सदऊ तीन पात।
सदा एक सी स्थिति रहना।
ढिगाँ मातनों दूर पानी दूर सातनो ढिगाँ पाती।
वर्षा ऋतु में श्रंद्रमा के चारों ओर बना प्रभा-मंडल यदि आकार में छोटा हो
तो समझना चाहिए कि पानी देर से बरसेगा और बड़ा हो तो शीघ्र बरसेगा !
५ के पुरे न
ब॒ुन्देली कहावत कोश ] | [ तंनक
ढिड़वारों मचा राखो।
व्यर्थ का झगड़ा मचा रखा है। ढिड़वारा ढेढ़ों के मुहल्ले को कहते हैं। ढेढ़
चमारों की तरह की एक छोटी जाति है। बुन्देलखंड में यद्यपि ये बहुत कम
५
हैं परन्तु यह शब्द यहाँ प्रचलित है और उसका अर्थ मूख या गँवार लगाते हैं।
ढेड ढेंडई सें मानत।
ढेढ़ ढेढ़ से ही मानता है। गँवार गँवार से ही मानता है।
ढोंगे, काय डरे भोमें, दयें हुयें कछ गों में।
चालाक और स्वार्थी के लिए कहते हें।
एक चालाक आदमी था । उसका नाम था ढोंगे । एक बार वह जमीन पर
आंधा गिर पड़ा। किसी ने पूछा--तुम इस तरह क्यों पड़े हो ? एक और
दूसरे आदमी ने उत्तर दिया--किसी मतलब से ही पड़े होंगे । बात असल में
यह थी कि वहाँ जमीन पर एक रुपया पड़ा हुआ था, जिसे उठाने के लिए वह
जान-बूझ कर गिर पड़ा था, जिसमें कोई उसे रुपया उठाते देख न ले ।
ढोर से नरंयात।
ढोर की तरह चिल्लाते हैं। किसी के बुरी तरह चिल्लाने पर।
ढोल के भीतर पोल।
बाहरी आडंबर तो बहुत पर भीतर से खोखले |
त्
तकदीर सुदी तौ सब कछू।
भाग्य प्रबल है तो सब कुछ ।
ततेया' से नचत फिरत।
(१-बरे।) बहुत व्याकुल । के
तनक को सनक करत।
थोड़े का बहुत करते हैं। बात का बतंगड़ बनाते हैं।
0 5 ध
तबा ] [ बन्देली कहावत कोश
तनक तमाख् गजब करावे, जगन्नाथ कौ भात।
जिनके पुरखन भीख न माँगी, सोई बड़ावें हात॥
तमाखू पीने वालों पर व्यंग।
तनक सी कानियाँ, सबरी रात।
किस्सा तो थोड़ा, उसमें सारी रात बिता दी ।
तनक सी किल्ली,' नो सन काजर।
(१-एक छोटा कीड़ा जो ढोरों के शरीर से चिपक कर उनका रक्त चूसा
करता है।) साधारण व्यक्ति जब कोई बड़ा आडंबर करे तब कहते हैं |
तन पे नइयाँ लत्ता, पान खायें अलबत्ता ।
घर में खाने को न होने पर भी शौक करना।
तन सुखी, तौ मन सुखो।
तपा तप रये।
भीषण गर्मी पड़ रही है। जून के महीने में जेठ दशहरा से जेठ सुदी
१५ पूर्णिमा के दिन तक कहलाते हैं।
तपे जेठ तौ बरसा होय भर पेट ॥
जेठ में खूब गर्मी पड़ने से वर्षा अच्छी होती है।
तब लों झूँठ न बोलिये, जब लों पार बसाय।
जब तक वश चले तब तक झूठ नहीं बोलना चाहिए ।
तबा की तोरी, सटेलनी' की मोरी।
(१-रोटी रखने का मिट्टी का बना बासन।) तवे पर जो रोटी सिंक रही
है वह तुम्हारी और जो बन चुकी हैं वह मेरी | स्वार्थी के लिए ।
तबा कंसी बूंद ।
शीघ्र नष्ट हो जाने वाली वस्तु ।
हे | बा
शा
क््ः
बुन्देली कहावत कोश | [तरवार
तबा पे बूँद परी और छनक गई।
ऐसे व्यक्ति के लिए जिस पर किसी बात का कोई असर न हो।
तरघुन्ना' से काम परो।
(१-ऐसा व्यक्ति जो किसी के प्रति अपनी अप्रसन्नता को मन में रखे रहे
और उसे प्रकट न होने दे।) तरघुन्ना से काम पड़ा है। ऐसे आदमी से
काम पड़ा है, जिसके मन की बात जानना कठिन है।
तर घरती ऊपर राम।
शपथ के समय कहते हैं ।
तरवन से तो दसार लगी।
तलवों से तो आग लगी है। इसके पीछे एक कथा हूँ। दो व्यक्तियों का
अदालत में जमीन का एक मामछा चल रहा था और फंसला
मुखिया के बयानों पर निर्भर करता था। जिस दिन अदालत में उसकी गवाही
होने को थी, उन दो व्यक्तियों में से एक ने उसे प्रसन्ष करने के लिए चुपचाप
उसके स्वाफ़े में एक अद्यर्फी बाँध दी। दूसरे व्यक्ति ने ताड़ लिया कि मुखिया
को रिश्वत दी गयी है। तब उसने एक के स्थान पर दस अशफियां उसके जूतों
में रख दीं। हाकिम के सामने गवाही के लिए पहुँचने पर पहिले व्यक्ति ने
अशर्फी की ओर मुखिया का ध्यान आक्ृष्ट करने के उद्देश्य से कहा --- दाऊजू,
स्वाफा में कछ लगौ है,झार के देख लओ जाय। इस पर दूसरे व्यक्ति ने तुरंत
कहा---“अरे तुम स्वाफा की लगायें फिरत | उते तरवन सें तौ दमार लगी।'
अर्थात तुम स्वाफा की बात करते हो। वहाँ तलवों से तो आग लगी है।
जब किसी मामले-मुकदमें में दो पक्षों में से एक पक्ष के लोग किसी बड़े
आदमी या हाकिम को प्रसन्न करके उसे अपने अनुकूल बना ले तब।
तरवन से लूग गई।
बात हृदय में गहरी चुभ गयी। '
तरवार कौ घाव भर जात, पे बात कौ नईं भरत।
्छ्
तलवार का घाव भर जाता है, पर बात का नहीं भरता।
आओ 3 ७ 0 हे
ताताथेई | [ बन्देली कहावत कोश
तरवार मार एक बेर, अहसान सार बेर बेर।
तलवार का घाव तो एक ही बार लगता है, और अच्छा भी हो जाता है, परन्तु
जब कोई आदमी किसी का उपकार करता है तो वह बार-बार उसका स्मरण
कराके उसे दबाता है, जिससे मन को दुःख पहुँचता है।
तरे के दाँत तरे और ऊपर के ऊपर रे गये।
तले के दाँत तछे और ऊपर के ऊपर रह गये। अर्थात कुछ बोलते नहीं
बना। चुप हो गये।
तरे कौ रोबे नई ऊपर कौ रो रो देय।
अत्याचार पीड़ित तो रोता नहीं, अत्याचारी शोर मचाता है।
तला खुदौ नह॒याँ, सगर सुसानईं लगे।
तालाब तो खुदा नहीं, और मगर पैर पसार कर सोने के लिए आ गये !
अर्थात कोई वस्तु बन कर तो तैयार नहीं हुई और चाहने वालों की भीड़
लग गयी।
तला पे जाके कोऊ प्यासो नई आऊत।
तालाब पर जाकर कोई प्यासा नहीं लछोटता।
तला में र के मगर सों बर।
किसी बड़े आदमी के आश्रित रह कर उससे ब्राई मोल नहीं ली जाती।
ताँत बाजी, राग पहचानो।
सारंगी या सितार के बजते ही पता चल जाता है कि यह कौन सा राग है।
उसी तरह किसी मनुष्य के बोलते ही उसके मन के असली भाव अथवा उसकी
योग्यता का पता चल जाता है।
ताँबे की मेख, तमासो' देख।
पैसे के जोर से संभव-असंभव सब कुछ हो सकता है। पैसा ताँबे का ही बनता
है और ताँबे की कील जितनी लंबी हो उतनी ही गाड़ते चले जाओ ।
ताताथेई मचा देबो।
ताताथेई मचा देना। उतावली पाड़ देना। आफत कर देनां।
के ४0%
बुन्देली कहावत कोश | [तिल
ताती उचेलत।
तवे पर से गरम-गरम उठाते हैं। किसी कार्य में जल्दी मचाने पर ।
तारिया दोऊ हातन से बजत।
ताली दोनों हाथों से बजती है।
ताल तो भोपाल ताल और सब तलइयाँ।
रानी तो कमदापत' और सब रजइयाँ॥
गढ़ तो चित्तौर गह और सब गहढ़दयाँ।
राजा तो छत्रद्याल और सब रजइयाँ॥
( १-छत्रशाल की रानी का ताम था।)
ताल न तलूंया, बोओ सिगारे भेय्या।
न ताल है, न तलेया, सिंघाड़ों की खेती करेंगे ! उपयुक्त साधन के बिना काम
करना हँसी की बात है।
तित चोर सो बज्ज्र चोर।
जैसा तिनका चुराने वाला छोटा चोर, वैसा बड़ा चोर। चोर तो हर हालत
में चोर कहलायेगा।
तिरिया चरित जानें नह कोय । खसम मार के सत्ती होय॥।
स्त्रियों के चरित्र को जानना कठिन है।
तिरिया तो में तीन गुन, औगुन हें लख चार।
मंगल गावे सत रचे, कोखन उपजें लाल ॥
तिरिया रोवे पुरुष बिना । खेती रोबे सेह बिना ॥
पुरुष के बिना जैसे स्त्री का जीवन व्यर्यू है वैसे ही वर्षा के बिना खेती व्यर्थ
होती है ।
तिल कौ ताड़ बनाबो। ;
छोटी सी बात को बहुत बढ़ा कर कहना । .
“_ १५७ -
तीन-पाँच | [ बन्देली कहावत कोश
तिली, तमाख्, सावनी । फिर सन समझावनी॥
तिली और तमाखू सावन म ही बो देना चाहिए। बाद में बोना तो मन
समझाना है।
तीजे चाँवर सीजें । चौथे लोक पतीजें॥
तीन दिन में कड़े चावल मुलायम हो जाते हैं और चार दिन में कठोर हृदय
का मनुष्य भी पसीज जाता है।
तीतर के मो रूच्छमी।
तीतर की वाणी सफल हो ! अथवा क्या पता तीतर क्या कहे ? उसके मुंह
में तो लक्ष्मी का वास है ।
जब किसी अदालत में अथवा व्यक्ति विशेष के पास से किसी महत्त्वपूर्ण
निर्णय की प्रतीक्षा की जा रही हो तब कहते हैं| तीतर की बोली शुभ मानते
हैं, और यह विश्वास किया जाता है कि उसकी बोली सुनने से यम भाग जाता
है। उसी से कहावत बनी है।
तीनऊँ पन ऐसेई गये परत पराई पौर।
जो व्यर्थ अपना जीवन नष्ट करे उसके लिए ।
तीन कोस लों मिले जो काना, तौ फिर लौट घर आना।
यात्रा में काने का मिलना शुभ नहीं मानते । तीन कोस चल चुकने के पदरचात
भी यदि उससे भेंट हो जाय तो लौट कर घर आ जाना चाहिए।
तोन तिकट महा बिकट।
तीन एक से धूत्ते आदमी इकट्ठे हो जाय॑ँ तो उनसे पार पाना कठिन होता है ।
तोन-तेरा होबो।
तितर-बितर होना ।
तीन-पाँच करबो।
घुमाव-फिराव की बात करना। हुज्जत करना।
प्र पक १ ५८ 2
जठाम
0]
बुन्देली कहावत कोश | [ तीन में
तीन पाख दो पानी । जे आईं कुटक दे रानी ॥
कोदों, समा की तरह कुटकी वर्षा ऋतु में होने वाला एक हलका खाद्यान्न
है। अन्य सब अनाजों की अपेक्षा उसकी फसल शीघ्र आ जाती है। वर्षा
ऋतु में दो बार पाती बरसा नहीं कि तीन पखवारे में वह कटने योग्य हो जाती
है। कहावत में यही कहा गया है।
तीन बराती, नौ पौनया ।
( १-पहुनई करने वाले, मेहमान ।) बराती तो केवल तीन, और उनके साथ
मुफ्त की रोटियाँ तोड़ने वाले नो !
जब किसी उत्सव आदि में प्रमुख आमंत्रित व्यक्तियों की अपेक्षा इधर-
उधर के फालतू आदमियों की संख्या अधिक हो ।
तीन बुलाये तेरा आये।
एक को बुलाने पर जब चार आ जायें तब कहते हैं ।
तीन बुलाये तेरा आये, देखो यहाँ की रीत।
बाहर के आके खा गये घर के गावें गीत।.
तीन बुलाये तेरा आये, हुई राम की बानी।
राम भगत ये भमणे के दे दाल में पानी।
तीन में घंटा चले, तीन में तलवार।
तीनइ में पेना चले, आलीपुर दरबार।
(१-बैल हाँकने की नुकीली लकड़ी।) आलीपुर राज्य में तीन ही रुपया घंटा
बजाने वाले पुजारी को, तीन ही तलवार चलाने वाले सिपाही को और तीन.
ही हरवाहे को मिलते हैं। ऐसा अंधेर वहाँ है। दे० घर के जान ।
तीन में न तेरा में।
ऐसा व्यक्ति जो किसी गिनती में न हो । कहावत का प्रयोग ऐसे अवसर पर होता
है जब किसी आदमी की कोई वक़्त न हो, परन्तु फिर भी बिना पूछे वह बीऋ
में अपनी राय देने के लिए आ जाये।
तीन में न तेरा में मुदंग बजावें डेरा सें। *
ऐसा व्यक्ति जो सबसे अलग हो, अथवा जिसे कोई पूछे नहीं। इसः
- १५९ - |
#
तुम ] [ बुन्देली कहावत कोश
कहावत की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं (देखिए 'सरस्वती'
जनवरी, १९५९ में मेरा लेख ) बुन्देलखंड में प्रचलित कथा इस प्रकार है :---
एक बार बानपुर के महाराज मर्दनसिंह ने यज्ञ किया । ठाकुरों में बुन्देला, पवार
और धँंधेरे ये तीन कुरी वाले श्रेष्ठ माने जाते हें। इनके अतिरिक्त तेरह कुरी
के ठाकुर और होते हैं। उक्त यज्ञ में इन तीन और तेरह कुरी के ठाकुरों को.
छोड़ कर एक ऐसे सज्जन पधारे जो इन सबसे बाहर थे और एक साधारण
कुरी के समझे जाते थे। यज्ञ के भोज में यह समस्या उपस्थित हुई कि अन्य बड़ी
क्री के ठाकुरों के साथ उनको कहाँ और किस प्रकार बिठाया जाय ? बहुत
सोच-विचार और जिदम-जिहा के पश्चात अंत में निरचय यह हुआ कि उनको
डेरे पर ही रखा जाया और वहीं उत्तके लिए भोजन आदि की व्यवस्था कर
दी जाय। ऐसा ही किया .गया। तभी से उन सज्जन को लेकर कहावत
चल पड़ी कि तीन में न तेरह में, मृदंग बजावें डेरा में।'
. तीच लोक से मथुरा न्यारी।
अनोखी चाल' चलना ।
तीरथ गयें मुड़ायें सिद्ध ।
बाहर जाने पर कोई ऐसा काम सामने आ पड़े कि उसे करने का फिर अवसर
न मिले तो उसे कर ही डालना चाहिए, भले ही उसमें कुछ खर्च हो ।
तुम कौन तोप के मोरा सें बाँध के उड़ा देओ ?
तुम. हमारा क््या' कर लोमें
तुंम जाओ अंग्गम, तौ हम जेयें पच्छम ।
तुम जाओ पूर्व, तो हम जायेंगे पच्छिम । तुम जो कहोगे हम ठीक उससे उल्टा
करेंगे । किसी की नेक सलाह न मानने पर कहते हैं ।
तुम जानों, तुमाओं काम जानें। ४
जब कोई किसी का कहना न मानें और अपने मन की करे ।
तुम डार डार, 'हम' पात पात। ही
' अर्थात हम तुम्हें खूब जानते हैं। तुम थोड़े चालाक हो तो हम तुमसे बढ़ कर हैं।
+ १६० -
5
बुन्देली कहावत कोश | [ बुमाये
तुम हमाई न कओ, हम तुमाई न कयें।
समान व्यवहार के लिए।
तुमाओ मों नई बसात।
झूठे के' लिए कहते हें ।
तुमाओं सो हमाओ, हसाओ सो हैं हें !
ऐसे आदमी के लिए जो अपने मतलूब की ही बात करे।
तुमाओ ईमान तुमाये संगे।
तुम्हारा ईमान तुम्हारे साथ । अर्थात् हम तुम्हारी बात का विश्वास करते
हैं। भले ही हम धोखा खा जायें।
तुमाई मताई ने मुंस करो, बुरई करी; कई छोड़ दओ, और ब्रई करी।
तुम्हारी माँ ने खसम किया, बुरा किया, कहा--छोड़ दिया, और बुरा किया ।
हर काम सोच-समझ कर ही करना चाहिए। किसी काम को करके पीछे
हटना मूर्खता है।
तुमाये चाठे तौ रुआँ नई जमत।
तुम्हारे चाटे हुए तो रोम नहीं जमते। तुम जिस पर कृपा करते हो उसका
सत्यानाग ही होकर रहता है। व्यंग में।
ढोर स्नेहवश अपने बछड़ों को जीभ से चाटा करते हैं। उसी से कहावत बनी ।
तुमाये जेसे तौ हमाई अंटी' में बेंदे।
(१-गाँठ ।) अर्थात् हमें तुम्हारी परवाह नहीं।
तुसाये जेसे सेकरन देखे।
दे० ऊपर।
तुमाये मठा की तो आय कड़ी बगरवाई।
तुम्हारे मठे की तो हमने कढ़ी तैयार करायी है! अर्थात् हम क्या तुम्हारा
मठा लेने गये थे ? व्यर्थ का अहसान जताये जाने पर कहते हें ।
तुमाये मों में घी सकक्कर ! 5
शुभ समाचार सुनाने वाले को आशीर्वाद ।
“- १६१ .-
११ हि
तुलती | [ बुन्देली कहावत कोद
तुर्मे रिसानी हमें पुसानी।
तुम रूठ गये तो अच्छा ही हुआ, हमें भी तुमसे छुट्टी मिली ।
तुरत दान, महा कल्यान।
किसी को कोई वस्तु देनी ही है तो फिर तुरंत दे देनी चाहिए।
| तुरत सजूरो, चोखो काम।
मजदूर की मजदूरी तुरंत देने से काम अच्छा होता है।
तुलसी अपने राम कों रीध्ष भजौ के खीज।
उलटो सूदों जामहै खेत परे कौ बीज॥
तुलसी इक दिन बे हते माँगें मिले न चन।
किरपा भई भगवान की, लचई दोनों जून॥
तुलसी कबहुँ न जाइये जनमभूम के गाँव।
दास गये, तुलसी गये, धरो तुलसिया नाँव॥
तुलसी जग में आयके सबसे मिलिये घाय।
को जानें किहि भेष में नारायत सिलि जाय॥
तुलसी जग में आय के जग हाँसो तुम 'रोय।
ऐसी करनी कर चलो पाछे हँसे न कोय॥
तुलसी तीन प्रकार तें हित'ः अनहित पहचान ।
परबस परे, परोस बसि, परे मामला जान॥श
तुलसी दया न छॉड़िये जब लग घंट में प्रान।
कबहूँ दीन दयारू के भनक परेगी कान॥
तुलसी धीरज के धर कुंजर मन भर खाय।
टूक टूक के कारने स्वान घराँघर जाय॥
तुलसी पैसा पास कौ, सब से नीक्ौं होय।
होते के बहिन उर बाप हूँ, अनहोते की जोय ॥
तुलसी बुरो न “मानिये जो गँवार कहि जाय।
सावन कंसो नरदवा बुरो भलो बह जाय॥
हे बा
कलाम
बन्देली कहावत कोश | [ तेल
तुलसी था संसार में भाँत भाँत के लछोग।
सब सें हिल मिल चालिये नदी नाव संजोग॥
तेजाब के डबे हें।
खूब खरे रुपये हैं। तेजाब में ड्बो कर उनकी परीक्षा कर ली गयी है।
व्यंग में ऐसे आदमी के लिए प्रयुक्त जो खूब घिसा-पिसा और अनुभवी हो ।
तेते पाँव पसारिये जेती चादर होय। |
सामथ्ये के अनुसार ही कार्य करता चाहिए।
तेल जर, बाती जरे, नाव दिया कौ होय ।
कृष्ट उठा कर काम कोई करे, यश किसी को मिले |
तेल जर सरकार को, मिर्जा खेले फाग ।
दूसरे के पैसे पर मौज उड़ाना।
. तेल तो तिलनई में से निकरत।
मुनाफा तो मुनाफे वाली वस्तु से ही उठाया जा सकता है।
तेल देखो, तेल की धार देखो।
किसी काम में जल्दी करना ठीक नहीं। धैयें-पृवंक परिणाम की प्रतीक्षा
करनी चाहिए।
इसकी एक कथा है कि किसी राज कुमार के चार मित्र थे, सिपाही, ब्राह्मण,
उठेरा और तेली। पिता की मृत्यु के बाद जब वह गद्दी पर बैठा तब उन चारों
को उसने अपना मंत्री बनाया। निकट के राजाओं ने उसे इस प्रकार
मूर्ख मंत्रियों से घिरा देख कर उस पर चढ़ाई कर दी। राजकुमार ने
चारों मंत्रियों को बुलाया और इस विषय में अपनी-अपनी सम्मति देने को
कहा। जो सिपाही था उसने तुरंत युद्ध करने की सलाह दी। ब्राह्मण देवता ने
कहा---व्यर्थ की मार-काट में क्या रख्य। जैसे बने संधि कर लेनी चाहिए।
उँटेरे ने कहा--जल्दी किस बात की। देखिये ऊँट किस करौंटा बैठता है।
तेली ने भी इसका समर्थन किया और कहा--घबड़ाइए त्ञहीं, अभी तेल
देखिए और तेल की धार देखिए। क्या पता क्या हो।
मतलूब यह कि जो जिस प्रवृत्ति का था उसमे वैसी बात राजा से कही।
न-्रै धह््३ ब््न
त्रेली | [ बुन्देली कहावत कोश
तेल न ताई,' लगुन द॑ लिखाई।
( १-तैय्या, जलेबी, मालपुआ आदि बनाने की कढ़ाही।) न तो तेल है
और न कढ़ाही, विवाह की लरूग्न-पत्रिका लिखवा ही दी। उचित प्रबंध के
बिना काम करना।
तेल न फलेल मंगौरा' बनें।
( १-मसाला मिली हुई मूँग की पीठी की गोल टिकियों को तल कर बनाया
गया पकवान । )
तेल में कारों है।
कुछ गड़बड़ है।
तेलिन से घोबिन का घट ?
तेलिन के पास तिली कूटने के लिए मूसल होता है और धोबिन के पास कपड़े
पीटने के लिए मोंगरी, कौन किस बात में कम ?
तेली के भौत तेल होत तौ का पार चुपरत ?
तेली के बहुत तेल होता है तो क्या पहाड़ चुपड़ता है? कोई अपना पैसा
व्यर्थ ख़्चें नहीं करता ।
तेली के बेल कों घरईं में पचास कोस की सजल।
तेली के बेल हो गये।
दे० कोतर के बेल। बहुत परिश्रमी हो गये।
तेल्ी. कौ काम तसोली करे, बारा बरस लों गड़ा में पर।
जो काम जिसके करने का है उसे वही ठीक ढंग से कर सकता है। दूसरा
करे तो हानि उठाता है:।
तेली कौ बेल बना राखो।
रात दिन काम लेते हैं।
तेली कौ बल मरे कुसारिन सती होय।
झूठी लल्लो-चप्पो करने पर।
#२ दे है 25
बुन्देली कहांव॑त कोगें ] [ थूँकर्ने
तेली रोबे तेल कों, मकसुदन रोवें खरी कों।
सबको अपने स्वार्थ की चिन्ता रहती है। मकसूदन (मधघुसूदन) नाम
का कोई आदमी तेली के पास तिली पिरवाने के लिए ले गया। परन्तु उसे
तेल के साथ खली वापिस नहीं मिली। दूसरी और तेली का यह कहना था
कि मधुसूदन के पास तेल अधिक पहुंच गया। खली किस बात की लौटायी
जाय ? इस तरह अपनी-अपनी जगह' दोनों रोते रहे ।
ते भोरे घृंघट की राख तो में तोरी मूंछन की राखों।
तुम मेरी बदनामी न करो तो मैं तुम्हारी बदनामी भी नहीं करूँगी। परस्पर
व्यवहार की बात।
तोय बिरानी का परी, अपनी तो निरबेर।
दूसरों की फिक्र न करके अपना काम देखो ।
तोसा' सो भरोसा ।
( १-तोशा, फा० तोश:, कलेवा, पाथेय।) गाँठ का पेसा वक्त पर काम
आता है।
थ
थर न थराई, हरामजादी कुआई। क्
किसी काम में एहसानं की जगह व्यर्थ अपयश हाथ लगना ।
थुरमोल् और दुधार, लमथनू और नेनवार।
गाय सस्ती हो और दुधार भी हो, लंबे थनों की हो, और अधिक घी वाली हो ।
जब कोई कम दामों में बढ़िया चीज़ लेना चाहे तब कहते हैं।
थृंक को नदियाँ पेरत।
झंठ बोलते हैं।
थूंकर्क चाटते ।
कह कर मुकर जांतें हैं ।
थृंकन सतुआ सानत। ५
थोड़े खर्चे में बड़ा काम केरना चाहते हैं।
- शैक५ - है
दई ] | बुन्देली कहावत कोश
थेलियाँ सिमा राखो। क्
थैलियाँ सिला कर रखो। अनुचित माँग करने पर व्यंग में ।
थोथा चना बाजे घना।
निकम्मा आदमी बकवाद बहुत करता है।
थोरी कई कबीरदास, भौत कई संतन।
कबीर ने थोड़े में ही. सब कुछ कह दिया। दूसरों ने उसे और बढ़ाया।
थोरी कर सो अपन कों, भौत कर सो गेर कों।
खेती थोड़ी ही अच्छी होती है। बहुत करने से उसका सभालना कठिन होता
है।
थोरे में मजा हैं ।
कोई भी वस्तु थोड़ी खाने में अच्छी लगती है। किसी से थोड़ी बात करने
में ही सार है।
थोरो थोरो सब खाने आऊत।
थोड़ा-थोड़ा सभी चीजों का स्वाद लेना चाहिए।
थोरो पड़े सो हर से गये । भौत पड़े सो घर से गये ॥
किसान का लड़का पढ़ा अच्छा नहीं। थोड़ा पढ़े तो स्कूल की हवा लग जाने
से खेती के काम का नहीं रहता, और बहुत पढ़ जाय तो नौकर होकर घर से
बाहर चला जाता है। वत्तेमान शिक्षां-प्रणाली पर ब्यंग।
द्
देतला खसम की हाँसी, न साँसी ।
( १-दँतुला, बड़े दाँतों वाला, जिसके दाँत सदेव बाहर निकले रहते हों।
२-साँची, सच्ची, वास्तविक बात।) जिस आदमी की मुखाकृति सदैव
एक सी बनी रहें उसके मनोभाव को समझना कठिन होता है।
दई के धोकें चूना खा गये।
ठगे गये। लाभ की आशा से काम करने पर उल्टी हानि उठा गये ।
हु 2० पक
बन्देली कहावत कोश | [ दच्छया
दई-दुआई खरी न खाय। पाछें कोल चाटठन आय।॥।
बेल दी हुई खरी तो नहीं खाता, पर बाद में कोल्हू चाटता फिरता है। प्रायः
लोग कहने और मनाने से काम नहीं करते। अपने आप फिर वहीं
काम भले ही करें।
दई परोसत खोंप छूगी।
सुकुमारता की हद । अथवा कोई अच्छा काम करते हुए बुराई पैदा होना।
दई में मुसर पटक दओ।
शुभ कार्य में विष्न डाल दिया। बना बनाया काम चौपट कर दिया।
दगे साँड हैं ।
नंबरी साँड़ हैं। बदनाम या चलते-पुर्जे आदमी के लिए कही हैं।
दच्छया' लेबो तौ आसान, पे सीदो देबो कठिन।
( १-दीक्षा, गुरुमंत्र । २-ब्राह्मण को दक्षिणा के रूप में दी जाने वाली भोजन
की बिना पकी सामग्री ।) किसी काम की जिम्मेवारी ले लेना तो आसान
है, पर उसका निबाहना कठिन है।
इसकी एक कथा हे--एक बार एक अहोीर ने किसी ब्राह्मण से दीक्षा
लेने का विचार किया। इसके लिए उसने एक पंडित को बुलाया।
पंडित ने कहा--अच्छी बात है। हम दीक्षा देने को तैयार हैं।
परन्तु हम जैसा कहें वेसा करना। अहीर इस पर राजी हो गया।
पंडित दूसरे दिन ही दीक्षा देने आया। अहीर से उसने कहा--बैंठ
पटा पै। अहीर ने कहा--बैठ पटा पै। पंडित ने कहा--तुम बड़े मू्े
हो। अहीर बोला--तुम बड़े मूर्ख हो। पंडित ने क्रोध में आकर अहीर को
एक थप्पड़ जमा दिया। और कहा बदमाशी करते हो। अहीर ने उठ कर
पंडित को थप्पड़ जमाना शुरू किया। अब दोनों में घंटों युत्यम-गुत्था होती
रही। अंत में पंडित किसी प्रकार जान बचा कर घर आया। वहाँ उसकी
स्त्री राह देख रही थी कि आज पंडित जी दीक्षा देने गये हैं, खूब दक्षिणा
मिलेगी । परन्तु पंडित जब घर पहुँचे तो उनकी दशा देख कर वह सन्न होकर
रह गयी । इधर अहीर को ध्यान आया कि पंडित जी दीक्षा दैकर तो चले गये
परन्तु उनका सीदा तो यहीं रखा रहा। अतः उसने अपनी स्त्री से कहा कि
लगा
ब्न्न १ ् ५
दम ] | बन्देलीं कहावत कोश
तुम पंडित जी के घर जाकर सीदा दे आओ। स्त्री सीदा लेकर चली। इधर
पंडितानी क्रोध में भरी तो बैठी ही थीं। जैसे ही अहीरिन सीदा लेकर पहुँची
उन्होंने उसे मारना शुरू कर दिया। अहीरिन बेचारी किसी प्रकार भाग कर
घर आयी। अहीर ने पूछा--प्तीदा दें आयी ? अहीरिन ने कहा--दच्छया
लेता तो आसान, परन्तु सीदा देना कठिन है। तुम सीदा देने गये होते तो
पता चलता।
ददा की दोई मीठी।
सब ओर से अपना लाभ चाहने वाले के लिए ।
दह्ा तुमने लाख कई, हमने एकऊ नई मानीं।
ह॒ठधर्मी करने पर।
दद्दा, हम पाँव सिकोर के उमानों दे आय; कई, तौ बेटा कौन सुख सें पेर लई।
किसी किसान का लड़का अपने जूतों का नाप देने के लिए गया । अपनी समझ
में वह बड़ा होशियार था। यह सोच कर कि जूता छोटा बनने से दाम भी कम
देने पड़ेंगे, नाप देते समय पैर सिकोड़ लिया। घर आकर बाप से कहा कि, दद्दा
हम पैर सिकोड़ कर नाप दे आये हैँ। उत्तर में बाप ने कहा--तो बेटा, जूते
पहिन कर कौन सा सुख उठा सकोगे ?
बहुत चतुराई से भी कभी-कभी हानि होती है।
दहा, दार रोटी।
बार-बार एक ही बात कह कर किसी को तंग करना ।
दबो बानिया देय उधार।
दबा हुआ बनिया उधार देता है।
दन भदार, पेले पार।
लड़कों को किसी काम के लिए प्रोत्साहित करने अथवा किसी कठिन कायें के
पूरा हो जाने और उससे मुक्ति पाने पर प्रयुक्त ।
कहते हैं कि मकनपुर के पास, जहाँ मदार साहब की समाधि है, एक छोटा
नाला है। थात्री लोग उसे लाँघते समय उपर्युक्त वाक्य का प्रयोग करते
हैं, जिसने अब कहावत का रूप धारण कर लिया है। दे० गंगा की गेल।
श्
-“ १६८ -
बन्देली कहावत कोश] [दर्जी
दस भाई किसके, दम लगाई खिसके।
अपना मतलब गाँठ कर चल देने वालों के लिए कहते हैं।
दम भाई सो निज भाई, और भाई सो सठर-पटर।
एक जगह इकट्ठे होकर बैठने वाले शराबियों और मदकचियों के लिए ।
दमरी की घुरिया, नौ पसेरी दानों।
जितने का माल नहीं, उतने से अधिक उस पर खर्च ।
दमरी की दार को नौ दमरी लगतों ।
कोई वस्तु भले ही सस्ती हो, परन्तु उसके उचित उपयोग अथवा रख-रखाव में
प्रायः दुगुना-चौगुना पैसा खर्च हो जाता है।
दसरी की दार न्यारी न््यारी दार।
सहयोग से काम न करता। अपनी डेढ चावल की खिचड़ी अलग पकाना।
दमरी की बछिया जनस की ह॒त्या।
सस्ती वस्तु अंत में महंगी और कष्टदायक सिद्ध होती है।
दसरी की भाजी, घर भर राजी।
भाजी की प्रशंसा, जो सस्ती और सुलभ होती है। कंजूस के लिए भी व्यंग में।
दमरी के पान बनेनी खाय, कओ राम घर रये के जाय ?
किसी कंजूस के घर का आदमी फिजूलखर्ची करे तो केसे काम चले ?
व्यंग में ।
दमरी के हानें दस चक्कर लूगाउत।
लेन-देन के मामले में बहुत चौकस ।
दर्जो के काज-बटन, सुनार की खटाई।
बरेदी की आई और कुरिया की पाई॥।
दर्जी कपड़ों की सिलाई के मामले में कौज-बटन का, सुनार गहनों के मामले
में खटाई में पड़े होने का, बरेदी दूध के लिए गाय के आने का, और कॉरी
बुनाई के विषय में तानें-बाने के तैयार होंने का विलंब बतां' करे ग्राहकी कीं
टरकाता है ।
जल एक
#
दाँत] [बुन्देली कहावत कोद
दसरये के नीलकंठ।
ऐसा व्यक्ति जो बहुत कम दिखायी दे। किसी प्रिय मित्र से बहुत- दिनों
बाद भेंट हो तब कहते हैं।
दशहरे के दिन प्रातःकाल नीलकंठ के दर्शन शुभ माने जाते हैं। लोग उसे
पेड़ों और झुरमुटों में इधर-उधर खोजते फिरते हैं और देव-संयोग से ही
उसके दर्शन होते हैं।
दुरयो फिरत कृत द्रुमन में नीलकंठ बिन काज।
काल दशहरा बीति है धर मूर्ख हिम लाज ।--भनीस
दाँत काटी रोटी।
घनिष्ठ मित्रता ।
दाँत खट्टे होबो।
खूब हैरान होना। लड़ाई या प्रतिद्वंद्विता में परास्त होना ।
दाँत गिनाबो।
निर्धनता या निरीहता दिखाना ।
दाँत गिरे उर खुर घिसे, पीठ बोझ नहिं लेय।
एसे बूढ़े बल कों, कौन बाँध भुस देय॥॥
बूढ़े बैल के सम्बन्ध में।
दाँत चना बीनबो।
ठोकर खाकर गिरना, दाँत टूटना, मुँह की खाना ।
दाँत तिनका दाबबो।
दया की भीख माँगना; क्षमा याचना करना; हा-हा खाना ।
दाँत से कोंडो उठाबो।
अत्यधिक कंजूसी करना। ४
दाँत दाँत तुम बत्तीस । हमरी तुमरी कौन रीस॥
हम कमायें तुम येठे खाओ । मरती बेराँ संग न जाओ॥
दाँतों के संबंध में बूढ़े आदमियों का कथन ।
कुछ
बुन्देली कहावत कोश | [ दाव-खाज
दाँतन पसीना आ जेय।
दाँतों पसीना आ जायगा। अत्यन्त परिश्रम-साध्य कार्य के संबंध में।
दाँता-किठकिट करबो।
व्यर्थ की बकवाद करना, तके-वितर्क करके परेशान करना |
दाँती करबो।
दे० ऊपर।
दाई मीठे, ददा मीठे, किरिया की की खाँव।
. असमंजस में पड़ के कोई काम न कर सकना |
दाई हो मीठी, ददा हो मीठी तो सुर्गे कौन जाये।
दाता के घर लच्छमी, ठाँड़ी रहत हजूर। ..
जेसें गारा राज कों, भर भर देत सज्र ॥
(१-कारीगर |)
दाता दानी सूर नृप, मंत्री बेद सचान।
जे सब निर्भय चाहिये, जामिन' जुआ किसान ॥।
(१-ड्येत पक्षी, बाज़॥ २-जामिनदार )
दाता देय भंडारी कौ पेट फटे।
मालिक तो देने का हुक्म दे, परंतु खजांची को दुःख हों कि क्यों दिया जा
रहा है। दानपुण्य के कार्य में जब कोई बाधक बने, अथवा दूसरे को देने से
मना करे तब।
जाणारथाचें जातें आणि कोठारथाचें पोट दुखतें ।--मराठी
(देने वाले का तो पैसा खर्च हो और कोठे वाले का पेठ दुखे। )
दाता से सुम भलो तुरतई देय जुवाब।
देने का वचन देकर जब कोई बहुत टरक्यये तब। .
दाद-खाज उर सेउआ बड़भागी के होयें।
परे खुजाबें खाट पे, बड़ आनंदी होयें॥ ४ *
खाज-पग्रस्त लोगों से व्यंग्य में ।
बन १ 9 जी
दाना-पानी ] [ बुन्देली कहावत की
बाद खाज सेउआ एक कोढ़ जेऊआ।
दाद, खाज, और सेहुआ भी एक प्रकार का कोढ़ ही है।
दादा परदादा के राज की बाते करबो।
पुराने जमाने के भले दिनों की व्यर्थ चर्चा छेड़ना ।
दादू दो-दो ना बनें जा ले बा ले डार।
एक समय में एक ही काम अच्छी तरह हो सकता है।
दान को बछिया के कान नई होत।
दान में मिली वस्तु प्रायः निकम्मी होती है।
दान की बछिया के दाँत नईं देखे जात ।
मुफ्त की चीज के विषय में क्या देखना कि कैसी है? जैसी मिले वैसी ही
अच्छी ।
धरमरी गायरा दाँत डाढ़ काँई देखणा--राजस्थानी
धर्माची गाई दाँत कांगे नाहीं--मराठी
धरमनी गाय ना दांत शा जोवा--गुजराती
दान दीन कों दीजिये मिट दरद की पीर।
ओखद ताकों दीजिये जाके रोग शरोर॥
दान, भारो, दच्छना; इनमें उधार को काम ना।
दान, भाड़ा, और दक्षिणा, इनका उधार ठीक नहीं।
दान में से दान देय, तीन लोक जीत लेय।
दान में मिले हुए पैसे में से जो व्यंक्ति दूसरों को दान दे उससे बढ़ कर संसार
में कोई नहीं ।
दाना देयें न घास, खुरोरों छः छः बेर।
झूठी सेवा-सुश्रूषा करना। आवश्यक वस्तु न देकर अनावश्यक वस्तु बार-
बार देना ।
दाता-पानी की:बात है। क्
सब अन्न-जल के अधीन है। वह जहाँ चाहे वहाँ ले जाय ।
की
बम र् हु] २ कि
बुन्देली कहावत कोश ] [ दिन
. दाम करे कास।
सब काम पैसे से ही होता है।
दाम देओ गन्नेटी खाओ । दूर पछकिया' जी से जाओ॥ |
( १-मेले-तमाशे में रूगने वाले चक््करदार हिंडोले की पालकी ।) गाँठ के दाम
दो और चक्कर खाओ, पालकी टूटे तो प्राणों से हाथ धोओ; ऐसे हिंडोले
में बैठने से लाभ क्या ? किसी काम में पैसा खचे करके लोगों की ऐंचातानी
भी सहना पड़े तब कहते हैं।
दाम न छिदाम, मिठाई देखें रो रो आवे।
पैसे के बिना किसी वस्तु को लेने की इच्छा करना ।
दार भात में मूसरचंद।
दो आदमियों की बात में तीसरा व्यर्थ हस्तक्षेप करने पहुँच जाय तब ।
दार, भात, रोटी और बात खोदी।
पेट का धंधा ही संसार में मुख्य है।
दिखनारीं दायजें नई आउतोीं। ु
यदि कोई चाहे कि दहेज के साथ वे स्त्रियाँ भी मिल जायें जो उसे देखने आती
हैं, तो यह संभव नहीं।
दिन कों बादर रात कों तारे। चलो कंत जहें जीवें बारे ॥
वर्षाऋतु में दिन में यदि आकाश में बादल घिरे रहते हों, और रात में तारे
निकल आते हों, तो फिर समझना चाहिए कि पानी नहीं बरसेगा और
अकाल पड़ेंगा।
दिन तेर करबो। डे
किसी प्रकार दिन काटना ।
दिन भरबो। हे
दे० ऊ०।
के
- १७३ -
दुकात ] [ बन्देली कहावत कोश
दिन भर नायें मायें, जुंदंयन कपास बीलनें।
दिन भर तो इधर-उधर घू्में और चाँदनी में कपास बीननें जायेँ। ठीक समय
पर काम न करना।
दिन भर नायें मायें, रात में उलहरों क््यायें ?
दिन में इधर-उधर घूमें और रात में कहें कि में लेट कहाँ ? घर का कोई
काम-धंधा न देखने वाले, आवारा और मटरगरती करने वाले लड़कों के
लिए।
दिया तर अँधियारो।
जहाँ विशेष प्रबंध और विचार की आशा हो वहाँ ही अंधेर होने पर ।
विवारी के चोंखें पड़ा मोंटो नईं होत। द
दीपावली के दिन माँ का दूध चोंखने से पड़ा मोटा नहीं होता। एक दिन
अच्छा भोजन कर लेने से कोई तगड़ा नहीं हो जाता ।
दीपावली के दिन ढोरों की पूजा होती है। गाय या भेंसों को दुह्म नहीं
जाता अपितु उनका सब दूध बछड़ों को पिला दिया जाता है। उसी से
कहावत बनी।
दीनदुनिया की खबर नहइयाँ।
: किसी बात का पता न रखना। काम काज से बेखबर रहना ।
दुअन में दो कोंडी घरबो।
कौड़ी के खेल में दो का दाव लेने वाले को दो कौड़ी और रख दी गयीं ! हानि
की समस्या तैयार हो गयी। झगड़ों को बढ़ा देने के अर्थ में प्रयुक्त ।
ढुआरे को चार, बीच कौ लेखो।
हारपूजा के समय मध्य का लेखा। बे अवसर का काम।
दुआर धनी के पर रहो, धका धनी दो खाव।
इक दित ऐसा होयगो, आप धनी हो जाव।॥।
दुकान कों एक घड़ी कों भूलो, तौ दुकान कये में तोय सब दिन कों भूलों।
दूकान पर हमेशा बैठा रहना चाहिए पता नहीं ग्राहक कब आ जाय।
- १७४ --
बुन्देली कहावत कोश ] | दृदन
दुकानदारों लरम की, बहु बिटिया सरम की, सिपाईगिरी गरम की।
दुकानदार तो वही जो विनम्र हो, बहु-बेटी वही जो लज्जाशील हो, और
सिपाही वही जो तेज-तर्रार हो ।
दुकान फेलावे की जरूरत नइयाँ।
यहाँ सामान खोलने की जरूरत नहीं । किसी आदमी से पिंड छुड़ाने के लिए
कहते हैं ।
दुख सुख को जोड़ा है।
दुःख के साथ सुख और सुख के साथ दुःख लगा रहता है।
दुखिया रोबे, सुखिया सोवे।
दुधार गइया की दो लछातें सउनें परतीं।
काम करने वाले आदमी की दो बातें भी सहनी पड़ती हैं।
दुनियाँ ठगियें मकक्कर सें। रोठी खेये सक्कर से॥
दुनिया में सीधे-सच्चे आदमी का गुजारा नहीं। जाल-फरेब से लोगों को ठगने
वाले आदमी ही मौज से रहते हैं। उन पर व्यंग्य ।
दुबधा में दोऊ गये, माया मिली न राम।
चिन्ता करने से कुछ हाथ नहीं लगता ।
दूद के दाँत नईं झरे।
अभी तक बचपन है।
दृद कौ जरो, सठा फूक-फूंक के पियत ।
एक बार किसी काम में बहुत हानि हो जाने पर दूसरी बार मनुष्य उस काम
को अत्यधिक सावधानी से करता है।
दृद को दूद और पानी कौ पानी।
ऐसा न्याय करना कि जिसमें किसी पक्ष के साथ तनिक भी अन्याय न हो।
दूदन अनाओ, पृतन फलो।
धन और संतान की वृद्धि हो। बढ़ी-बूढ़ी स्त्रियों का सधवाओं को आशीर्वाद |
हे ७५ हज
।
बेओ | [ बन्देली कहावत कोश
दुद-युत साँगें नई मिलत।
धन और संतति भाग्य से ही मिलती है। माँगने से नहीं ।
दृद-भात छोड़, पे संग न छोड़े।
यात्रा में यदि कोई साथी मिल रहा हो तो दूध-भात का खाना भले ही छोड़ दे
पर उसका साथ न छोड़े, अर्थात् तुरंत उसका संग पकड़ लेना चाहिए ।
« दूद में सोंज, मठा में न्यारे।
दे० खीर में सोंज. . . . ।
दूबरो और दो असाड़, चरन' गईं दूर हार।
गाय एक तो दुबली, फिर एक की जगह दो असाढ़ होने से पानी का अधिक
बरसना, उस पर भी जंगल में दूर चरने के लिए जाना। तात्पर्य यह कि इस
प्रकार विपत्ति पर विपत्ति कोई कहाँ तक भुगत सकता है ?
दूबरे ढोर कों बगईं भौत रूगतीं।
( १-मच्छर की तरह का एक छोटा जीव जो ढोरों के शरीर से चिपककर
उनका रक्त चूसा करता है।) कमजोर को ही सब रोग घेरते हैं। मरे को
मारें साह मदार ।
दूर के ढोल सुहावने, नीरे के ढप ढप होयें।
दूर की बातें अच्छी छूगती हैं ।
दूर जमाई फूल बिरोबर, गाँव जमाई आदो।
घर जमाई खर की नाई, सन आये सो लादो ॥
दामाद का दूर रहने पर ही आदर होता' है।
इूला के संगे बरात सजत।
दूल्हा की तैय्यारी के साथ ही बरात की तैय्यारी होती है।
देओ दार में पानी ।
किसी बड़ी पंगत में भोजन की सामग्री कम हो जाने पर विनोद में।
अत
कमल २ 9 न कलम
रे
ब॒न्देली कहाँवर्त कोश ] [ देखीदेंखैं
देखत की धन नोंनी। राँटा कर न पौनी ॥
( १-बहू या बेटी के लिए प्रेम का संबोधन । २-अच्छी |) घर कें काम में
सुस्त बहू या बेटी के लिए।
देखत के हम ऊजरे, ऊसर मेरो नाव।
मोरे भरोसे रंयो ता, काड़ बिरानों खाब॥
ऊसर भूमि में खेती करने की अपेक्षा ऋण लेकर खाना अच्छा ।
देख देख कौ चहर खूँठ । कौन करोंठा बेठे ऊँट॥
न जाने क्या फैसला हो। दो आदमियों में जब झगड़ा हो और लोग यह
जानने को उत्सुक हों कि वह किस प्रकार तै होता है तब॑ कहते हूँ ।
इस पर एक कहानी है कि किसी कुम्हार और कुँजड़े ने एक ऊँट किराये में
किया। एक ओर कुम्हार के बत्तेन रखे गये और दूसरी ओर कुजड़े की
साग-भाजी । रास्ते में ऊँट बार-बार साग-भाजी में मुँह मारने लगा। तब
कुम्हार प्रसन्न हुआ और कहने लगा 'कि चलो अच्छा, मेरा तो यह कोई
नुकसान नहीं कर सकता, क्योंकि मेरे तो मिट्टी के बत्तंन हैं। इस पर कुंजंड़ें
ने कहा--घबराते क्यों हो। देखें ऊँट किस करंवंट बैंठतां है।' संयींग की
बात कि, ठिकाने पर पहुँचने पर ऊंट उसी करवट बैठ गयों जिधरं कुम्हार
के बत्तेन थे, जिससे वें सबके सब फूट कर चूरचूर हो गये।
गड़बड़ हँसे कुम्हारी की माली का चर रह्मा बूंट॑ ।
तू के हँस कुम्हार की किण घड़ बैठे ऊँट।--राज०
देखत माछी नईं खाई जात !
जान-बूझ कर कोई बुरा काम नहीं किया जाता।
देखा-देखी साथी जोग।
छीजी काया बाढ़ो रोग ॥
व्यर्थ अनुकरण करने से हांनि होती है।
देखादेख परोसन की।
पास-पड़ौस के लोगों के कहने में आकर जब कोई काम करे ।
बु०--१२ “+
देव |. [ बन्देली कहावत कोदा
देखी अनदेखी भई।
आँखों से देखी बात भी झूठी. पड़ गयी !
देखी तोरी कालपी, बावन पुरा उजार।
कोरा नाम ही नाम, सार कुछ नहीं । (अकबर के जमाने में कालपी एक समृद्ध
बस्ती थी। परन्तु अब उजड़ी पड़ी है। चारों ओर खँडहर ही खेंडहर नजर
आते हैं।)
देखे से भूक भगत ।
देखने से भूख भगती है। किसी अत्यन्त सुन्दर वस्तु के लिए कहते हैं।
देखो री आँखें, सुनो रे कान !
कोई बहुत अनहोनी बात सामने आने पर।
देरी नाँके कौ पाप लगौ।
घर आने का पाप लगा। भलाई करते बुराई हाथ आयी ।
देरी हरी बनी रखे!
घर हरा-भरा बना रहे। (आशीर्वाद)
देवतन चढ़ी सुहारी । कुकुर खायें चाय बिलारी॥
(१-पूड़ी ।) जो वस्तु घर से बाहर निकल गयी और दूसरों को दी जा चुकी
उसकी चिन्ता क्या ?
देवता तो बासना के भूके हें।
देवता कुछ खाते नहीं । वे तो सच्चे विश्वास से ही प्रसन्न होते हैं ।
देवी दिन काटे, पंडा परचों माँगे।
देवी तो किसी प्रकार दिन काट रही हैं और पंडा कहता है कि कुछ चम-
त्कार दिखाइए |
देवी मरें पेट की पीर, पंडा कहें मोय कला दिखाव।
वेबें लाख, बतावें सवा लाख।
झूठी डींग हाँकता ।
ही
बन्देली कहावत कोश | [ दोऊ
देस चोरी, परदेस भीक।
जब कोई बहुत दरिद्र होकर चोरी' और आवारागर्दी करने रुगता हैं तब
उसके लिए कहते हैं।
चोरी परिचित स्थान में ही हो सकती है। इसी प्रकार परदेश में
बिना किसी संकोच के' भीख माँगी जा सकती है।
देसी गदा, बिलायती रेंकन।
देसी घोड़ी विलायती चाल ।
देसे देसे ढार, कुले कुले ब्योहार।
(१- ढंग ।) देश-देश की रीति और कुल-कुल का व्यवहार अलग होता है।
देह धरे के दंड भोगने।
शरीर के साथ बीमारी छगी ही रहती है। जो कष्ट बदा है वह भोगना ही
है । प्रायः बीमार आदमी कहता है। ।
देह धरे को फल पाओ।
: दे० ऊपर।
देनो' भलो न बाप को, बेटी भली न एक।
चलनो भलो न कोस कौ जो बिध राखे टेक ।।
(१- ऋण, कर्जा)
देबो कों दमरी, बिछाबे कों कमरी।
कंजूस के लिए ।
दोऊ घोड़न सवार हूँ।
किसी काम का दोहरा प्रबंध कर रखता ।
दोऊ दीन से गये पाँड़े । हलुआ मिले न माँड़े ॥
लोभवश एक काम छोड़ कर दूसरा करने गये और वह भी न हुआ ।
कम ५ ७९ ««
दौरो | [ बुन्देली कहावत कोर
दोऊ पलीतन' दे दो तेल । तुम नाँचो, हम देखें खेल॥
(१-पलीता (अ० फलीत:), पंसाखों में लगायी जांने वाली कपड़े की बत्ती,
मसाल में लपेटा गया कपड़ा।) जब कोई दो मनुष्यीं में झगड़ा करा कर
उनका पैसा खर्च कराये और तमाशां देखे, साथ ही अपना उल्ल भी
सीधा करे ।
बदोऊ हातन लड़आ हें।
दोनों हाथ लडडु हैं। दोनों ओर से लाभ होना।
दोऊ हातन लड़आ लेके मरी।
पति के जीवित रहते कोई स्त्री मरे तब उसके लिए ।
दो घर कौ पाउनों भूकन मरत |
दो घर का पाहुना भूखों मरता है। किसी काम के लिए दो मनुष्यों पर आश्रित
रहने वाला व्यक्ति धोखा खाता है।
दोज कौ बायनो, तीज कों फेर दओ।
( १-वह मिठाई जो उत्सवादि के अवसर पर समे-संबंधियों तथा इष्ट मित्रों
के यहाँ परस्पर व्यवहार के रूप में भेजते हैं।) दींज कां बांयना तीज को फर
दिया। एहसान लौटाल दिया। किसी का कोई निहोंरां नहीं रखी ।
दो माटी के ब्र (अ) ये होत।
एक की जगह दो मनुष्य सब कुछ कर सकते है। सँगठन में बड़ी शंक्तिं होंती
है ।
दोंदर' बड़ो, के लाबर ।
(१-दौंदरा करने वाला, जोर-जहेर से बोलने वाला, उपद्रवी | २-पझ्ूठ बोलने
वाला।) निसंदेह लाबर की अपेक्षा दौंदर ही बड़ा होता है।
दोरो कोस हजारे लों, बसे लच्छमी पास।
बिना दिये रघुनाथ के, मिलें न तुलसीदास ॥
कक
- २८०
बुन्देली कहावत कोदा | | धववंत्रे
2 ।
घजी को साँप बताबो।
धजी का साँप बचाना। थोड़ी बात का बहुत विस्तार करना। झूठ बात
बना कर खड़ी करना।
अपनर्ऊ अरो करें पैलां से देन उरानों कातीं।
ब्रज की नार बिजत्तर ईसुर, धजी को साँप बनातीं।
घड़ी घड़ी करबो।
किसी की मरम्मत करना। पीटना। बदनामी करना। घड़ी घड़ी करकें
लूटौ>-अच्छी तरह लूठा।
घन के अँगारू मक्कर नाच।
धन के आगे मकक््कर नाच । पैसे के लिए आदमी सौ तरह की चालबाजियाँ
करता है।
धन के घिगानें हें।
सब पैसे का खेल है, या सब पैसे का झगड़ा है।
धत के पंद्रा सकर पच्रीस। चिल्ला जाड़ो, दित चालौस 0७
१५ दिसंबर से १३ या १४ जनवरी तक सूर्य धनुराशि सें रहता है, उसके
पहचात मकर में । इस प्रकार धन के पन्द्रह और मकर के पच्चीस, इन चाडीस
दिनों जाड़ा जोर का पड़ता है। इसी को चिल्ला जाड़ा कहते |
धन दे तनकों राखिये, तन द॑ रखिये लाज।
धनवंते काँटो लगो दौर परो संसार ।
तिर्थेन गिरे करार से कोऊ न पूछनहार ॥।
पा० धनवंते कांटो लगो सब जग परी पुकार।
भोंदू गिरे करार सें कोऊ न पूछनहार॥
पेसा वाला नी बकरी मरी ते बधां गा में जाणी,
गरीब की छोकरी' मरी ते कोइ ओ नहिं: जाणी।---मुजरातो
(पैसे वाले की बकरी मरी तो गांव भर ने जाना। गरीब की लडकी मरी को
किसी ने नहीं जाना) ।
“ ६4१ - 5
क्र
धरती | | बन्देली कहावत कोश
धनी न धोरो, पिरथीपुर के कोरी।
(१-झाँसी जिले में मऊरानीपुर तहसील का एक छोटा ग्राम, जहाँ किसी
समय हाथ के बने कपड़े का अच्छा कारबार चलता था।) जब कोई
साधारण आदमी अपने को बहुत महत्त्व दे तब कहते हूँ।
धनी पाले, धनी मारे।
धनवान ही रक्षा करता है, और धनवान ही प्राणों का ग्राहक भी बनता है।
घनी हजे, के ढोर हजें।
या तो भगवान धन देवे, या फिर पशु ही बनाये ।
धन्न तोरी छाती कों।
धन्य तेरी छाती को (जो ऐसा काम करने का साहस तेरा हुआ) ।
धन्त बो दिन, धन्त बा घड़ी।
जब ऐसी अनहोनी घटना घटित हुई।
धर्मों दे के बेठबो।
कोई काम कराने के लिए किसी के पास अड़ कर बैठना, और जब तक काम
न हो तब तक अन्न-जल ग्रहण न करना ।
घन्नासेठ के नाती बने फिरत।
थोड़ी पूँजी वाला जब अपने को बड़ा घनाढ्च समझे तब ।
घर जा, मर जा, बिसर जा।
दूसरे का माल हड़प जाने की इच्छा रखने वाले के लिए कहते हैं कि कोई
उसके पास धरोहर रख जाय और मर जाय, तथा दूसरे लोग भी भूल जायें
तो सब माल-मता उसका हो जाय ।
धरती कोऊ की रई न रंये।
धरती न तो किसी की रही, न रहेगी |
धरती ठौर नई देत।
अत्यंत दीन और दुखी व्यक्ति के लिए।
हु 3
बन्देली कहावत कोद | [ धान कौ
घरती सबको भार संभार।
धरती सबका भार सभाले हुए है।
घर तो पटको, चढ़बे सब ठाँड़े। (अथवा चढ़बे हम ठाँड़े)।
किसी कठिन काम के मुख्य अंश को स्वयं न करके दूसरों को उसके लिए
उकसाना।
धर तो पटको, मंछें हम उखार लें ।
दे० ऊपर ।
घरबे को मियाँ, सुलगावे कों मियाँ, पीवे कों आप, ठिकावे को मियाँ॥
हुकके से मतलब है, कि भरने के लिए मियाँ, सुलगाने के लिए मियाँ, पीने को
आप और फिर टिकाने को भी मियाँ। किसी से इस प्रकार का फालतू काम
लिये जाने पर व्यंग्य ।
धरम के दूने।
धोखा-घड़ी का व्यापार करने वाले के लिए व्यंग्य में। दूने तो किसी धंधे में
नहीं होते ।
धरम की जड़ पताल में।
धर्म की जड़ गहरी होती है।
धरम धक्का खाओ।
कुछ दिनों ठोकरें खाओ, तब अक्ल आयेगी।
धरी की घरी रे जे (ये)।
ऐन मौके पर कुछ करते-धरते नहीं बनेगा। जो बात जहाँ है, वहीं रहेगी ।
घाओ, धाओ, धाओ। करम लिखंतो पाओ ॥
चाहें जितनी दौड़-धूप करो, जो भाग्य में लिखा है वही मिलता है।
धान कौ गाँव प्यार सें जानों जात।
गाँव के बाहर पुआल के ढेर लगे हों तो उससे पता चल जाता है कि यहाँ घाने
होता है। बाहरी लक्षणों से किसी स्थान की धन-सम्पन्नता का पता चल
जाता है। ह
भ्् ५ ८ रे ध्य कर
थी
धीरज | [ बुन्बेली कहावत कोश
धान गिर सुभागे कौ, गोऊं गिरे अभागे कौ। क्
धान के पौधों का धरती में गिरना और झुकना अच्छा होता है परन्तु गेहूँ
का नहीं ।
धान, पान, उखेरा, तीनरऊ पानी के चेरा।
धान, पान और ऊख की खेती के लिए पानी की अधिक आवश्यकता
होती है। |
घान-पान हो रई।
धान-पान हो रही है। सुकुमार स्त्री के लिए कहते हैँ कि ब्रिद्ा पानी के
धान-पात्र की तरह कुम्हला रही है।
प्रात पुरातो, घी नओो।
चावल तो पुराना और घी नया अच्छा होता है।
घान सी कूटबो।
किसी को डंडों से खूब पीटना ।
घायें धन, न माँगे पृत।
दौड़-धूप करने से धन और माँगने से लड़का नहीं मिलता। जो भाग्य में है
वही मिलता है।
धावे सो पावे।
परिश्रम करने वाले को उसका फल मिलता है।
धिगानों रोपें। ः
व्यर्थ का झगड़ा रोपे हुए हैँ। दो आदमियों की ऐसी तकरार के लिए
कहते है जिसका लोग तमाशा देखें ।
धींगे की घरती है।
धींगामुश्ती करते वाला आदमी ही दुनिया में आराम से रह सकता है।
धोरज धर हातो तो सत्त खात।
धीरज धरना चाहिए। भ्ग्रवात सबको आवश्यकतानुसार देता है।
सब्र का फल मीठा होता है।
न्क थे €ढ॑ं की
है]
बुन्देली कहावत कोश |] [ ध्रोके में
धीरा सो गंभीरा।
धीरज रखने वाला आदमी ही समझ्िए कि गंभीर है।
उतावला सो बावला, धीरा सो गंभीरा ।
धीरे धीरें रे मना, धीरें सब कुछ होय।
माली सींचे सो घड़ा, रितु आयें फल होय ॥।
धीरो काम साहब को।
ईद्वर किसी काम में उतावली नहीं करता । वह जो कुछ करता है, सोच-समझ
कर ही करता है।
धुआँ की सोटें बांधबो।
धुएँ की गठरी बाँधना। व्यर्थ का, या असंभव काम करना ।
धुआँ देखबो।
किसी का बुरा तकना। तुमाओ धुआओँ देखें, अर्थात तुम मर जाओ ।
घूनी पानी कौ संजोग।
दो रमते आदमियों का संयोग से मिलना |
धरा के पुहसा बनाउत।
मुफ्त के पैसे सीधे करते हैं ।
घ्रा कों पटोरन ढाँकत।
धूल को रेशमी वस्त्र से ढँकते हैं। बेमेल काम करना ।
धूरा छानी, ककरा निकरे।
धूल छानने से कंकड़ ही हाथ लगते हैं।
घेला की नथनी पे इत्तो गुभान। सोने की होती तो चलतों उतान॥
घेले की नथनी पर तो इतना घमंड, सोने की होती तो चित्त होकर चऋछतीं ।
रूप या श्रृंगार का अधिक गे करना |
धोके में ध्वाकर' लुट मई।
(१-झाँसी जिले का एक छोटा ग्राम ।) अनजाने काम हो गया ।
हज लीग, हे े
चझ्
नंगी का ] | बन्देली कहावत कोश
धोबी के घर ब्याव, गदा ने छुट्टी पाई।
मालिक के घर आनंद-उत्सव होने से नौकर को भी छुट्टी मिली ।
धोबी को कुत्ता, घर को न घाट कौ।
जब कोई आदमी इधर-उधर मारा-मारा फिरे और कोई भी एक काम ठिकाने
से न कर पाये तब उसके लिए कहते हैं।
तुलसी बनी हैँ राम रावरे बनाये,
ना तौ, धोबी कंसो कुकुर न घर कौ न घाट कौ।
धोर चलो न उपदोी खाओ।
न दौड़ कर चलो, न उपेटा छगे | उतावली अच्छी नहीं ।
सं
नंगन के नंग आये, परे बेंठे झंग।
जैसे के यहाँ तैसे ही आते हैं।
नंग न लुटें हजारन में।
नंगे को कोई क्या लूटेगा ?
नंग बड़े परमेसुर तें।
नंगे से ईईवर भी डरता है, क्योंकि उसका कोई क्या बिगाड़ लेगा ?
नंगा के संग नचे बिना हींसा नई मिलत।
नंगे के साथ नाचे बिना हिस्सा नहीं मिलता। जैसे साथ तैसा ही बनने
से काम चलता है।
नंगा ठाँड़ो गेल में चोर बलेयाँ लेय।
जिसके पास कुछ है ही नहीं, उससे कोई लेगा क्या ?
नंगा सो चंगा।
जिसके पास कुछ नहीं वह स्देव मजे में है।
नंगी का सपरे और का निचोरे?
जिसके पास कोई वस्तु है ही नहीं वह क्या तो स्वयं उसका उपयोग करे, और
क्या दूसरों को दे ?
हे “- १८६ -
का
बन्देली कहावत कोश ] [ नंगी नाच
नेंगी नचत।
नंगी नचती है। निर्छु॑ज्ज स्त्री के लिए।
मंगी नाचे, धमाको होय।
निलेज्ज की निर्लंज्जता' छिपी नहीं रहती ।
नंगी नाचे, पुते खाय, बेटा की सों जेई आय।
जब अपनी चाल-ढार से कोई स्त्री स्वयं अपने को चरित्रहीन प्रकट करती
फिरे तब ।
इसकी एक कथा हँ---किसी मनुष्य के दो स्त्रियां थीं। जेठी की गोद में छः
महीने का बालक था। एक दिन मौका पाकर छोटी ने उसे मार डाला और
कहना शुरू कर दिया कि बड़ी ने मुझे बदनाम करने के लिए यह काम किया
है। बड़ी ने लोगों के सामने रोकर कहा--कोई मां होकर अपने लड़के को
मार डाले, भला ऐसा भी किसी ने देखा सुना है। में स्नान करने गयी थी।
इस बीच में इसने उसका गला दबा दिया। सुन कर लोग बड़े आइचर्य में
पड़े और असली अपराधी कौन है यह किसी की समझ में नहीं आया।
अंत में मामला गांव के मुखिया के पास पहुँचा। उसने दोनों स्त्रियों
को बुला कर कहा--अच्छी बात है में अभी इस बात का फेसला करता हूँ
कि लड़के को किसने मारा। तुम दो में से जो स्त्री हम लोगों के सामने
बिलकुल नंगी होकर खड़ी हो जाये और नाचे उसी को हम निर्दोष समझ
लेंगे। सुन कर बड़ी ने कहा--मेरा लड़का का छड़का गया और ऊपर से
अपनी लाज-दइरम भी खोऊं। ऐसा तो में कदापि नहीं कर सकती
भले ही आप मुझे अपराधी समझ लें। छोटी ने कहा--मेंनें जब कोई
बुरा काम किया ही नहीं तब आप लोगों के सामने नंगी होकर नाचने में
क्या डर? और वह कपड़े उतारने के लिए तैयार हो गयी। यह देख कर
मुखिया ने तुरंत कहा--बस बस फैसल़ा हो गया--नंगी नाचे, पूतते खाय,
बेठा की सों जेई आय। जो नंगी नाचने को तैयार है उसी ने लड़के की
हत्या की है। में पुत्र की शपथ खाकर कह सकता हूँ कि यही असली
अपराधिनी है।
* १८७ -- था
(ु
तो
न्॒ अंवरा ] द [ बुच्देली कहावल कोदा
नंगी भ्ली के मूसर आड़ु।
कोई बेतुका काम करने पर। इसकी एक कथा है कि एक बार कोई स्त्री घर
के भीतर नंगी स्नान कर रही थी। इतने में उसका समधी आया, और इधर-
उधर किसी को न देख सीधा आँगन में चछा आया स्त्री उसे देखते ही
घबरा गयी। लूज्जा-निवारण के लिए कोई वस्त्र उस समय उसके पास नहीं
था। केवल एक मृसल वहाँ रखा था। कोई और उपाय न देख उसे ही
सामने कर लिया। इस पर समधी ने कहा कि तुम यह क्या गजब कर रहौ
हो। इससे तो तुस बंसी हीं अच्छी थी।
नंगे सपरे निचोब का।
दे० नंगी का सपरे।
नंगो नावे बीच बजार।
बेशरम आदमी ।
संद के फंव चंदई जातत। ।
नंद के फंद नंद ही जानती है। भावज का ननद के लिए कहना।
नंद के सोई नंद भई। -
किसी की तनद की सास के लड़की पैदा हुईं। इस पर भावज ने प्रसन्न होकर
कहा->चलो, अच्छा हुआ, त॒नद के भी ननद पैदा हुईं । अब इसे पता चलेगा
कि न्ननद होती क्या वस्तु है।
जो दूसरों को तंग करता है उसे भी तंग करने वाला मिल ही जाता है।
नेंद को नंदेऊ', मेरो लगे न कोऊ।
(१-ननक्लेई, तवद क्रा प्रत्ति।) दूर के संबंधी के लिए उपेक्षा में कहते हें।
नेंदायरों नइयाँ।
निर्वाह नहीं. है। बनती या पटती नहीं है।
न अँद्रा स्योतो, व दो बुलाओ।..
अंधे को व्योतने पर एक आद्सी उसका हाथ पकड़ कर साथ लात्ते काला
चाहिए। ऐसा काम क्यों करो जिसमें व्यर्थ संकोच में पड़ना पड़े ।
है नह १८र्टू कक
कक
ब॑न्देली कहावत कोई | [ नेंकैंटा
न ईंट की देओ, न पथरा कौ दुआओ।
न किसी को ईंट मारों, न पत्थर खाओ।
नई दुकान, तिबरसी गुर माँगें।
नई दुकान और तीन वर्ष का पुराना गुड़ माँगतें हैँ, जो कहाँ रखा ?
नई नाउन बाँस की नहलन्नी।
किसी नौसिखिया के अनोखे ढंग से काम करने पर।
नई बऊ कौ आला गावो।
किसी नई वस्तु की बार-बार प्रशंसा करना।
तई बऊ को पालागन।
चार दिन का आदर-सत्कार।
नई बऊ, कुजाँगा खाता ।
नयी बहू और कुठौर में फोड़ा। असमंजस का विषय।
नई बात नौ दिना।
किसी नयी बात की चर्चा दस-पाँच दिन ही रहती है। तत्पश्चात वह पुरानी
पड़ जाती है।
न उनको ठौर, न उनको और।
जब दो आदमी एक-दूसरे से अपना पिंड छुड़ाना चाहते हों, परन्तु एक-दूसरे
के बिना उनेंका कॉर्म भी ने चंलेतों ही।
नओं नौ दिना, पुरानो सब दिना।
नयी वस्तु दो-चार दिन में ही पुरानी पड़ जाती है, उसकें परँचाते उंर्ते पुरानी
वस्तु से ही काम पड़ता है। इसलिए नथ्री के आगे किसी पुरानीं चीज का
तिरस्कार ठीक नहीं ।
नकटा की नाक कटी, ढाई बित्ता रोज बढ़ी । ..
नि्लंज्ज पर कोई बात असर नहीं करती।
तनकठोा जिये बुरा हवाल। ल्
बेशरंम के लिए कहते हैं।
#- रे ८९ #«
नचया ] [ बन्देली कहावत कोश
न कटा ससुर, निर्लंज्ज बऊ, आ रे ससुरा कानियाँ' कऊँ !
( १-कहानी, किस्सा।) ऐसे घर के लिए कहते हें जहाँ सभी बहुत निर्लंज्ज
हों।
नकटी के ब्याव में सो जोखों।
नंकट वां छगन मों सोलसे बघन--गुजराती।
नकटीचे लग्तास सत्राशें विघ्ते--मराठी।
नकल में अकल को का काम।
नकल के लिए बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती ।
न कंबे की लाज, न सुनबे की लाज।
बेशरम के लिए।
नगन नगन कोड़ जुओ।
किसी का बूरा चाहना। शाप देनता।
नगर बसंते देवा नाम, गाँव बसंते भूता नाम ।
नगर में देवता बसते हैँ और गाँव में भूत। अर्थात गाँव का रहना अच्छा नहीं।
न घर चेन, न बाहर चेन ।
बहुत चिन्ता-पग्रस्त ।
नचबे चलों और घूंघट घाले !
जब कोई नीचा काम करने पर ही उतारू हुए तो शरम क्या ?
नछत्र बली हूं।
भाग्य प्रबल है।
नचनारो के कूले फरकत ।
नाचने वाले के कूल्हे फरकते हें। गुणी आदमी का गृण छिपा नहीं रहता।
उसकी किसी न किसी चेष्टा से बह प्रगट हो जाता है।
नचेया के पाँव आप दिखा परत।
के ताचेर पा थामे ना--बंगरा
नाचनारी था पम्र ढांक्या न रहे--गुज०
कण ९ ९७ --
बन्देली कहावत कोश | [भनो
नजर सें ककरा नचत।
अर्थात बड़ा रौब-दाब है।
न तर घेंगरिया, न ऊपर फरिया।
ऐसी स्त्री जिसके पास पहिनने-ओढने को न हो। निलेज्ज या फूहड़ के लिए
भी कह सकते हूँ।
न तें मोरी कये खीस निपोरी। न में तोरी कओं दाँत निपोरी ॥
“न तू मेरी बदनामी कर और न में तेरी करूँ। परस्पर व्यवहार की बात ।
नदी किनारें बगुला बंठो, चुन चुन मछरी खाय।
काल सबको धीरे-धीरे खाता रहता है। धूत्ते आदमी को लक्ष्य करके भी:
कहते हैं। ु
नदी किनारे रूखड़ा जब तब होय बिनास।
जिसे हमेशा जोखिम का काम करना पड़ता हो उसके जीवन का क्या ठिकाना ?'
नदी-नाव संजोग।
आकस्मिक भेंट ।
तुलसी या संसार में भाँत भाँत के लछोग।
सबसे हिल-मिल चालिये नदी नाव संजोग ।।
नदी में र॑ के मगर से बेर !
बलवान के पास रह कर उससे बैर नहीं किया जा सकता।
न धौर चलो, न गिर परो।
उतावली अच्छी नहीं ।
न नाम लेवा, न पानी देवा।
ऐसा आदमी जिसका कोई न हो। जो निः:संतान हो ।
न नौ मन तेल हुइये, न राधा नाचें।
न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेंगी। अयोग्यता छिपाते के लिए ऐसी
दर्त पर काम करने को कहना जो संभव ने हो।
धो 0 ६ शक
नें माँड़ | [ बुन्देली कहाँवँत कौंई
नह्मां के आँगें ननयावरे की बातें।
अपने से अधिक जानने वाले के सामने अपनी जानंकारीं बधारंनां ।
नञ्नां छबीलो ने मो लगे।
(१-भाई या काका के लिए संबोधन ।) नंज्ञा को छबीली ने मोह लिया।
जब कोई अपने से बड़ा और समझदार दूसरों की बातों में भा जाय तब कहते हैं ।
नन्नें-बड़े करत क्वाँरे र॑ गये।
पहिले उम्र में छोटे होने के कारण विवाह नहीं हो सका, फिर बड़े होने से नहीं
हो सका, इस प्रकार छोटे-बड़े करते ही क्वाँरे रह गये ! बातों-बातों में ही
समय बीत गया, और अभीष्ट पूरा नहीं हो सकां ।
नञ्म मों बड़ी बात।
जब कोई छोटा बड़ों के मुँह छगे तब ।
नञ्मों भूत बड़े कों दबकावे।
छोटा भूत यदि बड़े को डाठट-डपट बताये तो यह एक आइचर्य की ही बात है।
न फूंक लेने, न फटकं देनें।
न हमें (अनाज) फूँक कर लेना -है, और न फटक कर देना है। हमें ऐसा
लेन-देन नहीं करना जिसमें सरासर घाटा है।
न ब्याये, न बराते गये।
न तो विवाह किया और न किसी की बारात में ही गये । अनुभवहीन व्यक्ति |
ने भटठन में, न भाजी सें।
किसी गिनती में नहीं । 5
ने साँड पसाउत के, न माँड़े' पऊत के।
(१-मिंट्री के तंवे पर सिकी हुँई मेंदां की पतली रोटियाँ, जो आगे पर
नहीं सिकती।) किसी योग्य' नहीं।
“+ १९२ -
बुन्देली कहावत कोश | [ नये
म माँयन के, न सड़वा तर के।
नतो माँय लेने वालों में और न मड़वा के नीचे बैठने वालों में ही। विवाह
में मातृदेवी की पूजा के लिए जो अलग रोटियाँ या पूड़ियाँ तैयार करके
रखी जाती हैं वे माँय कहलाती हैं। ये कुटुम्ब वालों को ही प्रसाद के रूप
में खाने को दी जाती हैं। कुटुम्ब से बाहर के लोगों को नहीं मिलतीं और न
वे उस स्थान में ही जाने पाते हैं जहाँ माय रखी रहती हैं। इसी प्रकार
कुछ विशेष सगे-संबंधियों को ही विवाह में मंडप के नीचे बैठ कर भोजन
करने का अधिकार होता है, दूसरे लोग नहीं बैठने पाते । अतः जिसकी कोई
वकत न हो ऐसे आदमी के लिए कहावत का प्रयोग होता है।
नरम सो जमें।
स्वभाव का नम्र आदमी ही फलता-फूलता है।
नम सो भारी।
नम्र आदमी को ही बड़ा समझना चाहिए ।
नमंति फलिनो वृक्षा तमंति गुणिनों जगा:। --संस्कृत ।
नमो नारायन, तो कई-बच्चा आज, भोजन तोरेई घरे।
किसी साधू बाबा से किसी ने रास्ते चलते प्रणाम किया, तो उसने उत्तर दिया--
अच्छा, बेटा आज भोजन तेरे ही घर । जबरदस्ती की मुसीबत गले
पड़ना ।
नये गुंडा अंडी कौ फुलेल।
जब कोई नौसिखिया कोई अनोखी या अनुपयुक्त वस्तु काम में लाये तब |
नये गुंडा, कंडा की दरपनी।
दे० ऊपर।
नये जोगी कुल्लंन पे जठा।
दे० ऊपर।
नये जोगी गाजर कौ संख।
दे० ऊपर।
“ १९३ - दे
बु०-१३ ५
नसो] [ ब॒न्देली कहावत कोश
नये पुजारी कोल फौ संख।
दे० ऊपर
नये पुराने हो गये।
बात पुरानी पड़ गयी।
नये सिरे से जनम भओ।
कठिन बीमारी से अच्छे होने पर।
नर जाने दिन जात है, दिन जाने नर जाय।
मनुष्य समझता है कि दिन जा रहा है, परन्तु दिन के लेखे तो मनुष्य ही जाता
है।
नरदवा की बिनती को गये, बखरी हार आये।
नाबदान की प्रार्थना लेकर गये कि यह हमारा है, हमें दिलवा दिया जाय,
परन्तु उल्दे घर हार कर आ गये।
ने राॉड कओ, न निपुती सुनो।
न किसी से बुरी बात कहो, और न उससे अधिक बुरी सुनो |
नरियाँ झुरियाँ कड़ जेहें, तिमात कौ पानी तिमाने रहे।
छोटे नदी-ताले तो बह कर निकल जायेंगे, परन्तु धरती के नीचे का पानी
नीचे ही रहेंगा। ओछी प्रकृति के ऐसे आदमी जो बहुत इतरा कर चलते हैं
नष्ट हो जाते हैं, परन्तु गंभीर पुरुष अपनी जगह पर टिके रहते हैं ।
न रय बाँस, न बजे बाँसुरी ।
जिस वस्तु के रहने से हानि होती हो उसे जड़ से नष्ट कर देना ।
न लरका दिया के (ये) न सोनो हुदये।
किसी ऐसी छातें के कारण जो पूर्ण न हो सकती हो, काम का अटठक जाना ।
(लोगों में विश्वास प्रचलित है कि छः महीने का दूध पीता बालक यदि मुँह
से दिया कह दे तो मिट्टी का दीपक सोने का हो जाता है।)
ने सौ लादे, सवा सो लादे।
कोई काम जैसा थोड़ा किया वैसा बहुत किया ।
| - १९४ -
बन्देली फहावत कोश | [ ताक
नाऊ के बार आँगें आऊत।
जब कोई ऐसी बात के विषय में पूछे जिसका वत्तान्त तुरंत ही ज्ञात होने वाला
हो तब ।
ताई नाई बाल कितने, जिजमान आगे आयेंगे--फेलन
नाऊ नाऊ की बरात, दिपारो को हू चले ?
(१--मुकुट की आकार की छोटी टोपी। बुन्देलखंड में यह शब्द बाँस की
बनी ढक्कनदार टोकनी के अर्थ में प्रयुक्त होता है।)
बराबर के आदमियों में जब कोई छोटा अथवा परिश्रम का काये आ पड़े और
उसे कोई करने को तैयार न हो तब कहते हैं।
नाक कटी सो कठी, पे घी तो चादो।
किसी ने कनस्टर में मुँह डाल कर घी चाटा, जिससे उसकी नाक कट गयी।
तब उसने कहा, नाक कट गयी तो कोई चिन्ता नहीं, धी तो चाटने को मिला |
बेशरम के लिए प्रयुक्त ।
नाक काट पटोरन पोंछत ।
नाक काट कर रेशमी रूमाल से पोंछते हैं। हानि पहुँचा कर सहानुभूति
दिखाना ।
नाक चना बिनवाबो।
किसी को खब तंग करना । हैरान करना
दसमख-बिबस तिछोक लोकपति बिकल बिनाए नाक चना है। --तु० गोता
नाक छिदाउन गईं, कान छिदा के आ गई।
गये किसी कार्य के लिए, कोई दूसरा कार्य करके आ गये ।
ताक दूर, के हँसिया।
कोई आदमी जब किसी काम को करना चाहे और उसके साधन पहिले से
मौजूद हों तब कहते हें कि कौन मना करता है, कर डालिए ऐसा" काम ।
नाक नकटी, सों फिकार ।
( १-काले रंग का, कोदों, समा की तरह का, एक हलका खाद्योन्न। ) निर्ंज्ज
और कुरूप स्त्री के लिए कहते हूँ । गाली के रूप में भी भ्रयुक्त ।
न
त्णव १ ९ के खनन
नाच ] [ बन्देली कहावत कोश
नाक नंगी, गर हमेल
(१-गले में पहिनने की सिक्कों की माला।) जब किसी स्त्री के पास नित्य-
प्रति के पहिनने के' साधारण वस्त्राभूषणों की तो कमी हो, परन्तु जो दो
एक कीमती गहने या कपड़े उसके पास' हों उनको पहिन कर ही लोगों
को दिखाती फिरे तब व्यंग्य और ताच्छल्य में उसके लिए प्रयोग करते हें ।
नाक न बाँसो, देखें लोग तमासो।
(१-नाक की ऊपर की हड़ी, बाँसा।) बेशरम के लिए कहते हें।
नाक पे माछी नई बेठन देत।
नाक पर मक््खी नहीं बैठने देता। ऐसा आदमी जो किसी का एहसान लेना
पसंद न करे।
नाक से अफरे बेठे।
किसी वस्तु की इच्छा नहीं। खूब तृप्त हैं। ऊबे बैठे हैं| व्यंग्य में ।
नागाजी कूच, निउरे तो अतीत झूठ।
नागा साधुओं के दल में किसी ने कहा--चलिए बाबा जी,. कूच, तो उत्तर
मिला--में तो पहिले से तैयार खड़ा हँ। कमर झुकाऊँ तो कहना साधू
झूठा था। किसी काम के करने के संबंध में इस प्रकार का विश्वास दिलाने
के लिए कहते हैँ कि मैं तो तैयार हूँ । मेरी ओर से बेफिक्र रहो ।
ताच न आवे आँगन टेढ़ो।
मूर्ख कारीगर साधनों को दोष देता है। किसी काम को करने का तो ढंग
मालूम न हो और साज-सामान को बुरा बताये।
नाचते न जानले उठानेर दोष--बंगला
नाचतां रांइना आंगण वांकड़े, येधतां येईना ओलछी छांकटे---मराठी
(नाचना' आता नहीं आँगन टेढ़ा; भोजन बनाना आता नहीं, और लकड़ी
गीली! ) मर
नाच परोसिन भोरें, तो में ठाँड़ी नाचों तोरें।
तू मेरे ऊपर थोड़ा एहसान करे, तो मैं बहुत करने को तैयार हूँ। परस्पर
व्यवहार की बात ।
स्का
१5६ 5
बुन्देली कहावत कोश ] [ ना बाते
नाठ को धन।
निपूते का धत। (किसी को फलता नहीं)
नाती माँगें पुत सिलत।
किसी से बहुत माँगो तब थोड़ा मिलता है।
नाथ पर्गया' मोरे हात। बच्छा कूदे नौ नो हात॥
( १-बैल, भैंस आदि की नाक छेद कर उन्हें वश में करने के लिए डाली जाने
वाली डोरी। २-ढोर बाँधनें को छोटी रस्सी, पगहा ।)
जब कोई आदमी पूर्ण रूप से दूसरे के आश्वित रहते हुए भी अपने को
स्वतंत्र और स्वावलंबी बताने की चेष्टा करे तब ।
ना दवे की सो बातें।
किसी को जब कोई वस्तु नहीं देना, हो तो उसके लिए सौ बहाने बनाये जा
सकते हैं ।
नान सबके गोड़े धोडत, अपने घोठत लजावे।
नाइन सबके पैर धोती है, परन्तु अपने पैर धोने में लजाती है। अपने हाथ
से अपना काम करने में लोगों को प्राय: संकोच होता है ।
नान से पेट नई छिपत।
किसी ऐसे मनृष्य से कोई बात नहीं छिपायी जा सकती जिसका वह सब भेद
जानता हो ।
दाई से पेट नहीं छिपता--फलन
ना बांत बिरानी कंये, ना ऐंचातानी सेये।
न व्यर्थ दूसरे की बात किसी से कहो और न इंचे-खिंचे फिरो। किसी के
' झगड़े में पड़ना ठीके नहीं ।
इंस पर एक कहानी है कि एक बार किसी सियार की स्त्री ने एंक शेर
की माँद में जाकर बच्चे दिये। उस समय शोर बाहर था। परल्तु,जब वह
लौट कर आया तो सियार और सियारती बड़े घबराये। अंत में कोई और
उपाय न देख सियार ने सियारनती से कहा--देख, अब तू एक काम करक
किसी प्रकार बच्चों को एल दे। मैं पूछंगा-रानी चकचुइया, बच्चे रोते
श्ञ
नामों] _ [ बुन्देली कहावत कोश
क्यों हैं? तुम कहना ---राजा शाल्वाहन--वे भूखे हैं। शेर का ताजा मांस
खाने को माँगते हैं। में कहँगा---अच्छी बात है। इस जंगल में शेरों की क्या
कमी ? एक नहीं, अभी दस मार कर लाता हूँ। माँद के निकट आकर शोर ने
उन दोनों की जो इस प्रकार की बातचीत सूनी तो डर के मारे उल्टे पैरों भाग
खड़ा हुआ। रास्ते में एक दूसरे सियार से उसकी भेंट हुई। उसके पूछने पर
कि भाई, तुम इस तरह तेजी से कहाँ भागे जा रहे हो, शेर ने सारा किस्सा
बताया। सुन कर सियार ने हँस कर कहा--भाई तुम भी खूब हो। वह तो
हमारी बिरादरी का ही एक सियार है। उसकी स्त्रीने वहाँ बच्चे दिये हैं।
विश्वास न हो तो चल कर देख लो। शालवाहन यहाँ कहाँ रखे। परन्तु
होर को इसका विश्वास नहीं हुआ। तब सियार ने कहा अच्छी बात है।
तूृम' अगर समझते हो कि में तुम्हें कोई धोखा दे रहा हूँ तो में तुम्हारी पूँछ
से अपनी पूंछ बाँघे लेता हूँ जिसमें में कहीं भाग कर जा न' सकूं। बात झूठ
निकले तो तुम्हें जो दीखे सो करना। शेर इस बात पर राजी हो गया।
एक ' दूसरे की पूंछ से अपनी पूंछ बाँध कर दोनों माँद की तरफ चल पड़े।
इधर पहिले सियार ने जब उनको इस प्रकार आते देखा तो मांद के भीतर
से ही चिल्ला कर कहा--शाबाश भाई, शाबाश। तुम अच्छे मौक से आये।
में स्वयं शेर के शिकार के लिए जा ही रहा था। बच्चे बड़ी देर से भूखे रो
रहे हैं। परन्तु यह क्या बात है ? मेने तुमसे दो शेर पकड़ कर लाने को कहा
था। परन्तु तुम एक ही लाये ? सियार की यह बात सून कर शेर वहाँ से
प्राण लेकर भागा। वह दूसरा सियार चिल्लाता ही रहा कि भाई ठहरो,
ठहरो, मुझे कम से कम अपनी पूँछ तो छड़ा लेने दो। परन्तु शेर ने एक नहीं
सूती। बराबर भागता ही गया और सियार भी उसके पीछे-पीछे बड़ी दूर
तक घसिटता गया। लगातार झटके लगने से बेचारे की पूंछ टूट गयी और
कई जगह सिर में चोट भी आगायी। अपनी यह दुर्दशा देख कर उसने ऊपर
का वाक््य' कहा कि ना बात बिरानी कंये, ना ऐंचा तानी सेये।
ना बोले में नौ गुन। मु द
चुप रहने अथवा कम बोलने में बहुत भलाई छिपी रहती है।
नामी चोर साये जाय । नामी साव कमा खाय ॥
ख्याति से कहीं हानि और कहीं लाभ होता है।
न - १९८ -
का
बन्देली कहावत कोश ] [ निगत
मायें गिरो तो कुआ, माय गिरो तौ खाई।
दोनों ओर विपत्ति।
मारि सुई घर संपति नासी।
मूंड मड़ाये भये संन््यासी ।
ऐसे लोगों पर व्यंग्य जो स्त्री' के मरने अथवा संपत्ति का नाश होने पर साधु
हो जाते हैं ?
सारी नर को नूर है, नारी जग कौ मान।
मारी से नर ऊपने, ध्रू, प्रहहाद समान ॥।
माव चड़े झगड़ाल आदें, पेरत आयें साखी।
वादी और प्रतिवादी तो दोनों आराम से नाव पर चढ़ कर आ रहे हैं और
गवाह तैरते आ रहे हैं। उल्दी बात। जब कोई आदमी व्यर्थ दूसरों के
लिए कष्ट उठाये और घिसटा-घिसटा फिरे तब ।
नाय तो नन्नी बऊ, और ऊँची घरों ताड़ सों ।
ताम के विपरीत गुण ।
मावसे नाव बेंदी।
एक दूसरे पर आश्वित हैं। नाव से ताव बँधी होने पर एक के डूबने पर दूसरी
भी डबेगी।
माव बड़े दरसन थोरे।
जब कोई किसी का बड़ा नाम सुन कर आये और उसे निराश जाना पड़े तब |
माव लखेसुरी, मों कुतिया सो।
दे० नाव तो नन्नी बऊ।
निगत बनेना, सुपेती की फेंट बाँदे।
चलते तो बनता नहीं, रजाई की फेंट बाँध रखी है।»सामथ्यं से बाहर
काम करने की हास्यजनक चेष्टा ।
बा
“मिसान | [ बन्देली कहावत कोश
निन्नानबे के फेर में परबो।
१-रुपया कमाने की फिक्र सवार हो जाना। २-घर-गृहस्थी की चिन्ता
में पड़ जाना। ३-किसी ऐसी समस्या का सामने आ जाना जिसे आसानी
से हल न किया जा सके ।
इसकी एक कथा है कि किसी गाँव में एक ब्राह्मण रहता था जो बड़ा
संतोषी था और चार पैसे रोज में अपना और अपनी स्त्री की गुजर करता था ।
अधिक पैसे की उसे कभी इच्छा नहीं हुईं। जो मिलता उसी में परम सुखी
था। उसके एक पड़ोसी से उसका यह सुख नहीं देखा गया। एक दिन
चुपके से एक थैली में निन्नानबे रुपये भर कर उनके घर में फेंक दिये।
बेचारे गरीब तो थे ही। रुपये देख कर बड़े प्रसन्न हुए। गिने तो एक कम
सौ तिकलें। अब उनको इस बात की चिन्ता हुई कि ये किसी प्रकार पूरे
सो हो जाय॑। उन्होंने अपना खर्चा घटा कर तीन पैसे रोज का कर दिया।
इस प्रकार दो महीने में सो हो गये । अब उनको इस बात की चिन्ता हुई
कि ये किसी प्रकार दो सौ हो जायं। दो सौ से फिर तीन सौ की फिक्र
हुईं। इस तरह रुपया इकट्ठा करने की चिन्ता ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-त्यों
बेचारे बड़े दुबले हो गये और वह सुख सदा के लिए तिरोहित हो गया, जिसका
' वे अनुभव किया करते थे ।
निन्ने पानो जे पियें, हर भूंज के खायें।
. दूदन व्यारू जे करें, तिन घर बंद न जायें।॥
जो प्रातः काल उठते ही निहार मुँह पानी पीते हैं, हर॑ भूँज कर खाते हैं, और
रात्रि में दृथ का सेवन करते हैं वे कभी बीमार नहीं पड़ते ।
निब॒ुआ नोंन चुंखा दओ। द
कोरा टरका दिया।
निब॒रिया जेसी छाँयरी।
नीम के. छोटे वृक्ष जैसी छाया। अस्थायी आश्रय ।
निसान को पानी निमानें जात।
धरती के नीचे का पानी नीचे ही जाता है। जो वस्तु जहाँ की होती है वहीं
चली जाती है।
क्ना
कब २ 00७ न
रा
बुन्देली कहावत कोश | [ तेकी
नियत से बरक््कत होत।
नीयत को साफ रखने से आदमी मुनाफे में रहता है।
निर्धन के धन गिरधारी।
निर्धन को भगवान का ही बल रहता है।
निर्बेल के बल राम।
दे० ऊपर।
नींद बेरन हो गई।
चिन्ता के कारण नींद न आने पर |
नीकी हू पे फीकी लूगे बिन औसर को बात।
बे अवसर की अच्छी बात भी बुरी लगती है।
नीम कौ कौरा नीमईं में सानत।
नीम का कीड़ा नीम में ही सुखी रहता है।
नीम गुन बत्तीस, हर गन छत्तीस।
नीम में बत्तीस गुण है, अर्थात वह बत्तीस रोगों में काम आता है और हरे
में छत्तीस |
नीम न सीठे होयें, खाओ गुर घी सें।
यह कहावत इसी रूप में प्रचलित है। परन्तु उसका शुद्ध रूप है---
नीम न मीठे होयेँ, सींचो गुर धी से ।
पयसा सिंचते नित्यम् न निम्बम् मधुरायते--प्रंस्कृत
(नित्य दूध से भी सींचने पर नीम कभी मीठा नहीं होता)
. भीर निमाने, अन्न कुठारे।
पानी तो निम्न-स्थल का अर्थात गहराई का, और अन्न कुठिया में रखा
निर्दोष रहता है।
नेकी और पूँछ पूँछ।
किसी की भलाई करने में पूछना क्या ?
"२० १ बन
नौ] । | बन्देली कहावत कोश
नेकी कौ फल बदी। |
जब कोई किसी का उपकार करे और बदले में उल्टे ब्राई हाथ छगे ।
भाल करते मंद हय---बंगला
नेचे घर तुसार।
नीचे घर पर ही तुसार पड़ता है। गरीब को ही विपत्तियाँ अधिक सताती हैं।
नेनूं कौ नाव, पिसान कौ दिया।
मक्खन या घी का तो केवल नाम है, दीपक आटे का बना है। काम कोई
करे और यश किसी को मिले, अथवा जो वस्तु जैसी बतायी जाय वैसी न निकले
तब कहते हें ।
नौकरी तो नौकरी, ना करो तो ना करी, हाँ करी तो हाँ करी।
नौकरी करे तो मन लगा कर करे, अन्यथा करना नहीं चाहिए।
नौकरी है के भाईबंदी ।
जब नौकर बहुत गरहाजिरी करे अथवा ठीक ढंग से काम न करे तब।
नौ की रूकरियाँ, नब्बे खर्च।
नौ रुपये की लकड़ियाँ लाने में नब्बे खर्च हो गये ! बेतुका खर्च ।
नौ खायें, तेरा की भृंक।
लालची आदमी के लिए।
नौ दिन चले अढ़ाई कोस।
बहुत सुस्त काम करने वाले के लिए।
केदारनाथ से बदरीनाथ का अंतर ढाई कोस है। परन्तु रास्ता सीधा न
होने से प्रायः पचास कोस चलना पड़ता है जिसमें नौ दिन लगते हैं।
उम्ती से कहावत चली ।
नो नगद ने तेरा उधार।
तेरह उधार में बेचने की अपेक्षा नगद नौ में बेचना अच्छा) उधार का
व्यापार ठीक भहीं ।
€
ख््म्क हि ्छ २ बन
बन्देली कहावत कोश ] | नौ सौ
नो नेजा पानी चड़ो, तौऊ न भींजी कोर।
नौ बर्छा पानी ऊपर चढ़ गया, फिर भी कोर नहीं भीगी। निलंज्ज के
लिए । ।
नो नो अठारा, और दो मिला के बीस होत।
थोड़ा-थोड़ा करके बहुत होता है।
नौ मईना मताई के पेट में केसे रये हुइओ।
तो महीने माँ के पेट में कैसे रहे होगे ? चंचल और ऊघमी लड़कों के लिए।
तो सन गूलिया चाढो।
( १-महुए की गृठली का तेल।) नौ मन गुली का तेल चाटते फिरोगे।
अर्थात मारे-मारे फिरोगें। कोई पूछेगा नहीं ।
नौ मूंड़ के हो जाओ। (तोऊ तुमाई बात न साने)
तुम कुछ भी करो, फिर भी तुम्हारी बात नहीं मानेंगे। हठी लड़कों के लिए
कहते हैं ।
नौ सौ चूहा खार्के बिलाई तप कों चली।
धारमिकता या संयमशीलता का ढोंग करने वाले के लिए।
इस बिल्लाब्रत की एक कथा है जो महाभारत के उद्योग पे में इस प्रकार
पढ़ने को मिलती है---एक बार एक बिलाव शक्तिहीन हो जाने के कारण गंगाजी
के तट पर ऊध्वेबाहु होकर खड़ा हो गया और सब प्राणियों को अपना विश्वास
दिलाने के लिए में तप कर रहा हूँ” ऐसी घोषणा करने रूगा। इस प्रकार
कुछ समय बीत जाने पर पक्षियों को उस पर विश्वास हो गया और वे उसका
सम्मान करने लगे। उसने भी समझा कि मेरी तपस्या सफल तो हो गयी ।
फिर बहुत दिनों के बाद वहाँ चूहे भी आये और उस तपस्वी को देख कर सोचने
लगे कि हमारे शत्रु बहुत हैं, इसलिए हमारा मामा बन कर यह् बिलाव हममें
से जो बूढ़े और बालक है उनकी रक्षा" किया करे। तब सबने उस बिलाव
के पास जाकर कहा--आप हमारे उत्तम आश्रय और परम सुहृद हैं। अतः
हम सब आपकी शरण में आये हैं । आप सव्वदा धर्म में तत्पर' रहते हैं। अतः
वज्रधर इन्द्र जैसे देवताओं की रक्षा करते हैँ उसी प्रकार आप हमारी रक्षा
कक
** २० ३ «७-
पंछियन ] [ बुन्देली कहावत कोश
करें। चूहों के इस प्रकार कहने पर उन्हें भक्षण करने वाले बिछाव ने कहा
में तप भी करूँ और तुम सबकी रक्षा भी करूँ, ये दोनों काम होने का तो मुझे
कोई ढंग तहीं दिखायो देता । फिर भी तुम्हारा हित करने के लिए मुझे तुम्हारी
बात भी अवश्य माननी चाहिए। तुम्हें भी नित्य मेरा एक काम करना होगा ।
मैं कठोर नियमों का पालन करते-करते बहुत थक गया हूँ। मुझे अपने में
चलने-फिरने की तनिक भी शक्ति नहीं दिखायी देती । अतः आज से तुम मुझे
नित्य-प्रति नदी के तीर तक पहुँचा दिया करो। चूहों ने बहुत अच्छा कह कर
उसकी बात स्वीकार कर ली और सब बूढ़े-बारुक उसी को सौंप दिये । फिर
तो वह पापी बिलाव चूहों को खा-खा कर मोटा हो गया। इधर चूहों की
संख्या दिनोंदिन कम होने लगी। तब उन सबने आपस में मिल कर कहा---
क्यों जी, मामा तो रोज-रोज फूछता जा रहा है और हम बहुत घट गये हैं।
इसका क्या कारण है ?' तब उनमें जो एक सबसे बूढ़ा चूहा था उसने कहा--
मामा को धर्म की परवा थोड़े ही है। उसने तो ढोंग रच कर हमसे मेलजोल
बढ़ा लिया है। जो प्राणी केवल फल' मूलादि ही खाता है उसकी विष्ठामें
बाल नहीं होते। इसके अंग बराबर पुष्ट होते जा रहे हैं और हम लोग घट
रहें हैं। सात-आठ दिन से हमारे कई साथी नहीं दिखायी दे रहे हैं। उस
बूढ़े की यह बात सुन कर सब चूहे भाग गये और वह दुष्ट बिलाव भी
अपना सा मूँह लेकर चला गया।
यह कथा जातक में भी है। परन्तु वहाँ बिलाव के स्थान पर शुगाल
की चर्चा आयी है। द
न्यारो पुत परोसी दाखिल ।
(१-शरीक, मिला हुआ।) घर से अरूग़ हुआ लड़का पड़ौसी के समान हो
जाता है। एक बार किसी से संबंध-विच्छेद हो जाने पर फिर उससे कोई
मतलब नहीं रहता ।
छ् हे
प
पंछियन के पियें समुद हिलोरें नईं घटतों।
पक्षियों के पीने से समुद्र का जल कम नहीं होता।
पट
बन्देली कहावत कोश ] [ पइसा
पंडित, बेद, मसालची इनकी उल्दी रीत।
औरन गेल बतायक आपुन नाकें भींत॥
पंवारों गाऊत फिरत।
व्यर्थ का रोना रोते हैं।
पइसा आई, पइसा बाई, पइसा बिन ना होय सगाई।
(१-माँ) पैसे से ही सब कुछ होता है।
पइसा आऊतन दुख देत, और जातन देत।
पैसा आते दुख देता है और जाते भी ।
पइसा कितरऊं डारन में नई फरत।
पैसा कहीं वृक्षों में नहीं लगता ।
पदसा की डुकरो टका मुड़ाई।
जितने की तौ असल वस्तु नहीं, उतने से अधिक उस पर खर्चे ।
पइसा की भाजी, ठका को बगार ।
(१-बघार। मिर्च, मसाले आदि का छौंक ।)
पइसा के कोदों ठका पिसाई।
.. दे० पइसा की डुकरो।
पइसा के लाने सबरे करम करनें परत।
पैसे के लिए सब कर्म करने पड़ते हैं।
पइसा के छातनें सरगे थींगरा लगाउत।
पैसे के लिए आकाश में थींगरा लगाते हैं। अर्थात संभव-असंभव सभी कार्य
आदमी करता है।
पइसा के सब साथी। है ६
पहसा के सब सगे।
पइसा के सौ गृलाम। हैं
पैसा होने पर चाहे जितने नौकर. रख छो। अथवा पैसे के सब चाकर हैं।
तन्न्क २ छ प् कै
पके ] [ बुन्देली कहावत कोश
पइसा कौ कोऊ पूरो नईं, और अक्कल को कोऊ अधूरो नईं।
पैसे की सब अपने पास कमी बताते हैं। उसी प्रकार सब अपने को अक्ल का
पूरा बताते हैं। कोई यह स्वीकार नहीं करता कि मेरे पास बुद्धि की कमी है।
पइसा कौ खेल हे।
संसार में सब काम पैसे से होते हैं।
पइसा फट परो।
पैसा फट पड़ा। किसी के अचानक धनी बन जाने पर।
पइसा सें पहइसा आऊत।
पैसे से पैसा आता है। पैसे को पैसा खींचता है।
पइसा सें सबरी अक्कल आऊत।
पैसे से ही सब बुद्धि आती है।
पइसा हात कौ मेल है।
पैसा हाथ का मैल है। उसके आने का कोई सुख या जाने का रंज नहीं करना
चाहिए।
पऊत पऊत की कच्चीं (अथवा खोटीं ) ।
रोटियाँ तैयार होते-होते भी खाने को मिलेंगी इसका विश्वास नहीं ।
पऊत बरा, के पीलऊं तेल ?
बरा बनाते हो, या पी ल तेल ? जो मिले वही सही। अथवा मेरा काम नहीं
करते हो तो जो मन में आयेगा करूँगा।
पके आम।
वृद्ध के लिए कहते हें ।
पके पान॥
अनुभवी आदमी |
पके पै निबौरी मिठात।
पकने पर निबौरी भी मीठी लगती है।
कक २ ५9 ६ अबक
बुन्देली फहावत कोश |] [ पड़ौ
पक्षे चोरी, पक्षे न्याय, पक्ष बिना सो धारो जाय।
दुनिया में सब काम दूसरों के बल या तरफदारी से ही होते हैं।
पे सो खाचे, रुचे सो बोले।
जो पे वही खाता चाहिए, जो बात दूसरों को अच्छी छगे वही कहनी चाहिए।
पर्जे कपृत, कबूतर पाले । आदे गोरे, आदे कारे॥
निकम्में लड़के के लिए ।
पटक दो, फिर तो हमने जानी।
पटक दो, मंछें हम उखार हलें।
पढ़िये भेय्या सोई, जामें हँड़िया खुदबुद होई।
वही पढ़ो जिसमें रोटी खाने को मिले।
पड़े-लिखे की चार आँखें होतीं।
पढ़ा-लिखा आदमी अधिक समझदार होता है।
पड़े-लिखे मूसर। ।
पढ़ा-लिखा मूख॑।
पड़े सुआ बिलइयन खाये।
कोरे अक्षर-ज्ञान से क्या होता है, यदि उसके साथ बुद्धि-विवेक न हो ? तोता
इतना पढ़ता है फिर भी उसे बिल्ली खा जाती है।
चतुराई क्या कीजिये, जो नहिं सब्द समाय ।
कोटिक गुन सूआ पढ़े, अंत बिलाईं खाय ।।
पड़ो तो है, पे गुनो नइयाँ।
केवल किताबी ज्ञान रखने वाले के लिए प्रयुक्त ।
पड़ो तो पड़ी, नई तो पिजरा खाली करो। |
काम करो या जाओ। पढ़ो या' रास्ता नापों।
पड़ौ पटदू सीताराम कई-हम तौ पढ़े पढ़ाये हें । ते
धूत को उपदेश देना व्यर्थ है।
स्काक रे 09 «४७«
शी
पनइयन |] [ ब॒न्देली कहावत कोश
पढ़ाओ पढ़े ना खूसर । नवाओ नवे ना मूसर॥
. मूर्ख पढ़ाने से नहीं पढ़ता। जसे मूसल झुकाने से नहीं झुकता ।
पतरीं चादत फिरो।
जूँठन खाते फिरोगे। बुरी गति होगी ।
पथरा का पसीजे ?
पत्थर क्या पसीजेगा ? अत्यंत कठोर चित्त से दया या कंजूस से दान की
आशा नहीं की जा सकती |
पथरा कों जोंक नई लूगत।
इसलिए कि उससे कुछ मिलने की आशा नहीं होती ।.
पथरा तरें हात दबो।
ऐसे संकट में पड़ जाना, जिससे छूटने का उपाय न दिखायी' देता हो। बुरी
तरह फेंस जाना। प्रायः किसी के पास रकम दब जाने पर कहते हैं।.._
पथरा तरें हात दब तौ स्पान से काड़ लेवे।
किसी चक्कर में फेस जाने पर चतुराई से काम लेना चाहिए।
पथरा पे नाव चलावो।
असंभव या अनहोना कार्य करना ।
पथरा से इंट कोरी होत। द
. पत्थर से इंट मुलायम होती है। दो हानिकर वस्तुओं में से जिससे कम हानि
होने वाली हो, उसको ही स्वीकार कर लेना चाहिए।
दगडापेक्षां वीट मऊ--मराठी
पथरा सें मूंड़ मारबो ।
ऊ के श्र कप.
असंभव कार्य को करने का प्रयत्न करना ।
पतइयन साँप साूरबो।
किसी संकट या दुष्ट से छुटकारा पाने के लिए अपर्याप्त साधन से काम लेना ।
बल हम ०८ --
हा
बन्देली कहावत कोदा ] [ पराई
पर घर कूदे मूसरचंद।
बिना बुलाये किसी के यहाँ जाना या किसी के काम में हस्तक्षेप करना
मु्खता है।
परदेस कलेस नरेसन कों।
घर से बाहर निकलने पर राजाओं को भी कष्ट होता है।
परदेसी की प्रीत, रेन कौ सपनो।
पर घन बाँध म्रखनाथ।
मूर्ख आदमी ही दूसरों की रकम अपने साथ लेकर चलता है।
परबस कौ जीबो बुर (अ) ओ।
दूसरे के' वश में रह कर जीना बूरा है।
पराधीन सपने सुख नाहीं।
परसन भई भवानीं, कौरन लागीं खान।
भवानी प्रसन्न हुईं तौ जूठ टुकड़ों से ही पेट भरने छगीं। मौज में आकर ओछे
से ओछा काम भी कर डालता |
पर हत बनज, संदेसन खेती, कड़वारे के दाम।
सजन सावगत जिन करौ, घर हटठकत है बाम ४
पराये हाथ से व्यापार, सँदेशों से खेती, और ऋण लेकर साहुकारी नहीं करनी
चाहिए ।
पराई आँखन देखबो।
दूसरे के भरोसे काम करना ।
पराई आसा, सरे उपासा।
दूसरों की आशा में रह कर भूखों मरना पड़ता है।
पराई कनक पे कंडा बीनबो। हि
दूसरों के आटे के भरोसे ईंधन इकट्ठा करना।.
439.
ब् ०० १४
पराये | [ ब॒ुन्देली कहावत कोश
पराई पतरी कौ बड़ो बरा। क्
दूसरे के हिस्से में आयी हुईं वस्तु सदेव अच्छी लगती है।
परायी थाली में घी घणो---राज०
पराओ घर थक को डर।
दूसरों के घर रहने में सुख नहीं ।
परेर घर ढुकते डर निजेर घर हेंगे भर--बंगला
पराओ समंड़ पसेरी सो।
. किसी दूसरे के दुख-दर्द या पैसे की कोई परवा न करना |
पराई सराय॑ कों धुआँ देतन कोऊ नई देखत ?
दूसरे के घर में लगी आग कोई नहीं देखता ।
पराये कंदा पे होके बंदूक घालबो।
दूसरों की ओठट लेकर काम करना । टट्टी की ओट शिकार ।
पराये खसम के लानें सत्ती होवो।
किसी दसरे के लिए व्यर्थ कष्ट उठाना । झूठी सहानुभूति दिखाना ।
पराये घर की थाती।
दूसरे की धरोहर । ऐसी वस्तु जिसे बहुत दिनों तक घर में रखा न जा
सके । विवाह योग्य हुईं स्थानी लड़की के लिए प्रयुक्त ।
पराये घर को ईंधन।
दे० ऊपर ।
पराये धन पे लच्छमी नारायन।
दूसरों के माल पर गुलछर उड़ाना।
(भोजन के पहिले जय लक्ष्मीनारायण कहने की प्रथा बुन्देछखंड में
प्रचलित है।)
पराये पृतन की आसा।
दूसरे के लड़के से सहायता की आशा (व्यर्थ है।)
कल
“ २१० -
बुन्देली कहावत कोश ] | पसेरी
पराये पृतन सपुती होबो।
पराये पुत्र के सहारे अपने को पुृत्रवती मान लेना। दूसरे की वस्तु को
अपनी समझ लेना, और यह आशा करना कि समय पर वह काम भी
देगी ।
पराये मार्थें सिल फोरबो |
दूसरों को संकट में डाल कर अपना काम बनाना। आयी हुईं विपत्ति दूसरों
के सिर मढ़ना ।
परेर माथाय कांठाल भांगा ।--बंगला
(पराये सिर पर कटहल फोड़ना)
पराये सेंदुर प॑ मड़ फोरबो।
दूसरे के सुख-सोभाग्य पर ईर्ष्या करना ।
परी गरज मन और है, सरी गरज सन और।
गरज पड़ने पर आदमी का मन जैसा रहता है वेसा गरज पूरी होने पर नहीं
रहता ।
परी बिछौना फूहर सोबे, राँधो खाये कुत्ता ।
निकम्मी और आल्सी स्त्री के लिए
परेवा की सोर।
कबूतर की सोहर। कहते हैं कबृतर की मादा साल में बराबर अंडे देती
रहती है। उसी प्रकार किसी घर में जब निरंतर बच्चे पैदा होते रहते हों,
और कोई-त-कोई स्त्री सोहर में पड़ी रहती हो तब प्रयुक्त ।
पल में परलय होत।
पल में प्रलय होती है। क्षण भर में न जाने क्या से क्या हो सकता है।
पसीना निचोय कौ पहइसा।
परिश्रम की कमाई।
पसेरी उठ ना, ब्याई को मूंड़ मार ।
पसेरी तो उठती नहीं, फिर भी तौलाई का ठेका लेना चाहते हैं ॥ काम करने
की सामथ्ये न होने पर भी उसके लिए हठ करना ।
कु कं
है.
गा मो
पाँच ] [ बुन्देली कहावत कोश
पसेरी भर कौ मूंड तो हलाउत, पहइसा भर की जीब नई हला पाउत।
जब कोई आदमी, विशेषकर कोई छोटा लड़का, किसी बात के उत्तर में
केवल अपना सिर हिला देता है और स्पष्ट रूप से हाँ या ना कुछ नहीं कहता
तब कहते हैं।
पहिरिये खदा, निर्भेये सदा।
(१-मोटा कपड़ा, खादी।) मितव्ययिता से रहने पर आदमी को जीवन
में कभी कष्ट नहीं उठाना पड़ता ।
पाँख को परेबा करबो।
बात का बतंगड़ बनाना ।
“कातन झूठ साँच ना डरतीं, हेरत बींगें घरतीं।
कैना चूक परौ का कइये, कातन जीब पकरतीं।
ऐसी पूरी बिना परोजन, आन बीच में परतीं।
इन खाँ राम दईना मौतें, सौतें हमें अखरतीं।
ईं ब्रज की ब्रजनारी ईसुर, पांख परेवा करतीं॥”
पाँचऊ उंँगरियाँ एक सी नई होतीं ॥
सब मनुष्य समान नहीं होते।
पाँचऊ घी में ।
पाँचों उंगली घी सें। जिसके खूब छकक््के-पंजे उड़ रहे हों उसके लिए।
पाँच पंच मिल फीजे काज । हारे जीते ना आये लहाज ।॥।
काम सबकी सलाह से करना चाहिए।
पाँच पंडबा और छेंट (अ) ये नरायत। (अथवा छेंठ (अ) ईं द्रोपदी) ।
जब कुछ आदमियों में एक और आदमी ऐसा आकर मिल जाये जो उनसे
विशेष चतुर हो तब व्यंग्य में |
पाँच पचासे ले गई, पाँच ले गई एक।
एक टकौना एक ले गईं, परी परी दिन लेख ॥
ब्याज की छालच में आदमी मूल से भी हाथ धो बैठता है।
- २१२ -
बन्देली कहावत कोश | [ पाँव
कथा---किसी स्त्री के पास पचास रुपये थे। उन रुपयों को उसने सुद पर
लगाना चाहा। घर के लोगों से छिपा कर उसने पचास रुपया एक मनुष्य को
एक महीने के वादे पर उधार दिये और दस रुपया सैकड़ा की दर से पांच
रुपया ब्याज के पहिले से ही काट लिये। फिर वह पांच रुपया उसने एक
दूसरे मनुष्य को एक महीने के वादे पर दिये और ब्याज का एक रुपया
काट लिया। इसी प्रकार वह एक रुपया भी उसने एक टका पहिले ही ब्याज
का काट कर एक तीसरे मनुष्य को दे दिया। परन्तु उन तीनों ही आसामियों
में उसका रुपया मारा गया।
पाँचें आस, पचीसे इमली।
पाँच वर्ष में आम और पच्चीस में इमली फल देती है।
पाँचे मित्र, पचासे ठाकुर, सौओे सगो, उर एके चाकर।
पाँच रुपये में मित्र, पचास में जमीदार, सौ में दामाद, और एक रुपये में
नौकर संतुष्ट हो जाता है।
पॉडेज की घुरिया हो रइ। .
ऐसी वस्तु जिसे चाहे जो माँग ले जाये।
पॉडेज् दोऊ दीन से गये।
दो में से एक भी कायें सिद्ध नहीं हुआ ।
पॉडेज् पछतेयें, बेई चनन की खेयें।
हार कर वही काम करना जो पहिले बहुत मनाने पर भी न किया हो ।
पाँत में दुभाँत करबो। द
किसी समाज में छोगों से अलग-अलग तरह का व्यवहार करना ।
पाँवन में का समाँदी रचायें ?
पैरों में क्या मेंहदी रचाये हो, (जो इतना सुस्त चलते हो ।) शीघ्र काम न
करने पर प्रयुक्त ।
पाँव में भोरी है।
ऐसे आदमी के लिए कहते हैँ जो किसी एक स्थान पर जम कर न बैठ सके ।
“ २१३ - १
क्
पानी |] [ बन्देली कहावत कोश
पाँव में सनीचर है।
एक स्थान पर सुखपूर्वक न बैठ सकना। घूमते ही रहना।
पाँसो पर , अनाड़ी जीते।
पाँसा ठीक पड़ने से अनाड़ी भी जीतता है। अथवा पाँसा ठीक पड़ने से ही
अनाड़ी जीतता है। भाग्य अनुकूल होने से ही कार्यसिद्धि होती है ।
पाँसो पर सो दाव, राजा कर सो न्याव।
भाग्यवश जो सामने आ जाय उसे स्वीकार करना पड़ता है।
पाई-पुरिया सी पुरत फिरत।
किसी एक स्थान पर बार-बार इधर से उधर निकलने और काम में अड़चन
डालने वाले ऊधमी लड़के के लिए प्रयुक्त । (ताना बनाने के लिए एक
निदिचत लंबाई के भीतर थोड़ी-थोड़ी दूर पर गड़ी हुई चौमुखी लकड़ियों में
सूत भरने को पाई-पुरिया पूरना कहते हैँ। यह काय॑ प्रायः स्त्रियाँ ही करती
हैं। पुरिया पुरते समय वे बड़ी तेजी से एक छोर से दूसरे छोर पर जातीं
और वापिस लौटतीं हैं।)
पाछली रोटी खायें, पाछली बुद्ध होत ।
तवे पर जो सबसे अंत में रोटी सिकती है वह बच्चों को खाने को नहीं दी
जाती। लोक-विश्वास है कि उसके खाने से बुद्धि मंद होती है।
पाठे! की जर पाठो जाने।
(१-दृूर तक फैली हुई चौड़ी चट्टान।) जिस आदमी की कठिनाई वही
जानता है।
पान पुरानों घृत नयो उर कुलवंती नार।
जे तीनउँ तब पाइये जब प्रसन्न करतार॥
पान-फूल हो रये।
सुकुमार व्यक्ति के लिए । है
पानी उतर गओ॥।
इज्जत-आबरू चली गयी।
- २१४ -
ब॒न्देली कहावत कोश ] [ पानी में
पानी कौ ड्बो सुकौ नई कड़त।
किसी बुरे काम में पड़ने से उसका कुछ-त-कुछ परिणाम भोगना ही पड़ता है।
पानी घरबो।
उत्तेजित करना । उकसाना।
पानी नों पौंचे नइयाँ, रेवता से बेंसा छाँटत।
पानी तक पहुँचे नहीं, रेवता से ही हाथ-पैर फेंकते हैं। किसी काम के लिए
झूठ-मूठ ही परिश्रम करना।
पानी पीर्क जात पूछबो ।
बिना सोचे-विचारे काम करना ।
पाती पीजे छान कें, गुरू कौजे जान के ।
पानी छान कर पीना चाहिए और गुरू देखभाल कर करना चाहिए।
पानी पी पी कोसबो ।
मन ही मन शाप देना ।
पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोई हात उलीचिये, यहीं स्थानों काम ॥
पानी बिन जिन्दगानी कौन काम की ।
मान-सम्मान के बिना जीवन किस काम का ?
पानी भरी खाल।
अनित्य या क्षण-भंगूर शरीर ।
| तुलसी को भलो में तुम्हारे ही किये क्ृपालु,
कीजे न विलम्ब बलि पानी भरी खाल है।
पानी से आग लगाबो ।
जहाँ झगड़ा संभव न हो वहाँ झगड़ा कैरा देना ।
पानी में परबो।
नष्ठ होता । बरबाद होना ।
कक २ 4 प् न
श्र
पारें ] [ बन्देली कहावत कोश
पानी में मीन प्यासी।
साधन-सम्पन्न होते हुए भी किसी वस्तु के लिए तरसना ।
पानी से पतरो का ?
कहीं माँगने पर पानी भी न मिले तब प्रयुक्त ।
पाप-पुश्चन कौ कोऊ भागी नई होत ॥
पाप-पुण्य का फल अपने ही को मिलता है।
पापी कौ धन अकारथ जाय।
बुरी कमाई व्यर्थ जाती है।
पापी कौ धन लाबर खाय।
दे० ऊपर।
पापी पेट सब कराउत।
पेट के लिए सब करना पड़ता है।
पार फट परो।
पहाड़ फट पड़ा। अचानक कोई भारी विपत्ति आ पड़ना ।
पार भये तो पार हूँ, डब गये तो पार।
परिणाम हर हालत में अच्छा होगा, यह सोच कर किसी काम को करने का
निश्चय करना।
पारवा दूर केई सुहावने लगत।
पहाड़ दूर के ही सुहावने लगते हैं ।
पारवा से मंड सारबी।
असंभव कार्य को करने का प्रयत्न करना ।
पारे सें खटको नई होत।
( १-पारा, कत्तन ढकने की मिट्टी की तश्तरी ।) पूर्ण निस्तब्धंता है। लड़ीई-
झगड़ा शानन््त है। किसी को किसी से बोलने की हिम्मत नहीं पंडेती ।
द -“ २१६ -
बन्देली कहावत कोश | द | पीसवे
पावन” गयें भसावन । सेरो' गयें बसंत ॥।
( १-त्यौहार। २-एक प्रकार के गीत जो बसंत में गाये जाते हैं।) बे अवसर
का काम । समय के बाद पर्व नहीं मिलता, सैरा बसंत के बाद अच्छा
नहीं लगता।
पिजरा के पंछी नाई फरफरा रये।
बहुत व्याकुल । ह
पिड में सो ब्रह्माण्ड में।
मनुष्य के शरीर में जो ईश्वर निवास करता है वही ब्रह्मांड में व्याप्त है।
पिठी' सी बाँठबो।
( १-उद्द की पानी में धुली और बॉँटी हुई दाल।) किसी को खूब मारता,
मरम्मत करना ।
काँच से कचरि जात सेस के असेस फन,
कमठ की पीठि पे पिठी सी बाँटियतु है ।--भूषण
पित्त उबलबो।
पित्त गरम होना। शीघ्र कद्ध हो उठने की प्रवृत्ति होना ।
पीठ की मार मारे पेट की न सारे।
किसी को शारीरिक दंड भले ही दे, परन्तु रोज़ी न छीने ।
पीठ पाछ कछ होबें।
पीठ पीछे कुछ भी होता रहे, हमें क्या ?
पीठ में लट्ट भवानी करे, सबरो घर पूजा को चले।
आपत्ति आने पर ही लोग भगवान का स्मरण करते हूँ ।
पीपराम्र की जर हो' गये।
( १-पीपछामूछ, एक प्रसिद्ध औषधि |) कोई आत्मीयजन या घन्िष्ट मित्र
जब बहुत कम दिखायी दे तब प्रयुक्त ।
पीसवे कों चललोसन', गावे कों सीता हरन।
(१-चोकर |) दिखावट तो बहुत, परंतु सार कुछ नहीं ।
पुराने ] [ ब॒ुन्देली कहावत कोद
पुआ पकावो।
मन के लड्ठ, खाना।
पुन चंदन, पुन पानी; सालिगराम घुर गये तब जानी।
किसी काम को बार-बार करके अंत में उसे बिगाड़ देना ।
कथा-एक सेठ जी शालग्राम के बड़े भक्त थे और दिन भर उनकी पूजा किया
करते थे। एक दिन उनकी स्त्री ने उनके इस अभ्यास को छुड़ाने के लिए शाल-
ग्राम की मूर्ति के स्थान पर एक काला जामुन लाकर रख दिया। नित्यप्रति
॥० मी... आक.]
की तरह सेठ जी पूजा करने बैठे तो नहलाते समय ही उँगली की रगड़ से जामुन
घुल गया। सेठ जी ने घबरा कर अपनी स्त्री को बुलाया और कहा, देखो आज
हमारे शालग्राम जी को क्या हो गया है ? स्त्री ने कहा--हो क्या गया ? दिन-
भर पानी से नहछाते थे, इसलिए घुल गये हें। अब बैठे रहो। किसकी पूजा
करोगे ?
पुत्नई आड़ आऊत।
पुण्य ही समय पर मनुष्य की रक्षा करता है।
पुत्र करो बीस बिसी, खोज मिदाओ तीस बिसी।
दूसरों का उपकार तो उतना नहीं किया, जितनी स्वयं अपनी हानि कर ली !
पुन्न की जर पताल नों।
पुण्य की जड़ गहरी होती है। किया हुआ सत्कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता।
पुरखा तो मर गये क्वाँरे, नाती (अ) न के नौ नौ ब्याव।
बहुत डींग हाँकने वाले के लिए।
पुराने सठ पे कलई करबो।
किसी पुरानी वस्तु को नयी बनात़े का वृथा प्रयास करना । बुढ़ापे में जवान
बनने की चेष्टा । ह
पुराने चाँवर। «
घिसा-पिसा, अनुभवी आदमी ।
द् «एक जिस
]
बन्देली कहावत कोश ] [ पूरब
पुराने पापी।
ऐसा आदमी जो दुनिया के सब रंग-ढंग देख चुका हो; किसी विषय में जिसका
अनुभव बहुत दिनों का हो। (व्यंग्य में) ।
पुरुस (अ) ई पारस है।
पुरुष ही पारस है । एक मनुष्य ही दूसरे को अच्छा बनाता है।
पुरुस की साया, बिरछ की छाया।
संसार में पुरुष की ही माया है। पुरुष ही संसार का श्रेष्ठतम प्राणी है, अथवा
उसको लेकर ही यह संसार-चक्र चल रहा है।
पूंछत पूँछत लंके चले जात।
किसी स्थान का रास्ता न भी मालूम हो तो भी आदमी पूंछते-पूंछते वहाँ जा
सकता है।
पूंछता नर पंडित। ही
दूसरों से पूंछ कर काम करे वही पंडित है। पूंछने से ही आदमी का ज्ञान
बढ़ता है।
पूंछबे में का लगत ?
पूँछने में क्या लगता है ? किसी से कोई बात पूछने में संकोच क्या ?
पृत के पाँव पलना में दिखा परत।
लड़कपन के आचरणों से ही इसका पता चल जाता है कि आगे चल कर लड़का
कैसा निकलेगा। किसी कार्य के लक्षण पहिले ही से दिखायी पड़ जाते हैं।
पृत के नाव पुतांड़ी' भली।
( १-चौका पोतने के काम आने वाली हाँडी ।) लड़का चाहे जैसा बुरा हो,
परन्तु न होने से तो अच्छा।
पुरब के भान पच्छिम में उयन लगें।...., 5
किसी काम को न करने अथवा किसी के आगे न झुकने की प्रतिज्ञा ।
पुरब जनम के फल भोग रये। हे
पूर्व जन्म के फल भोग रहे हैं। प्रायः बीमार कहता है।
4:55 का
|
पेट ] [ बन्देली कहावत कोश
पुरी खेती उनकी कहें, जो हल अपने हात गहें।
आदी खेती उनकी कहें, जो नित हलके संग रहें।
बये बीज उपजे नहिं तहाँ, जो पुछें के हर है कहाँ॥
खेती' अपने हाथ से ही' होती' है।
पुरी बिजत्तर।
विकट स्त्री ।
पुरे गुरूघंटाल।
बहुत बड़ा चालाक।
पूरो परबो।
पूरा पड़ना। काय॑ पूर्ण हो जाना। सत्यानाश हो जाना |
पुस जाड़ो न साव जाड़ो, जबे पानी तबई जाड़ो। .
सर्दी न तो पूस में पड़ती है और न माघ में, जब पानी बरसे तभी समझो
सर्दी।
पुस बोवे, पीस खाबे।
पूस में कोई अनाज बोने की अपेक्षा तो अच्छा यह है कि उसे पीस कर खा ले ।
पेट कराबे बेठ ।
.. पेट बेगार कराता है।
पेट की आग पेटई जानत।
पेट की आग पेट ही जानता है। भूखे का कष्ट भूखा ही जानता है।
पेट की आसा सब करत । |
पेट के लिए ही सब काम किया जाता है। जब किसी नौकर या मजदूर को
मेहनंताता कम मिलता है तब
पेट के आँगे सब हेट।
पेट के आगे सब वस्तु नीची। पेट सबसे बड़ा।
- २२० -
बुन्देली कहावत कोश ] | पेट सबके
पेट के पथरा प्यारे होत।
पेट के पत्थर भी प्यारे होते हैं, फिर लड़का चाहे जैसा निकम्मा हो, वह तो
प्यारा होगा ही ।
पेट कौ पानी न पचबो।
किसी बात को कहे बिना चैन न पड़ना ।
पेट परी गुन देतीं।
पेट पड़ी रोटियाँ समय पर काम देती हैं।
पेट भरे से काम गकरिया' काऊ की ।
( १-हाथ की बनी मोटी रोटी । ) रोटी किसी अनाज की हो, पेट भरने से काम ।
पेट में उरदा से चुर रये। ।
पेट में उर्दे से पक रहे हैं। अतिष्ट की आशंका से घबराना। बहुत चिन्तित
होना।
पेट में रई सी फिर रई।
पेट में मधानी सी फिर रही है। हृदय धड़क रहा है। घबराहट हो रही है।
पेट में लात मारबो।
किसी की रोजी छीतना।
पेट रबो।
. अवध रूप से गर्भ रह जाना।
पेट से होबो।
गर्भ से होना ।
पेट लूगौ फटबे, खैरात लगी बटबे।
आपत्ति में पड़ने पर ही मनुष्य दान-पुण्य करता है।
पेट सब कराउत। ह॒
पेट के लिए अच्छे-बुरे सब कर्म करने पड़ते हैं।
पेट सबके लगो।
पेट की चिन्ता सबको करनी पड़ती है।
बा 5
पेली ] | बुन्देली फहावत कोश
पेट से कोऊ सीक के नई आऊत।
पेट से कोई सीख कर नहीं आता । परिश्रम और अभ्यास से ही मनुष्य सब
सीखता है।
पेट से पथरा बाँदबो ।
भूख सहन करना।
पेड़ सें बेर, पतोरन सें नातो।
काम की वस्तु छोड़ कर निकम्मी ग्रहण करना। वृक्ष से शत्रुता और पत्तों
से प्रेम ।
पेंड पेंड पे कुनबा डूबे, आँगें धरमराज दरबार।
पग-पग पर तो कुनबा डूब रहा है, और आगे धर्मराज का दरबार है, जिसमें
हिसाब देना है। किसी काम को करने के मार्ग में जब बाधाएँ पर बाधाएँ
आ रही हों, और काम बिलकुल सिर पर आ गया हो तब प्रयुक्त ।
परी ओढ़ी धन दिपे, लिपौ पुतो घर खिले।
गहने-कपड़ों से सजी स्त्री शोभा देती है, लिपा-पुता घर अच्छा लगता है।
लेपले पूछले बाड़ी, सजले गुजले नारी--बंगला
लीप्यूं गृप्यू आंगण् ने पहेरी ओढ़ी नार --गुजराती
पेंली छेरी, दुसरी गाय, तिसरी भेंस दुही न जाय।
बकरी पहले ब्यान में, गाय दूसरे में, और भैंस तीसरे में अच्छा दूध देती है ॥
पेली ताप तुरइया बसी, खीरा देखें खिलखिल हँसी।
जब लओ फूट कौ नाव, डंका देक गेरो गाँव॥
ज्वर का पहला आगमन तुरइया के साथ होता है, खीरा देख कर तो वह बहुत
प्रसन्न होता है और फूट का नाम लेते ही डंके की चोट गाँव घेर लेता है। अर्थात
क्वॉर, कात्तिक के महीने में तुरशया, खीरा और फूट के खाने से ही ज्वर
फैलता है। लोक विश्वास ।
ताव कहे हुं तुरिया मां बसूं ने गलक् देखी खड़खड़ हंसु |
जेने घेर जाडी छास, तेने घेर माहरो वास।“-गुज०
हर जल
|
बुन्देली कहावत कोश ] [ पैलें घर
पेली बिपत बड़ो होय नाव । दृजी बिपत सड़क कौ गाँव॥
तीजी बिपत धनऊ सें हीन । सब बिपतन में बिपता तीन॥
पहिली विपत्ति तो यह कि नाम बड़ा हो, दूसरी यह कि सड़क के किनारे
गाँव हो, तीसरी यह कि पैसा पास में न हो, सब विपत्तियों में ये तीन ही बड़ी'
विपत्तियाँ हैँ ।
( नाम बड़ा होने और सड़क के किनारे ही गाँव होने से मेहमान बहुत आते हैं।)
एक दुखेर दुखी आमि गाँयेर कूले बाड़ी।
एक दुखेर दुखी आमि छेले वयसे रांडि।
एक दुखेर दुखी हुई आमि धार करि।
एक दुखेर बूड़ो अमि शेषे बिया करि।
“बंगला
(एक तो में इस दुख से ढुखी हूँ कि गाँव' के किनारे घर हे, एक इससे कि बाल्या-
वस्था में रांड़ हो गयी, एक इससे कि ऋण लेता हूँ, एक इससे कि बुढ़ापे में विवाह
किया।)
पेल अपनी आँख कौ मूसर तौ काड़ो। (फिर दूसरे की आँख कौ तिनका काड़ियो )
पहिले अपनी विपत्ति से छुटकारा तो पाओ ।
पलें अपने मों में मुसीका' देओ।
( १-वह जाछीदार पट्टी जो बैलों के मुँह पर इस उद्देश्य से बाँधी जाती है कि
खलिहान में काम करते समय वे अनाज पर मुँह न मारे।) पहिले अपना
मुँह तो बंद करो। (फिर दूसरों से चुप रहने को कहना।)
पेलें आरसी में अपनो मों तौ देखो।
मोहन हँसबो होत उजा को, छोड़ो ऐसो साको।.
हों कुलबध् साव की बेटी, रहनो बड़े मजा को ।
बात न कहो हाथ न पकरो, जौ है काम रजा को ।
ईसुर स्याम औरसी लैकें, अपनो मुख तौ ताको।
“-+ईसुरी.
पैलें घर, पाछें बाहर ।
पहिले अपना घर संभाले, फ़िर बाहर।
कन्क २ २ रे हवन
पैलो ] [ बन्देली कहावत कोश
पैलें मार, पाछें सेमार।
पहिले आगे बढ़ कर दुश्मन पर हाथ जमा देना चाहिए, बाद में अपने को
सभालना चाहिए।
पल मारे सो मौर।
पहिले ही कार्य सम्पन्न करने वाला मुनाफे में रहता है।
पेलें मुंड कटौवल, फिर धरमराज। |
पहिले तो किसी काम के लिए कष्ट भोगना पड़ता है । फल बाद में मिलता है ।
पेलें लिख, पाछें दे, भूल परे तो मोसें ले। .
पहिले लिख कर बाद में देने से हिसाब में गड़बड़ नहीं पड़ती ।
पैलें हंस लो, को बात कर लो।
पहिले हँस लो, या बात कर लो। दो काम एक साथ नहीं होते।
पैलेई कौर माछी परी।
पहिले कौर में ही मक्खी पड़ी। कार्य के प्रारंभ में ही विध्त हुआ।
प्रथम ग्रासे मक्षिकापात:---संस्कृत
पेलेई चुमा गाल काट खाये।
किसी अवसर से अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिए ऐसी हड़बड़ी करना
कि सारा काम ही चौपट हो जाय तब ।
पेले दिना कौ पाउनो, दूसरे दिना कौ पई, तीसरे दिना रये तौ बेसरम सई।
किसी के घर एक दिन रहने वाला ही पाहुना कहलाता है, दो दिन रद्दे वहे
पथिक है और तीन दिन रहने वाले को तो पक्का बेशरम समझना चाहिए।
पैले पारें सब कोऊ जागे, दूजे पारें भोगी।
तीज पारें रोगी जागे, चौथे पार जोगी।॥
रात्त के पहिले पहर में सब कोई जागते है, दूसरे में भोगी, तीसरे में रोगी और
चौथे पहर में योगी जागता है।
पलो गाहक परमेसुर बिरोबर होत।
पहिला ग्राहक परमेश्वर के समान होता है॥ दूकानदारों का विश्वास
अल
“८ श२२४ -
बुन्देली फहावत कोश ] [ओैनी
पेलो म्रख फाँदे कुआ । दृजो म्रख खेलं,जुआ।
तीजो म्रख बहिन घर भाई । चौथो म्रख घरे जमाई॥
पहिला मूर्ख तो वह जो कुआँ फाँदे, दूसरा वह जो जुआ खेले, तीसरा वह जो
अपनी बहिन के घर जाकर रहे, चौथा वह जो ससुराल में रहे ।
पेछो सुक्ख निरोगी काया | दूजो सुक्व होय घर माया।
तोजो सुक्ख पुत्र अधिकारी । चौथो सुक्ख पतितब्रता नारी॥
पहिला सुख शरीर का नीरोग रहना, दूसरा घर में घन-सम्पत्ति का होना,
तीसरा योग्य पुत्र का होना और चौथा पतितव्रता स्त्री का पाना है।
पोपाबाई कौ राज।
अंधेरखाता। कहा जाता है कि पोपाबाई गुजरात के एक छोटे प्रदेश की
रानी थीं। उनके राज्य में इतना अंधेरखाता था कि वह कुशासन और
कुव्यवस्था का प्रतीक बन गया है। और उनके नाम से उपयुक्त कहावत
चल पड़ी है।
पोली' भरे कोदों, मिरजापुर की हाठट।
( १-अनाज नापने का बतन जो रूगभग आध सेर का होता है।) छोटे
काम का बड़ा आयोजन ।
पौनी खों बछिया मारी, गौना सुंगाउत फिरे।
पौनी की रक्षा के लिए बछिया को मारा, बाद में उसे सूत का पूरा बंडल
सुँघाते फिरे। मामला जब' बिलकुल उल्टा हो जाय, सोचा कुछ और हो,
हो कुछ और जाय, तब प्रयुक्त ।
कथा-एक बार एक कोरी अपने घर के सामने बेठा बाहर मैदान में चरखा
कात रहा था। इतने में पीछे से एक बछिया आयी और चुपचाप एक पौनी मुँह
में लेकर भागने छगी। कोरी ने देखते ही गुस्से में उसे एक डंडा उठा कर मार दिया,
जिससे बछिया मूच्छित होकर गिर पड़ी। कोरी यह देख कर घबरा गया और
सोचने छुगा कि ऐसा न हो कि बछिया मर जाय तो उल्टी आफत सिर आयेगी।
पहिले तो उसने उसे उठाने का प्रयत्न किया। परन्तु जब बछिया किसी प्रकार
चेत में नहीं आयी तो यह सोच कर कि यह पौनी की भूखी थी, इसलिए सूत
का प्रा. बंडल सामने रखने और थोड़ा-बहुत खिलाने से दायद होश में आ जाय,
े
शा, 5 आर
बु० न १० सन
फर सो ] [ बुन्देली कहावत कोदा
भीतर से एक पूरा बंडल उठा लाया और बार-बार उसे सुंघाने लगा। परन्तु
इससे बछिया को होश क्यों आने चला था। थोड़ी देर बाद अपने आप ही चेत
में आयी और उठ कर चली गयी।
पौनी सो पेट, बऊँ सार गई जेट ।
( १-जूड़ी स्त्री)
पेट तौ पौनी की तरह मुलायम, परन्तु रोटियों का ढेर का ढेर बऊ ने खा लिया !
परौबारा हैं। _
लाभ का अवसर मिलना। जीत होना। चौपर के खेल में पौ बारा का दावें
बहुत अच्छा माना जाता है।
प्रीत करे कौ जौ फल पाओ, अपुन थुके उर हमें थुकाओ।
प्रेम करने का यह फल मिला कि स्वयं भी बदनाम हुए और हमें भी बदनाम
कराया।
फ |
फटकचंद गिरधारी, जिनके लोटा ना थारी।
फकक््कड आदमी ।
फटे लंगरे और बड़े बाप-सताई की काँ नों लाज-सरम कर ?
न तो फटे छगरे को ही अलग किया.जा सकता है, और न बढ़े माँ-बाप या सास-
ससुर को ही। उनको लेकर काम चलाना ही पड़ता है।
फट्टां लौट गओ !
.. व्यापार में हानि हो गयी। दिवाला निकल गया।
फरिया न सारी बड़ी. सोभा हमारी।
पहिनने को न तो फरिया है न सौड़ी, फिर भी अपने को बहुत सुन्दर समझती है।
फर सो नव।
दे० नमें सो भारी ।
0
बुन्देली कहावत कोश ] [ फ्रे
फलाने की मताई ने बुंस करो, बुरओ करो, कई छोड़ दओ, और बरओ करो।
दे० तुमाई मताई ।
फाग को फाग खेल लई और आँग बचा लओ।
अपना काम बना कर चुपचाप अलूग हो जाता और दूसरों को आलोचना का
अवसर न देना।
फाग के कुंटे और दिवारी के लूठे कों कोऊ नई पूँछत।
होली के हुल्लड़ में यदि कोई पिट जाय और दिवाडी में जुए में हार जाय तो
उसके लिए कौन चिन्ता करता है ?
फाग खेलत और आँग बचाउत।
झगड़े में पड़ना भी चाहते हैं और अपने को अलूग.भी रखना चाहते हैं, ये दोनों
बातें कैसे संभव हें ?
फिकर फकीरे खाय।
चिन्ता तो फकीर को भी खा जाती है।
फिकार' से अजंवान बनाउत फिरत।
( १-एक मोटा अनाज ।) ऊठ-पटाँग काम करना। किसी साधारण वस्तु
से बड़ी कीमती वस्तु बनाने का प्रयत्न करना ।
फिर बेई मोची के मोची ।
जैसे थे वेसे ही फिर हो गये।
फिर तौ चर।
मैदान में चलने-फिरने ही से ढोर को चरने के लिए घास मिलती है।. एक
जगह बैठे रहने से पेट कैसे भर सकता; है ? न
फुर मंत्र जब कीज दुराउ।
फूंक फूंक के पाँव घरनो।
बहुत सभमल कर चलना ।
हर ले मी
फहर ] [ ब॒न्देली कहावत कोंदी
फूँद में हो सरक गये।
किसी काम की जिम्मेवारी से अपने को होशियारी से बचा ले गये ।
फूटी तौ सय्ये आँजी न सययें।
आँख फूट जाय वंह स्वीकार, परन्तु अंजन का कष्ट सहना स्वीकार नहीं। '
थोड़े से खर्चे या असुविधा के पीछे अपनी बड़ी हानि कर लेना ।
लोकरीति फूटी सहै, आँजी सहें न कोइ।
तुलसी जो आजी सहै, सो आँधरो न होइ॥।
फूटे ढोल।
बकवादी आदमी |
फूटे बासन पे कलई करबो।
पुरानी वस्तु को नयी बनाने का व्यथ प्रयत्त करना।
काए को अँगिया में कसतीं, करतीं रोज निरौनें।
ईसुर ई फूटे बासन पै, कलरई करें का होनें।
फूल तो कपास कौ और फूल काय कौ । दृद तो माय कौ और दृद काय कौ।
पूत तो गाय कौ और पूत काय कौ । राजा तो मेघराज और राजा काय कौ।
फूल न पाती, देवी हा! हा!
झूठा प्रेम दिखाना ।
फूस को तापबो, उधार को खाबो।
दे० उधार को खानो ।
कहर की कड़ी।
निरर्थक कार्य । *
फूहर कौ मेल फागुन से उतरत।
फूहड़ का मैल फागुन में उतरता है। रंग पड़ने पर उसे विवश होकर नहाना
पड़ता है। क>. 5 5०]
लि २२ ८ न
बुन्देल्ो कहावत कोझ | . [बह
फूहर चाले सब घर हाले।
फूहड़ के चलने से सब घर हिलता है। बेशऊर भौरत ठीक ढंग से चलना भी
नहीं जानती ।
फेरफार चुटिया पे हात।
घ॒मा-फिरा कर फिर वही बात।
फोकट कौ मिले तो हमकों ल्याइयो।
मुपत का माल हमको भी देना।
ब्
बेंदरा बेला जेठो पूत, जो बिरे कौ कड़े सपृत।
भूरे रंग का बैल और जेठा लड़का जिस किसी का ही अच्छा निकलता है।
बेंदी मुठी लाख को।
जब तक किसी के घर की असलियत लोगों पर प्रकट नहीं होती तब तक वह
बड़ा आदमी ही माना जाता है। |
बेंदी मुठी लाख की, खुले पाछें खाक की।
झाँकली मूठ सव्वा लाखाची---मभराठी
बंदी रहे, न ठके बिकाय।
चीज रखी भले ही रहे, परन्तु ठीक द्वाम पर ही बिकेगी ।
बऊ आई तो सबने जानीं।
विशेष घटना घटित होने पर सब पर प्रकट हो जाती है।
बऊत गंगा में हात धोलो।
चलते काम में यश ले लो।
बऊ नौनों के बेगर ।
(१--अचार का मसाला |) बहू अच्छी या बेगर? पैसा खर्च करुने से ही...
काम अच्छा बनता है। उसके लिए किसी को श्रेय देना व्यर्थ है।
ब्रक नौनीं के घी सककर। ह
दे० ऊपर ॥ द द
न रेरेए, न.
बछेरू, | [ बुन्देली कहावत कोश
बऊ सरम की, बिटिया करम कौ।
बहू लज्जाशील और बेटी भाग्यवान अथवा कर्मठ अच्छी होती है। :
बखत चूक जुगन को फेर। |
समय चूकने पर युगों का अंतर पड़ जाता है। बीता अवसर हाथ नहीं आता
बखत परे की बात। |
भाग्य की बात।
बखरोी में हर बंधाव, जोतो का मझोटो ?
: घर में हल मेगा कर रखा, तो क्या आँगन जोतोगे ? कोई बड़ा काम छिपा कर
' ' नहीं किया जा संकता । अथवा जो काम' जहाँ करने का है वहीं किया जाता है।
बगलें बजाबो।
बहुत आनंद मनाना ।
बचसन की बाँधी लच्छमी।
लक्ष्मी सत्य के वश में है।
बचन-खचन को सीताराम।
किसी को बची-खुची वस्तु देकर टरकाना |
बछिया के ताऊ। .
मूर्ख ।
बछेरू से लगे ना, खंचारी' से लगा दे।
(१--मरे हुए बछड़े की खाल का बना ढाँचा जो दूध देने वाली गाय का
बछड़ा मर जाने पर उसे दुहने के लिए काम में छाया जाता है।)..
जीवित बछड़े की सहायता से तो गाय लूगती नहीं, और मरे हुए के खल्लर से...
लगाने के लिए कहते हैं। जो काम किसी बहुत उपयुक्त साधन से भी नहीं
हो सकता उसे एक अंनुपयुक्त और अधूरे साधन से करने का व्यर्थ प्रयास. .
करना । ; हे
+ २३० -
बन्देली कहावत कोई ] [ बड़त की
बजार भाव पिटबो।
बुरी तरह पीटना। मरम्मत होना।
बजार लरगो नई, उचक्कन ने डेरा डार दओ।
वस्तु तो तैयार नहीं, चाहने वाले पहिले से आ गये।
बट-पीपर की छाँय, संगत बड़न की।
छाया तो बट-पीपल की और संगत बड़ों की अच्छी होती है।
बटिया खेती साँट-सगाई, जामें नफा कौन ने पाई।
* (१-ऐसा विवाह जिसमें कोई अपनी लड़की का संबंध किसी के यहाँ करे
तो उसके बदले में उसकी लड़की के साथ अपने या अपने किसी निकट
के रिश्तेदार के लड़के का संबंध करने को तैयार हो जाय।) बटिया की खेती
और साँटे की सगाई में किसी को लाभ नहीं होता।
'बट्टे खाते परबो (अथवा जाबो)।
किये हुए प्रयत्न का व्यर्थ जाता । खठाई में पड़ना। रकम वसूल होने की
उम्मेद न होने पर उसे बद्टे खाते डालना या पाड़ना कहते हैं ।
बड़न की बड़ी बातें। |
बड़े आदमियों की' सब बात अलग होती है।
बड़न की बात बड़े पहचाना।
बड़ों की बात बड़े ही समझ सकते हेँ। बड़े ही बड़ों की क़द्र कर सकते हैं।
कया है कि एक सियार जंगल में कहीं जा रहा था। उसी सड़क पर
एक बैता' आ रहा था। कंधे पर धूनकी और हाथ सें डंडा। सियार ने समझा
कि यह कोई शिकारी है। कहीं ऐसा न हो कि मुंझे मार दे । इंसलिए दूर से
ही खुशामद करके बोला--कांधे धनुष हाथ में बाना, कहाँ चले दिल्ली
सुल्ताना।' सियार की यह बात सून कर बैना मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ।
और बोलां--+बन के राव, बेर का खांन/, बड़न की बात बड़े पहचाना ।' उसके
बाद बैना के निकट आने पर सियार को अपनी भूल मालूम हुई ती यह कहता'
हुआ जंगल में भाग गया-- तुक्क तुक्क तैना, हम लड़ई, तूभ बना। (०
लड़ई या लड़ईया' सियार को कहते हैं।
कब्म० २ | श् #न्
बड़ी | [ बन्देली कहावत, कोश
बड़न की सोंज खेती करी । भुस बॉटतन अबेरा परी॥
बड़े आदमियों के साझे में कोई काम नहीं करना चाहिए। झगड़ा होने पर
उनसे कुछ कहा नहीं जा सकता और अंत में अपने को ही हानि उठानी पड़ती है ।
बड़न के जितनी आमदनी उतनो खच्ते।
बड़न के भाग में सब को भाग।
बड़ों के भाग्य से दूसरे लोग भी खाते-पीते हैं।
बड़न की आस सब करत।
बड़ों की आशा सब करते हैं।
बड़न को बड़ो पेट। क्
जो जितना बड़ा होता है उसे पैसे की उतनी ही चाह रहती है। अथवा दूसरों
के पैसे को वे उतनी ही आसानी से हजम भी कर जाते हैं।
बड़ी नाकवारे बनें फिरत।
बड़ी इज्जत वाले बनते हैं ।
बड़ी पातर कौ बड़ी बरा।
बड़े आदमी का अधिक आदर-सत्कार होता है।
बड़ी फजर चले पे नजर। क्
.. सबेरे उठते ही आदमी को रोटी-पानी का धंधा सूझता है।
बड़ी बऊ, बड़ो भाग।
दूल्हे से दुलहिन बड़ी हो तो यह सौभाग्य की बात है। अथवा बड़े आदमि यों
का भाग्य भी बड़ा होता है।
बड़ी बऊ ने जी करी, फरा' प॑ घी फरौ।
( आटे की पाती में सिकी-हुई टिकियाँ या पूरियाँ।) बड़ी काकी ने मन
किया तौ फ़रा पर घी रखा। झूठा आदर-सत्कार।
बड़ी बड़ाई, फटी रजाई।
दे० नाम बड़े... . ,
श्र
#* कर 35
बुन्देली कहावत कोल्न | [ बड़े बोल
. बड़ी बड़ी तिथें, फुटकन् हरछठ।*
(१--हलपषष्ठी-ब्रत जो भादों में कृष्ण-पक्ष में होता है। इस दिन हल का
जुता-बोया अन्न नहीं खाया जाता। पूजा के लिए भाड़ में चने आदि भुनवाये
जाते हैं। इसी से इसे फुटकनू हरछट कहते हैं।) बड़ी-बड़ी तिथियों के सामने
हरछट की क्या बिसात? किसी बड़ी बात के सामने छोटी की
क्या गिनती ?
बड़ी मार करतार कीं, चित से दये उतार।
किसी से संबंध विच्छेद कर लेने पर ।
बड़ी मुतोरू लंबे कान । हर देखे से तज प्रान॒0
ऐसा बैल जिसकी मूत्र-स्थली बड़ी और कान लंबे हों खेती के काम का नहीं
होता।
बड़े नाव की बड़ी बिपदा।
जो आदमी जितना प्रसिद्ध होता है उसे इधर-उधर की उतनी ही विपत्तियाँ
घेरे रहती हैं।
बड़े-बड़े तौ बये जायें, गाइर थाय लेय।
बड़े-बड़े जिस काम को न कर सकें उसे एक तुच्छ आदमी करने का साहस करे ।
बड़े बड़े साँप सेपेरत सारे, बिच्छन दे तुम कन् से आईं ?
सँपेरों ने बड़े-बड़े साँप तो मार डाले, बिच्छनदेवी तुम कहाँ से आयी ? किसी
काम में विध्न डालने वाले या जबदंस्ती बीच में बोलने वाले उपगद्रवी के
लिए।
बड़े बोल कौ मों कारो।
अहंकारी को नीचा देखना पड़ता है।
बड़े बोल को सिर नेचो।
दें० ऊपर।
हर बेहेरे +
बदरा ] | बुन्देली कहावत कोई
बड़े भये तो का भये, जंसें पेड़ खज्र।
छायें न बिलमें दो जने फल छागें अत दूर॥
बड़े भये तो का भये, परे रये फेल में।
बड़े होने से क््या' हुआ, यदि जीवन बुरे कर्मों में बिताया।
बड़े भाग से होत है, दाद, खाज उर राज।
दाद और खाज के खुजलाने से बड़ा कष्ट होता है, और एक विशेष प्रकार का
आनंद भी मिलता है। इसलिए इनके रोगी के लिए व्यंग में प्रयोग
करते हैं।
बड़े सपुत करो रुजगार । सोरा से के करे हजार ॥
लड़के की अनुभवहीनता से किसी काम में नुकसान हो जाने पर ।
बड़ो जग्ग कर लओ।
बड़ा यज्ञ कर लिया । किसी छोटे काम का बड़ा ढिढोरा पीटना ।
घड़ो जस कर लओ।
दे० ऊपर।
बड़ो रन जीत आये।
दे० ऊपर। क्
बड़ो लाड़ मोरी मौसी करें, छितक छिनके दोऊ कौरे भरें।
मेरी मौसी ने बड़ा लाड़-प्यार किया, तो छिनक-छिंनक कर घर के दोनों कोनें
भर दिये। झटठा प्रेम करने पर।
बत्तीस दाँतन में जसें जीभ!
बहुत सतक॑ होकर चलना ।
बदरा घाम। .
बड़ा तेज होता है।
बी
ब॒न्देली कहावत कोश | ह क् [ बरद
बन के जाये, बनई में नह रत।
बन में पैदा हुए बन में ही नहीं रहते । आदमी के दिन सदा एक से नहीं रहते ।
कथा है कि किसी राजा ने अपनी एक रानी को घर से निकाल दिया।
रानी गर्भवती थी। जंगल में उसके पृत्र उत्पन्न हुआ। संयोग से एक्र साधू वहाँ
जा पहुँचा। उसने रानी को अपनी बेटी की तरह घर रखा और उसके पुत्र
का लालव-पालन किया। बाद में बड़े होने पर वह लड़का एक बड़े राज्य का
मालिक बन गया, और एक राजा की बेटी से उसका विवाह भी हो गया।
बनतन देर लगत, बिगरतन देर नई लगत।
बनते देर लगती है, बिगड़ते देर नहीं लगती ।
बनी को बनावे सो बानियाँ।
बने हुए काम को और अधिक अच्छा बत्ा कर दिखाये वही सच्चा वैश्य है।
बनी न बिगारें तौ हम काय के।
जानबूझ कर उपद्रव करने वाले के लिए व्यंग में ।
बनी बनी के सब साथी।
अच्छे समय के सब साथी होते हैँ, बुरे का कोई नहीं ।
बनी सराहिये।
बने काम की सब सराहना करते हैं।
बनें तो कोऊ के होके रइये, नई तो कोऊ कों करके रइये।
हो सके तो किसी के प्रेमी बन कर रहिए, या फिर किसी को अपना प्रेमी बंना कर
रखिए ।
बब्बरखाँ के राज की बातें।
पुरानी, धुरानी बातें-जिनसे कोई मतलब नहीं।
बरंद बिसाहन जात हो कंता । कबरा के जिन देखियो दंतो॥ '
ऐसा बैल जिसके शरीर पर धंब्ब पड़े हों अच्छा नहीं होता । .खरीदने के लिए
उसके दाँत भी नहीं देखना चाहिए। |. ' कक
+ऊ एेईरपए -
बराती |] | बुन्देली कहावत कोश
बर मर चाय कन्या, हमें तो दच्छना से काम ।
स्वार्थी व्यक्ति के लिए।
बरस लगे अगनोआ, पटो फेर दो दौआ।
(१-अहीर, किसान । ) सावन के महीने में पुष्य नक्षत्र में लगातार वर्षा होने
से भूमि को अच्छी तरह जोतने-बखरने का अवकाश नहीं मिलता। अतः
किसान को उपदेश दिया गया है कि पुष्य-नक्षत्र का जल बरस रहा' है। भलाई इसी
. में है कि खेती के लिए पट्टे पर जो जमीन ली है वह वापिस कर दीजिए। दे०
अगज्नौआ बतर पऊ।
बरस लगों ऊतरा', अन्न न खायें कूतरा।
(१-सत्ताईस नक्षत्रों में से एक नक्षत्र जो क्वाँर के महीने में लगता है।
उत्तर फल्गुनी ।) उत्तरा नक्षत्र में पानी बरसने से रबी की फसल को
विशेष लाभ होता है।
बरस लगे हाती,' गोऊँ टिके छाती।
द (१-हस्त नक्षत्र ।)) उत्तरा की तरह इसका जल भी रबी की फसल के
लिए लाभदायक होता है। |
बरसे कऊं, पे कड़े तो ओरछे के पुल' तर हो।
(१-झाँसी-मानिकपुर लाइन पर ओरछा के पास बेतवा पर बना रेल का
पुल।) पानी कहीं बरसे पर निकलेगा तो औरछे के पुल के नीचे होकर ही।
अर्थात कोई बात यंदि कहीं हुईं है तो वह कभी न कभी स्वयं सामने आयेगी
ही। उसके लिए चिन्तित होने की आवश्यकता क्या?
बरसो राम झड़ाझड़ियाँ । खाये किसान मरे बनियाँ ॥
वर्षा ऋतु आरंभ होने पर लड़के' कहा करते हैँ।
बराई ओर बतेसन फरी। हि
' गन्ने का पेड़ और, उसमें बताशे छगे हुए। अच्छाई में और भी अच्छाई।
बराती तो अपने अपने घरे चले ज़ेयें, काम दूल्हा दुलंया से फरे।
फालतू आदमी काम में अडंगा डाल कर अलग हो जाते हैं। क्
> + रहेई
नह
बराती भौत हैं, घरई घर के जें लो।
बराती बहुत हैं, पहिले घर के ही सब जीम लो। ऐसा न हो कि बाहर वाले
खा जायें और घर के कोरे बैठे रहें ।
बरे बो सोनों, जासें कान फटे ।
जिस सोने से कान फटे वह आग में जाय ।
बरंन के छत्ता में हात डारबो।
भिड़ों के छत्ते में हाथ डालना। जान-बूझ कर विपत्ति मोल लेना ।
बसकारे के आँदरे को हरोई हरो सुजत।
जो वर्षाऋतु में अंधा हो जाता है उसे केवल एक हरे रंग की स्मृति रह जाती
है, और उसे चारों ओर हरा ही हरा सूझता है। दूसरों की असुविधा की कोई
परवा न करके' जब कोई आदमी हमेशा मजे की ही बात करता है तब
कहते हें ।
बसत न राखे आपनी चोरे गारीं देय।
दे० चीज न राखे।
बसुला ज्ञान ।
बसूले से जितनी भी लकड़ी छीली जाती है वह सब उसके जागे गिरती है।
उसी प्रकार का स्वार्थमय ज्ञान ।
बसुला कौ छोलन।
निकम्मा आदमी ।
बसोर' कौ सठा कर फिरत।
(१-बाँस के बत्तंत बनाने का काम करने वाली एक जाति ।) बसोर का _
मेठा बना रखा है। ऐसी वस्तु जिसका कहीं ठिकाना न हगे।
बहुत गई थोरी रंई। ,
।
बहुत उम्र बीत गयी, थोड़ी रही है। वह भी भगवान इज्जत के साथ काट दे। कक
न्कु
“ २३७ “-
बाई | | बन्देली कहावत कोश
बहुपति, त्रियपति, बालपति, बिना पतिहि को देस।
तुलसी ऐसे देश को पत गये कहा अँदेश॥।
जिस देश के बहुत से मालिक हीं, अथवा जहाँ स्त्री या बारक शासक हों,
अथवा जहाँ कोई शासक ही न हो, तो ऐसे देश के नष्ट होने में क्या संदेह ?
बाँल ब्यानो सोंठ उड़ानो।
बाँझ के बच्चा हुआ तो उसने मनमानी सोंठ खायी। जीवन में पहिली बार
किसी को कोई. काम करने का अवसर मिले तो वह उसका बहुत प्रदर्शन
करता है।
बाँड़ी' फर्ये--में पूंछ उसारों।
(१-ऐसी गाय या भैंस जिसके पूंछ न हो।) बंडी कहती है कि मैं पूंछ
उठाऊं। तुच्छ व्यक्ति काम करने का होसछा करे तब।
बाँड़ी उजार जहे? कई--में तो पूछई उठायें।
बंडी से किसी ने कहा---चल दूसरों का खेत उजाड़ करने चलती है ? कहा---
मैं तो पहिले से ही पूंछ उठाये हुए हूँ। उपद्रवी आदमी के लिए कहते हैं।
बाँध के मार, कत भौत सऊत है।
बाँध कर पीट रहे हैँ। कहते हैं --बहुत सहनशील है।
बाँस के भिरे में घमोय* आप
(१--एक जंगली बूटी जिसके संबंध में कहा जाता है कि यदि वह बाँस के
भिरे में उत्पन्न हो जाय तो सबका सब भिरा नष्ट हो जाता है।) अच्छे वंद्ञ में
बुरे लड़के का उत्पन्न होता।
बाँस कौ खूँट बाँस।
बाँस में से बाँस का ही अंकुर निकलता है।
बाई के बुर अड़ाई सेर। 22
(१-बहिन-बेटी के लिए संबोधन) किसी वस्तु का उचित मूल्य न आँकना।
बाई' जानें अपनी सी हाई।
. सबकी हालत अपनी जैसी. समझने पर।
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“ रेें८ +
बुन्देली कहावत कोश | [बाप की
बाई तो खाल तब बायतों देयें।
स्वयं खाने को है नहीं दूसरों को क्या खिलायेंगे ?
बाओ को तिबाओं देने आऊृत।
तेज हवा' से बच कर चलना पड़ता है।
बाढ़े पृत्त पिता के धर्मा, खेती उपजे अपने कर्मा।
पिता के शुभ कर्मो से पुत्र समृद्धिशाली बन सकता है, परन्तु खेती में सफल
होने के लिए स्वयं उद्योग करना पड़ता है।
बात करबो मुस्किल है।
जब कोई बोलने ही न दे तब कहते हैं।
बात कौ बतंगड़।
थोड़ी बात को बढ़ा कर कहना ।
बात छीलें रूखी, काठ छीलें चौकनो।
बात छीलने से अर्थात गयी गुजरी बात को छेकर बहस करने से तो रूखी और
काठ छीलने से चिकना होता है।
बातन में फूल झरत। द
बातों में फूल झरते हैं। मधुरभाषी के लिए।
बातन से पेट नईं भरत।
बातों से काम नहीं चलता।
बात बात में भाँत है ओर भाँत भाँत की बात।
बातन हाती पाइये बातन हाती लात॥
बादर देखें पोतला' नईं फोरो जात।
(१-मिट्टी का छोटे मुँह का चपटा बीत्तन ।)
क्षाप की कमाई पे तागड़धिन्ना।. द
बाप की कमाई पर मौज उड़ाना।'
“- २३९ .+ है
है
बाप मरौ |] [ बुन्देही कहावत कोश
' बाप की सरन, और काल की परन।
विपत्ति पर विपत्ति।
बाप कों पुत पढ़ावे, सोरा दुनी आठ।
बाप से लड़का बढ़ कर।
बाप गुन बेटा, सिपाही गुन घोड़ा ।
बाप के गुणों के अनुसार लड़का होता है और सिपाही के अनुसार घोड़ा ।
बाप न अजा, तीसरी परी।
बाप भी नहीं, अजा भी नहीं, फिर भी अपने को तीसरी पीढ़ी का बताते हैं।
डींग हाँकने वाले के लिए।
बाप न मारो लोखड़ी, बेटा तीरंदाज।
जो लंबीचौड़ी' डींग हाँकें उससे व्यंग में।
बाप-बेटा की बरात, मताई-बिटिया गौरेयाँ।
( १-विवाह उत्सवादि के अवसर पर विश्येष रूप से भोजन के लिए आमंत्रित
की जाने वाली बिरादरी की सधवा स्त्रियाँ, गौर।) लड़के के विवाह में पिता-
पत्र तो बराती' बनें, और माँ-बेटी गौर। जहाँ कोई काम अकेले ही कर लिया
जाय और मित्रों को न पूछा जाय वहाँ कहते हैं।
बाप भलो न भेय्या, सब से बड़ो रुपस्या।
संसार में रुपया ही सबसे बड़ी वस्तु है।
बाप मर ना रोये, ससरार गयें ना सोये।
बाप के मरने से बढ़ कर दुःख नही । और ससुराल जाकर सोने से बढ़ कर सूख
नहीं।
बाप मरो सो मरो, प्रागराज तौ देख आये।
बाप मरा“सो मरा प्रयागराज के दर्शन तो कर आये। किसी की कोई बड़ी
हानि हो जाने पर सान्त्वता देने के लिंए व्यंग में |
र्न्क
कक
ब॒न्देली कहावत कोदा ] [ बाबा
बाप राज खाये न पान, दाँत निपोरें कड़ गये प्रान।
बाप दादा न खइले पान। दांत बिदोरिके निकलूल प्रात --भोज०
जन्माउपर खाल्ले पान। आपि थुकतां थुकतां गेला प्राण। ---मराठी।
बाप सें बेटा सयानो, जई जई में गाँव नसानो।
बाप से बेटा अधिक चतुर है, गाँव इसी-इसी में नष्ट हुआ। बड़ें-बूढ़ों के आगे
जहाँ लड़के हर बात अपनी चलाते हों वहाँ कहते हैं।
बाप से बेटा सवाओ।
बाप से बेटा बढ़ कर।
बाप सें बेर, पुत से सगाई।
बाप से बोलचाल नहीं, लड़के से मित्रता। जिससे काम बन सकता है उससे
बात न करना ।
बाबा के कान।
( १-सर्प) किसी एक व्यक्ति के कान में धीरे से कही गयी बात जब दूसरा
सुन ले तब कहते हैँ कि इसके बाबा के कान हैं।
बाबा कौ जो बगली' में।
(१-माला रखने की थेली।) साधू को अपनी बगली ही प्यारी होती है।
बाबाज् के बाबा ज्, दरबटना के दरबटना।
( १-प्राम देवता ।) एक वस्तु से कई काम निकलना |
बाबा जू के जटा आसीरबाद मेंद गये।
जब कोई आदमी झूठी वाहवाही में अपना पैसा लूटा दे तब कहते हूँ।
मुल्ला की दाढ़ी तबरुंक में गयी ।
एक साधू महाराज लोगों को आश्षीर्वाद में अपनी दाढ़ी का बाल बांटा
करते थे। एक बार वे ऐसे गांक में पहुचे जहाँ सबके सब लोगों नेछनको घेर
लिया कि बाल हमको भी दो, हमको भी दो। वाबाजी किसे इन्कार करते ?
वाल बांटता शुरू किया तो और भी भीड़ इकट॒ठी होती गयी और अंत में उनकी
सब दाढ़ी नूच गयी।
हो शेड हैं ९ हि
ब्ु 0 >त+ १ ६ है
वार।| [ बन्देली कहावत कोश
बाबा बेठ ई घर में, पाँव पसारें ऊ घर में।
बाबा बैठते हैं इस घर में, और पाँव पसारते हैं उस घर में। जब कोई आदमी
व्यर्थ अपने लिए बहुत सी जगह घेर रखे, अथवा ज़बर्दस्ती दूसरे के काम
में जाकर हस्तक्षेप करे तब।
बासी ढिंग। मरे, साँप को नाव।
साँप के बिल के पास कोई मरे तो उससे साँप का ही नाम होता है कि उसने
काटा ।
बा(अ)र की एक सें घर की आदी साजी।
बाहर की एक से घर की आधी (रोटी) अच्छी । भूखा भले ही रहे परन्तु
किसी का एहसान लेकर खाना ठीक नहीं ।
बा(अ)र के खायें, घर के गीत गायें।
बाहर के लोगों पर व्यर्थ पेसा खर्च किया जाय और घर में तंगी हो ।
बार उखार मुरदा हलको नईं होत।
नाममात्र के सहारे से कोई बड़ा काम पूरा नहीं होता ।
बार सी बारीकी और मूसर सो भरों। द
एक-एक पैसे का हिसाब रखना, परन्तु हद दर्जे की फिजूलखर्ची भी करना ।
बारा घाट को पानी पियें हें।
अर्थात बहुत अनुभवी हैं, दुनिया देखे हुए हैं।
बारा बंदरचे पाणी प्याला --मराठी
बारा दूनी आठ पड़ाबो।
किसी को उल्टी शिक्षा देकर अपने काबू में छाना।
बारा बरसे दिल्ली में रये, का भार झोंकत रये ?
बारह वर्ष दिल्ली में रहे, क्या भाड़ झोंकते रहे ? जब कोई अच्छे वातावरण
में रह कर, भी कुछ सीख न सके और एक साधारण से काम में भी अपनी
मूर्सता प्रकट करे तब ।
हैं “ रे४२ -
श्री
बन्देली कहावत कोश ] [बालक
बारा बरस में तो घूरेई की रती फिरत।
बारह वर्ष में तो घ्रे के भी दिन फिरते हैं। समय पाकर सब के दिन फिरते
हैं। कभी न कभी अच्छे दिन अवश्य आते हैं।
उकिरडयाची देना बारा वर्षानी देखील फिरतें---मराठी'
बारा सना की गेल चले, छः भइना की ना चले।
बारह महीने का रास्ता चले, छः महीने का नहीं । उतावली ठीक नहीं; सब
काम धीरज से करना चाहिए।
बारा बरसे सेई कासी, मरन गये मगा की पाटी।
जीवन भर सत्कर्म करते रहने पर भी अंत खराब होना ।
बाराबाट होबो।
बरबाद होना।
बारो' खेते खाय तो बिध सें कहा बसाय।
(१-खेत की बाड़।) रक्षक ही भक्षक बन जाय तो इसके लिए क्या किया
जाय !
बारू पेरबो।
रेत पेरना। व्यर्थ का काम करना।
बारू पे भीत उठावो।
क्षणस्थायी काम।
बारे पृत, हरीरी साका । इन्हें देख जिन गरबो माता।
(१-शाखा, खेती।) छोटी उम्र के बाक़ृक और खेत में खड़ी हरी फुसछ का
गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे कभी भी नष्ट हो सकते हैं।
बालक, मूंछ उर नारी, बारे सें काय न संवारोी।
बालक, मुँछ और स्त्री ये प्रारंभ से ही संभालने पर सँमलते हैं।
न है ु ३ कलम
बिच्छ | [ बुन्देली कहावत कोश
द्र्ष
बालापन में बियाव न भयथे, तरुताई रस बस न ठये।
बुद्धापन तीरथ ना गये, ते नर सदा बिबूचे रखे ॥
बाल्यावस्था में जिनका विवाह नहीं हुआ, युवावस्था में जिन्होंने सुखभोग
नहीं किया, और बुढ़ापे में जिन्होंने तीर्थ-यात्रा नहीं की वे मनुष्य सदैव
गड़बड़झाले में ही पड़े रहे।
बावन बुद्ध बकरिया में, छप्पन बुद्ध गड़रिया में ।
बकरी बहुत होशियार होती है, परन्तु उससे अधिक होशियार होता है
गड़रिया, जो उस बकरी को पालता-पोसता है ।
बासी बच न कुत्ते खायें।
रोज़ कमाना और रोज खाना ।
बासे भात में खुदा कौ का साजो ?
बासी भात तो किसी प्रकार भी खाने को प्राप्त किया जा सकता है, उसमें
भगवान का क्या एहसान ?
बासो खाये बासी बद्ध होत।
बासी खाने से बुद्धि मंद होती है ।
बिद गओ सो मोती।
जो काम सफल हो वही सच्चा काम | छेद करते समय मोती टूट जाय
तो बेकार हो जाता है ।
बिख को ओखद बिख।
विष की ओषधि विष । जहर को जहर से ही दूर किया जाता है ।
बिगनन' अँंसुआ नई आऊत।
( १-बुन्देलखंड में भेड़िये को बिगना कहते हैं ।) भेड़ियों को आँसू नहीं आते ।
“केंठोर हृदय मनुष्य को दया, नहीं आती ।
बिगरी बात बनें नहीं, लाख करो किन कोय।
बिच्छ को कप्टो रोवे, साँप कौ काटो सोवे।
दुष्ट की मार बुरी होती है ।
- रे ईं-...
तर
बन्देली कहावत कोद | [ विद्या
बिच्छू को काटो चोर, न हूँ कर न चू।
बदमाश आदमी चुपचाप पिटने पर ठीक रहता है ।
बिच्छू कौ मंतुर जानें नई, साँप के बिले में हात डारे।
बिच्छ का तो मंत्र नहीं जानते साँप के बिल में हाथ डालते हैं।
योग्यता से बाहर काम करने का साहस करना ।
बिछौनन से लग गये।
बहुत दुर्बल हो गये हैं; बचना कठिन है ।
बिटिया कौ साँगौ होय, बहू कौ साँगो न होय।
घर में लड़की की ही बात अधिक चलती है। बहू की नहीं ।
बिटिया और गया कों जाँ दोरो मिलत ताँ जात।
लड़की बिनब्याही नहीं रहती । कहीं न कहीं ठिकाने छूग ही जाती है ।
बिटिया सोहे सासरे, हाती सोहे हतसार।
लड़की तो ससुराल में ही शोभा देती है और हाथी हथसार में ।
बिदा होय तौ रोउन लगें, नईं तौ ले पिरिया कंडन कों जायें।
बिदा हो रही हो तो रोने बैठ जायें, नहीं तो पिरिया लेकर कंडा बीनने जायें।
किसी काम में हमारी आवश्यकता हो तो बैठें, अन्यथा अपना दूसरा काम देखें ।
किसी का व्यर्थ समय नष्ट होने पर कहते हें ।
विद्या पड़े सजीवनी निकरे मत के हीन।
तुलसी बिना विवेक के बन में खाये तीन॥।
इसकी एक कथा है कि एक बार तीन ब्राह्मण-पुत्र काशी से संस्कृत
पढ़ कर अपने घर को लौट रहे थे । वे संजीवनी विद्या जानते थे,। रास्ते
में एक जंगल में उन्हें एक मरा हुआ शेर मिला । उस पर अपनी विद्या
की परीक्षा करने के लिए उसे उन्होंने जीवित कर दिया। परन्तु शेर
जैसे ही जीवित हुआ उन तीनों को वह एक ही झपट्टे में खा गया।
यह संजीव जातक है।
की पतन
बिना] [ बन्देली कहावत कोदा
बिन कड़आ को दिवार ?
बिना ऋण निकाले कौन देनेवाला ? अथवा जिस पर अपना रुपया उधार
आता हो वही माँगने पर दे सकता है, दूसरा कौन देगा ?
बिन कुत्तन कौ गाँव बिलो अलबेली डोलें।
जिस गाँव में कुत्ते नहीं होते वहाँ बिल्ली छेल-छबीली बनी घूमती है । जहाँ
कोई देखनेवाला नहीं वहाँ धूर्त्तों की बन आती है।
' बिन घरनो घर भूत कौ डेरा।
स्त्री के बिना घर भूत का डेरा है ।
बिन देखो चोर साव त्रिरोबर।
चोर को जब तक चोरी करते पकड़ न लिया जाय तब तक वह ईमानदार
ही समझा जाता है ।
बितल पंखल के उड़ चाउत।
4५९
बिन पइसन को तमासो।
बिता पैसों का तमाशा । ऐसा लड़ाई-झगड़ा जिसमें देखने वाले आनंद लें ।
बिन पइसा के परखें मोल, तिनको नाव संखढपोल।
.. बिना पैसों के जो किसी वस्तु को खरीदने की इच्छा करते हैं वे ढपोलशंख
कहलाते हैं ।
बिना दूला को बरात।
बिना मालिक की फौज ।
बिना धनी की फौज।
दे ० ऊपर।
बिना नाथ के पड़ा।
मतचाही करने वाला स्वतंत्र आदमी ।
बिना पेंदी के लोठा।
बे सिद्धान्त का आदमी ।
कै
जे
“- २४६ -
बन्देली कहावत कोश | [ बिरिया
बिना बसीले चाकरी, बिना मूँछ कौ ज्वान।
ज॑ तीनऊ फीक हरगें, ज्यों कत्था बिन पान॥।
बिना सहारे नौकरी नहीं मिलती ।
बिना बुलायें आये, बुरये ब्रये गीत गाये।
बिता बुलाये किसी के यहाँ नहीं जाना चाहिए ।
बिता रोयें मताई लरका कों दूद नई पियाउत।
बिता माँगे कोई वस्तु नहीं मिलती ।
बिना सींगन के बेल।
मूर्ख ।
बिपत बिरोबर सुख नहीं जो थोरें दिन की होय।
बिप्र परोसी अजय धन, बिटियन कौ दरबार।
ऐते पे घन ना घठे पीपर राखो दुआर॥
बिप्र, बंद, नाऊ, नुपति, स्वान, सौत, मंजार।
जहाँ जहाँ जे जरत हें तहें तह करें बिगार॥।
बियाड़े जाओ।
भाड़ में जाओ। बियाड़ बीहड़, या जंगल को कहते हैं ।
बियाड़े जाय बो लरका जो बसोर के झार जिये।
ऐसा लड़का भाड़ में जाय जो बसोर के झाड़ने-फूँकने से जीवित रहे । ऐसी वस्तु
किस काम की जिसके लिए किसी तुच्छ व्यक्ति का एहसान लेना पड़े ।
बिराने धन को रोवे चोर।
पराये धन को पाने के लिए हुठ करनर । ७
बिरिया सी हला रूई।
बेर के वक्ष को हिलाने से जिस प्रकार सब पके फल एक साथ तीचे गिर पड़ते
है उसी प्रकार किसी को मारपीट कर सब कपड़े-लत्ते आदि छीन लेता ।
“- रेट «+
विद्वासघातकी | [ बन्देली कहावत कोश
बिलइया अपनो एक दाव तोऊ छिप्रा राखत।
बिल्ली अपना एक दाव फिर भी छिपा रखती है। होशियार आदमी अपना
सब हुनर दूसरों को नहीं बताता । '
एक बार एक शेर ने बिल्ली के पास जाकर कहा कि मौसी तुम्हें तो शिकार
के बहुत से दाव-पेंच आते हैँ। कुछ हमें भी सिखाओ। अपना चेला बना
लो। बिल्ली इस पर राजी हो गयी। शिकार के जितने हुनर थे शेर को सिखा
दिये। इसके बाद क्या हुआ कि एक दिन शेर की नीयत बिगड़ गयी और
अचानक बिल्ली पर हमल। कर दिया। बिल्ली तुरंत उछल कर पेड़ पर चढ़ गयी
और शेर देखता ही रह गया। बोला, मौसी तुमतो कहती थीं कि हमने तुम्हें
सब हुनर सिखा दिये। अब बताओ, पेड़ पर कंसे चढ़ूं ? यह विद्या तो तुमने
सिखायी नहीं। बिल्ली ने उत्तर दिया, भेया, तुम्हें सब कुछ सिखा देती तो आज
तुम्हारे हाथों अपने प्राण न खो बेठती !
बिलइया के भाग्गन छींको टूटो।
संयोग से कोई काम बन जाना ।
बिलइया के दाँत बिलइये नईं लगत।
बिल्ली के दाँत बिल्ली को नहीं लगते | एक चालाक की चालाकी दूसरे पर
नहीं चलती ।
बिलइया डंडौतें करबो।
झूठा सम्मान करना । विवश होकर किसी के हाथ-पैर जोड़ते फिरना ।
बिले मे हात तुम डारो, मंतुर हम पड़त।
साँप पकड़ने के लिए बिल में हाथ तुम डालो, मंत्र हम पढ़ते हैँ । स्वयं अलूग
रह कर दूसरों को विपत्ति में डालना ।
बिस को कीरा बिसई में मानत॥
विष का कीड़ा विष में ही प्रसन्न रहता है ।
विस्वासघातकी महा पातकी।
विश्वासघात से बढ़ कर पाप नहीं।
न रद र्ट् बन
बुन्देली कहावत कोश ] [ बूचई
बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेय।
बीतौ ब्याव कुमार कौ भाँड़े ले ले जाव।
कुम्हार के यहाँ विवाह हो जाने पर मिट्टी के चाहे जितने बत्तंत उठा छाओ,
क्योंकि उसके यहाँ वही अधिक काम में आते हैं। काम निकल जाने पर
वस्तु की कद्र नहीं रहती ।
बीदे प॑ सीदो देने परत।
( १-सीधा, ब्राह्मण को दक्षिणा म दिया जाने वाला आठा-दाल आदि । )
चक्कर में फसने प्र आदमी पैसा खर्च करता है ।
बोदो बातिया देय उदार।
दबा हुआ बनिया उधार देता है ।
बोदो बानिया सीदो देय।
दे० बीदे प॑ सीदो. . . .
ब॒करिया जेसो मों चलतई रत।
बकरी की तरह मूह चलता ही रहता है। ऐसे लड़कों के लिए कहते हैं जो
दिन भर बकरी की तरह कुछ न कुछ खाते रहते हैँ ।
ब्र (अ) ये दिन के के नई आऊत।
बुरे दिन कह कर नहीं आते ।
बर (अ) ये कौ साथी कोऊ नइयाँ।
ब्रे का कोई साथी नहीं होता ।
ब्र (अ) ये काम कौ ब्र (अ) ओ हवाल।
ब्रे काम का बुरा नतीजा होता है ।
बूचई कों तो घी ताव तो। ॥ हे
(१--बूचा ऐसा कुत्ता जिसके कान कटे हों ।) बूचा के लिए ही तो घी
गरम किया था! जब कोई फालतू आदमी बीच में आकर चीज हड़प ले
जाय ।
खत हर है. ए ०»
बेई | [बुन्देली कहावत कोश
बची कों आन ताव, कानी को कजरा कौ ताव।
( १-उतावली। ) बूची को कोई दूसरा ताव और कानी को काजल का ताव !
जब कोई अथोग्य किसी वस्तु को पाने की इच्छा करे ।
बूड़ी गेया बसने जाय, पुन्न होय और ढरे बलाय।
बूढ़ी गाय ब्राह्मण को देने से दुहरा लाभ, पुण्य का पुण्य और बला भी टले !
बड़ी घुरिया लाल लगाम।.
बेमेल काम ।._
बड़ो और बारो बिरोबर होत।
बुद्ध और बालक इन दोनों की प्रकृति एक सी होती है ।
बूड़ो खाय, गाँठ को जाय।
निकम्मे आदमी को खिलाना बेकार है ।
बूड़ो बरद, पाठ की नाथ।
बूढ़ा बैल और उसके लिए रेशम की नाथ !
बूड़ो सर चाय ज्वान, हत्या सें काम ।
जब कोई ऐसा काम करने के लिए विवश हो जाय कि उससे दूसरों की हानि
होती हो तब कहते हें ।
बेई चेत चितावें, बेई बनवास ढुआवें।
सीता की ननद के संबंध में कहा गया है कि वही तो राम को सावधान करें
और वही सीता को वनवास दिलायें ।
जनश्रुति है कि लंका से लौटने के बाद एक बार सीता की ननद ने राम से
झूठ-मूठ ही कह दिया कि सीता एकान्त में बैठी दीवाल पर रावण का चित्र
बना रही थीं, इनको घर से अलग कर देना चाहिए । इस पर ही राम ने सीता
को वनवास दे दिया । इधर की उधर भिड़ा कर दो आदमियों में लड़ाई करा
देने वाले के लिए प्रयुक्त ।
बेई तीन बिसी बेई साठ।
दोनों में कोई अंतर नहीं ।
-“ २५० -
बन्देली कहावत कोद ] [ बेची
बेई दुखन दूबरी, बेई दो असाड़।
गाय जिस दुख से दुबली, वही सामने आया, अर्थात दो असाढ़ हुए । वर्षा के
कारण पहिले ही घास नहीं चर पाती थी और अब और भी भूखों मरेगी ।
विपत्ति पर विपत्ति ।
बेई बाई ससरार कों, बेई गुना गोंठबे को ।
( १-दहेज में देने के लिए बनायी गयी विशेष प्रकार की पुड़ी, जो किनारों
पर गोंठी जाती है ।)वही बेटी तो ससुराल जाने के लिए, और वही गुना
गोंठनें के लिए ! एक ही आदमी को जब छोटा-बड़ा सब काम करना पड़े तब ।
बेई सियाँ दरबार कों, बेई चूलो फूँकबे कों।
दे० बेई बाईं ससरार कों ।
बेई राज दिसान बेई चल दिमान।
दे० बेई बाई. ... ।
बे औसर कौ बाजो। (साजों नई लूगत)
बे अवसर का काम अच्छा नहीं लगता ।
बेगार कौ काम ।
मुफ्त का काम ।
बेटा एक कुल कौ, तो बेटी दोई कुलून की।
बेटा एक कुल की छाज रखता है तो बेटी दोनों कुलों की ।
बेटा बन के सबने खाव, बाप बनके कोऊ नईं खा पाऊत।
मीठी बात से जो काम निकलता है वह रोब जमाने से नहीं ।
बेटा से बेटी भली जो कुलवंतिन होय।
बेटा है तो बउएँ भौत आ जेयें। ;'
लड़का है तो बहुएं बहुत आ जायेंगी । साधन है तो काम भी हो जायगा ।
बेची घोड़ी कौन जदाद । ७
(१-जायदाद, संपत्ति ।) जो वस्तु दूसरों को दे दी उसका कया हिसाब ?
हम
४3% 5
बठ | | बुन्देली कहावत कोश
बेपारो उर पाउनो तिरिया और तुरंग।
अपने हात सँवारिये छाख लोग होयें संग ॥॥
व्यापारी, अतिथि, स्त्री और घोड़ा इनको स्वयं ही सेभालना चाहिए, भले
ही लाख आदमी साथ हों ।
बेपारी उर पाउनो, तिरिया और तुरंग।
ज्यों ज्यों जें ठनगन' करे, त्यों त्यों आवे रंग 0
(१-नखरा ।)
बेल के मारे बम्र तरें गये और बमर के मारे बेल तरें।
बेल के नीचे गये तो बेल का फल सिर पर गिरा, बबूल के नीचे गये तो काँटे
छिद गये । जहाँ जाओ वहीं विपत्ति; कहीं ठिकाना न लूगना ।
बेल मेंडवे चड़ गई। क्
| १-लोौकी, तुरई आदि तरकारियों की बेल |) बेल मंडप पर चढ़ गयी । अर्थात
किसी प्रकार काम बन गया ।
बेल सेंडवे चड़त नई दिखात।
अर्थात काम बनता नहीं दिखायी देता ।
बेसरस की नाक कटी, हात भर रोज बढ़ी।
निल्लंज्ज के लिए।
बेठतो राजा और आऊती बऊ।
गद्दी पर बैठनेवाला नया राजा और घर में आनेवाली नयी बहू, इनकी सब
सराहना करते है ।
बेठबे कों ठौर दे दो, परवे को हम बना लेयें।
बैठने को जगह दे दो, छेटने को हम बना लेंगे । किसी जगह एक बार थोड़ा
अधिकार जम जाने पर बहुत जमाना आसान हो जाता है ।
बंठें बेठें खाय से पहाड़ बिला जात।
बैठे-बैटे खाने से पहाड़ भी विलीन हो जाता है। आमदनी के बिना खर्च नहीं
चलता ।
बोसिया खाईले राजार भंडार टूटे।---बंगला
७ हक
बुन्देली कहावत कोश ] [बल
बेठे से बेगार भली।
बेदई की राँड भई।
वैद्य की ही स्त्री विधवा हुई, अर्थात जो वैद्य दूसरों का इलाज करता था वह
स्वयं ही बीमार हुआ और मर गया ।
बेरा खोदे काँदी, मेव गिने ना आँदी।
दे० अँदरा खोदे, . . .
बेरागित' बाई को देर जेंठ की का लाज ?
( १--संन्यासिनी ।) स्वतंत्र आदमी को सच बात कहने में क्या संकोच ?
बेरा मुंस, घर में खुंस, कछ कत, कछू सुंत।
कोई आदमी बहरा था| घर में स्त्री जब नाराज होती तब वह कुछ तो कहती
और पति सुनता कुछ और, इससे स्त्री की नाराजी और बढ़ती । बहरे
आदमी के लिए कहते हूँ ।
बेरी को मत सानबो, उर तिरिया की सीख |
क्वॉर करे हर जोतनी, तीनऊ माँगें भीख 0
जो बैरी की सलाह माने, स्त्री के कहने पर चले, और क्वाँर में खेतों की जोताई
करे, ऐसे तीनों आदमी भीख माँगते हैं । (रबी की फंसल के लिए खेत बहुत
पहिले ही तैयार कर लिये जाते है। असली जोताई जेठ-असाढ़ में की जाती
है, क्वॉर में नहीं ।)
बेल चमकना जोत में उर चमकोली नार।
जे बरी हें जान के लाज रखे करतार॥
जिस किसान के खेती के काम आने वाले बैल चौंकने-कदने वाले हों और स्त्री
बहुत-बन ठन कर रहती हो तो ये दोनों ही उसके प्राण के शत्र होते हैं। भगवान
ही उसकी लाज रख सकता है ।
बेल न कूद कूदे गौन । जौ तमासो देखे रहौन ॥ म
( १-अनाज भरने की खेस।) जब किसी से कोई अधक्षेपजनक बात कही
जाय, और वह तो उसका कोई उत्तर न दे, परन्तु दूसस आदमी भआवेज्ञ
में आकर बोल उठे तब कहते हैं।
“” रेप३ -
३४
#भ्र
ब्याय | [ बुन्देली कहावत कोश
बेल सिगारो, ज्वान मुछारो । गोऊ जवारो, घी रवारो॥
बैल तो सींगोंवाला, मर्द मूंछोंवाला, गेहूँ जवा की बाल की तरह बड़ी
बाल वाला और घी रवादार अच्छा होता है ।
बोई सिया कौ सायको, बई रावन की गेल।
वहीं तो सीता का मायका और वहीं रावण के निकलते का रास्ता ! बैर-
कर का संग ।
बोलती बंद हो जावो।
कुछ कह न सकता । चुप हो जाना ।
बोलबे में सार नहयाँ।
जब किसी की कोई बात न सुनी जाय, अथवा कुछ कहना ही व्यर्थ हो तब ।
बोल भाई, आन फंसे की हर गंगा।
विवश होकर कोई काम करना ।
बोले सो बिब॒चे।
दूसरे के बीच में बोलने से परेशानी उठानी पड़ती है ।
ब्याज, घूंस, दच्छना, पाछें पर कुच्छना।
ब्याज, घूस और दक्षिणा का रुपया पिछड़ जाने पर फिर नहीं मिलता ।
ब्याज घोड़ा से अंगारीं चलत ।
ब्याज घोड़ा से तेज चलता है। दिन रात बढ़ता रहता है ।
ब्याय नइयाँ तो बरातें तो करीं।
स्वयं हमारा विवाह नहीं हुआ तो क्या ? परन्तु बरातें तो की हैं। कोई काम
स्वयं नहीं किया तो क्या हुआ, उसकी जानकारी तो है ।
ब्याय नइयाँ तो मेंडवा तर तौ बेठे। ,
दे० ऊपर।
ब्याय न बराते ग्नये।
ऐसा आदमी जिसे दुनियादारी का कोई अनुभव न हो ।
ह - २५४ -
शक
बुन्देली कहावत कोश | [ ब्याव
ब्यारी कबहु न छोड़िये, ब्यारी से बल जाय।
जो ब्यारी औगुन कर (तो) दुपरे थोरो खाय ॥।
( १-ब्याल; रात्रि का भोजन ।)
ब्याव की पछारी,' हाकिस को अगारी।
( १-पहिल, शुरुआत ।) दुःखदायी होती है ।
ब्याव की बारा बरसे बाट हेरी, चलाए' की दमदम पारं।
( १-चलाव; द्वारगमन; गौना; विवाह के बाद बहू को लेने जाता ।)
विवाह की बारह वर्ष तक प्रतीक्षा की, गौने के लिए आफत मचाये हैं कि
अभी हो जाये । किसी काम को पुरा होते हुए देख कर उसके लिए उतावली
मचाना ।
ब्याव गाये गाये कौ और खाये खाये को।
विवाह में गाना-बजाना और खाना-पीना ही मुख्य है। ये न हों तो विवाह किस
' काम का ?
ब्याव न चलाव, झंठ-मूंट कौ चाव।
किसी का झूठा आदर-सत्कार करता । |
ब्याव बिगरो सो बिगरो, घरइयन कों तौ जुंआँ दो ।
ब्याह बिगड़ा सो बिगड़ा, घर के लोगों को तो भोजन करा दो ! जो हुआ सो
॥।४० मी...
हुआ, भूखे बैठे रहने से क्या लाभ ?
ब्याव न जानों हाँसी खेल। उड़ जे कुला बिसाउतन तेल॥
ब्याह को हँसी खेल मत समझो, तेल इकट्ठा करने में ही टोपी उड़ जायगी ।
तात्पय॑ यह कि ब्याह में नाना प्रकार की कठिनाइयाँ सामने आती हैं ।
ब्याव-बरात कौ भर्रों, जिते चाय परों।
ब्याह-बरात में कोई किसी को नहीं पूछता । जहाँ जगह मिल वहाँ छ्ेटो।
ब्याव पाछ पत्तर भारी हो जात।
: ब्याह के बाद एक पत्तल का खर्च भी भारी हो जाता है। खर्त में खर्चे नहीं
आँसता ।
जि २ प्५् स्कक+
श्
भरत | | बुन्देली कहावत कोश
ब्रह्मा के अक्षर।
पक्की बात ।
भ
भई गत साँप छछुंदर केरी।
किसी काम को न करते बनता न छोड़ते ।
भई छछुंदर सर्प गति, उगलत बने न खात । -तुलसी
: (कहते हैं कि साँप जब छछुंदर को पकड़ता है तब यदि उसको उगले तो
अंधा हो जाता है और निगले तो कोढ़ी हो जाता है ।)
भगत तो भौत बेकुंठ सकरो।
जब किसी जगह लोगों के बैठने के लिए स्थान की कमी हो तब ।
भगे भूत की लेगोटी भौत।
जिससे कुछ भी मिलने की आशा न हो उससे थोड़ा भी मिल जाये तो बहुत
समझो ।
भड़भड़िया अच्छो, पेट पापी ब्रओ ।
जिसके पेट में कोई भी बात न रहे वह अच्छा, परन्तु मन में कपट रखनेवाला
बरा।
भय बिन होय न प्रीत।
भर ज्वानी में माँसा ढीलो।
काम में आलस्य करने वाले नौजवान लड़कों के लिए ।
भर ज्वानी में लीद के फक््के।
युवावस्था में अच्छा भोजन खाने को न मिलना ।
भरत के प्या' ने प्रान ले लगये।
(२-मैली, छूगभग दस सेर के नाप का अनाज नापने का बत॑न)कथा है, '...
कि राम जब चौदह वर्ष के लिए बन गये तब भरत ने एक बार प्रजा को पैली
से नाप-ताप कर अनाज उधार दिया। उसके पश्चात पैली की पेंदी पर जितना... ह
अनाज बना उतना ही वापिस लिया। अर्थात दिया तो अधिक और लिया
कह का
|
बुन्देली कहावत कोदा ] [ भरोसे
बहुत ही कम। परंतु फिर भी प्रजा को इससे संतोष न हुआ । राम के वन
से लौठ कर आने पर उनसे शिकायत की कि महाराज, आपकी अनुपस्थिति
में हमें और तो सब सुख रहा, परंतु भरत के प्या ने प्राण ले लिये।
कहावत का अभिप्राय' यह कि कोई कितनी ही भलाई करे फिर भी लोगों
को आलोचना का अवसर मिल ही जाता है।
भरम गओ तौ सब गओ।
एक बार घर का भेद खुलने से सब इज्जत-आबरू चली जाती है। .
भरम भारी खीसा खाली।
नाम तो बहुत, परन्तु गाँठ में कुछ नहीं ।
भरम मारे, भरस जिवाबे।
बात खुल जाने पर आदमी का मरण हो जाता है। और जब तक बात ढकीं
रहती है, उसकी रक्षा रहती है ।
भरी गाड़ी में सुप भारू नई होत।
भरी गाड़ी में सूप भारी नहीं होता। बहुत खर्चे में थोड़ा खर्चा आसानी से
समा जाता है ।
भरल्या गाड्यास सूप जड नाहीं--मराठी
भरी. सभा में गूंगा बोले।
अयोग्य आदमी के बीच में बोलने की धृष्टता करने पर कहते हैं ।
भरी सभा में साख भर, उनके पुरखा नरक गिरे।
जो चार आदमियों के सामने झूठी गवाही देते हैं उनके पुरखा नरक में जातें हैं ।
भरे-पूरे को हँका भराउत।
जबरदस्ती हाँ कराते हैं ।
भरे समुन्दर में घोंघा प्यासो।
भरोसे की भैंस पड़ा ब्यानी। क् *
मानों कोई विलक्षण बात हुई ।
“ २५७ .-
अर ह
भाँड़ी ] हे [ बुन्देली कहावत कोश
भली कतन का जात ।
... भली बात कहने में क्या खर्च होता है ?
भली भई जिजी सासरें गईं, जिजी की फरिया मोई कों भई।
ननद के रहते उसकी किसी वस्तु को छुना भी कठिन होता है । इंसलिए
उसके ससुराल चले जाने पर भावज प्रसन्न होकर कहती है कि, चलो अच्छा
हुआ जिजी चली गयीं । उनकी साड़ी तो अब मुझे पहिलने को मिलेगी ।
भले को जमानो नदयाँ।
भले का जमाना नहीं । .
भले के सब साथी।
भले को नाम र॑ जात ।
भले का नाम रह जाता है ।
भाँड़न के घोड़े, खायें भोत चलें थोड़े।
बड़े आदमियों के नौकरों के लिए कहते हें ।
भाड़न के संग खेती करो; गा बजा के अपनी करी।
भाँड़ों के साथ खेती की जाय तो कोई उनसे क्या वसूल कर लेगा ? गान्बजा
कर वे तो उसे अपना बना लेंगें।
लफंगों के साथ कोई काम करता मूखंता है।
भाँड़ी भई है तो दो छावँं और सई।
बात बिगड़ी है तो दो छबले और सही । अर्थात बदनामी ही जब हुई है तो
व्यर्थ खचे क्यों किया जाय ?
किसी सज्जन के यहाँ विवाह में पूड़ियां कम पड़ गयीं। परोसने वालों ने
भीतर भंडारेमें आकर कहा कि भाँड़ी हो रही है अर्थात बात बिगड़ रही है। इस
पर भंडारे में जो आदमी था उसने कहा--“अच्छी बात है, भाँड़ी जब हो ही रही
है तो पूड़ियों के दो छबले जो तुम वापिस लाये हो, यहीं रख दो | थोड़ी और भाँडी हु
हो जायगी।
"कल. र प् ् -«
बन्देली कहावत कोश]. [भीक
भाई, भतीजो, भानजो, भुट्याँ उर भूषाल।
इन पाँचऊअन कों छोड़क अंत करो व्यापार ॥
भाई, भनजया सोई, जीमें हेँड़िया खुदबुद होई।
भाई-भानजा वही है जिससे काम निकले ।
भार बदो सो होय।
जो भाग्य में लिखा होता है वही होता है ।
भाग्गी के भूत कमाऊत।
भाग्यवानों के सब काम अपने आप हो जाते हैं ।
भानुसती के बट्टा।
चालाक आदमी ।
भारी ब्याज मल को खाये।
बहुत ब्याज के लोभ में मूल भी मारा जाता है।
भिम्म के हाती।
भीम के हाथी । ऐसा आदमी जिसका कहीं ठिकाना न लगे ।
जनश्रुति है कि महाभारत के युद्ध में भीम ने शत्रुओं की सेवा के हाथी
पकड़-पकड़ कर आकाश में फेंक दिये थे जो अब भी वहाँ निरुद्देश्य धूम रहे हैं ।
ईसुर भये भिम्म के हाती लगे न कोनऊं हिल्लें-ईसुरी
भींत लंक चितेउर करत।
दीवाल हाथ में लेकर चित्रकारी करते हैं । अनहोती या असंभव काम करना ।
भींत भीतरी, कुआ बायरो। सा
घर की दीवाल भीतर की ओर दबी हुई और कुएँ का घेरा बाहर की ओर फैला
हुआ होना चाहिए । इससे वे मजबूत रहते हैं ।
भीक छोड़ी, कुत्तन से बचे। है हु
एक हानि हुई, पर दूसरा छाभ तो हुआ ।
भीक में भीक देय, तीन लोक जीत लेय।
दे० दान में दान ।
3 3 3 मु
भूतन | [ बन्देली कहावत कोश
दर
भुगतमान भुगते बने, ज्ञानी म्रख दोय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान सों, म्रख भुगते रोय ॥
भुस के मोल मलीदा।
अंधेर की बात ।
भुस प॑ कौ लीपनो, चौकनों ना चाँदनो।
निरथंक काय॑ ।
भूस सें अंगरा डार, सलंगो दूर भई।
दो आदमियों में लड़ाई-झगड़ा करा कर अछग हो जानेवाले के लिए ।
भूंक गयें भोजन मिले, जाड़ो गयें रजाई।
जोबन गयें तिरिया मिल्ली कौन काम की भाई॥
भूक में चना चिरोजी।
भूख में चना भी चिरोजी जैसी स्वादिष्ट लगते हैं ।
भूंकी भई धना, तो खान लगीं चना।
(१-स्त्री के लिए संबोधन ।)
भूंके बेर, अघाने पोंड़ा।
बेर भोजन के पूर्व और गन्ना भोजन के बाद सेवन करना चाहिए ।
भूंकें भगत न होय गुपाला। द
भूजी मछरी दौ में पपी३१
भूनी हुई मछली पानी में गिर गयी । हाथ में आयी चीज निकल गयी ।
भूतन के घर सालिगराम।
भूतों के यहाँ शालिग्राम का क्या काम ?
भूतन के घर बराई, (और) खसियत के घर लुगाई।
भूतों के घर ऊख और हिजड़ों के घर लुगाई। असंभव बात ।
भूतन को लोट दिखावो।
, भूतों को कलाबाजी दिखाना व्यथ है, क्योंकि इसमें तो वे स्वर्य॑ दक्ष होते हैं ।
छत २ ६.0 «5
बुन्देली कहावत कोश ] . [भेंसा
भूत प्रान नई लेत, पे हलकान तो कर लेत।
दुष्ट के लिए कहते हें ।
भूल गओ राग-रंग, भूल गई छकड़ी । तीन चीज याद रईं, नोंन तेल रूकड़ी।
गृहस्थी के चक्कर में पड़ना । ।
भूल गई चतुर नार हींग डार दई भात में।
किसी होशियार आदमी से कोई बेढंगी भूल हो जाना ।
भूल-चक लेनी देनी।
हिसाब चुकता करते समय कहते हें ।
भूले बिसरे राम सहाय।
भूले-चके का ईश्वर मालिक है ।
भेड़ कों तो मुड़नईं सुड़ने।
भेड़ कहीं जाय उसे तो मुड़ना ही है। गरीब को सब जगह विपत्ति ।
भेंस केंदोलिया पिय ल्याय । माँगें दृद कहाँ से आय ॥
ऐसी भैंस जिसके कंधे चौड़े हों कंदोलिया कहलाती है। वह दूध कम देती है।
भेंस कुठारी, बेल छतारो।
भेंस तो वह अच्छी होती है जिसका पीछे का हिस्सा चौड़ा हो, और बैल वह
जिसकी छाती चौड़ी हो ।
भेंस के सोंग भेंस कों भारू नईं होत।
अपने परिवार के किसी एक आदमी का भरण-पोषण करने में किसी को कोई
कठिनाई प्रतीत नहीं होती । '
भेंसनां सींगडा भेंसने भारी नहिं पड़े। --गुजराती
म्हशीचीं शिगें म्हज्ञील्ा जड़ नाहींत। --मराठी
भेंस को कोदों नई पचत।
ओछे आदमी के पेट में कोई बात नहीं रहती ।
भेंसा भेंसन में के कसाई के खूंटन में । रे
बुरी संगत में पड़े आंदमी के लिए कहते हें ।
है.
ल्* रक्त
श््
भेंडपुआ ] [ बन्देली कहावत कोश
भैय्या होय अबोलना तोऊ अपनी बाँह।
भाई से बोलचाल न भी हो तौ भी वह अपना भाई ही है ।
भोंदू भाव न जानें, पेट भरे से काम।
मूर्ख को अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता। उसे तो पेट भरने से काम |
भों परन भूंकत मरन, जौ बरात कौ हेत।
जमीन पर लेटना और भूखों मरना यही बारात का सुख है !
भोजन के पिछारूँ और स्नान के अगारूँ।
... भोजन के बाद ओर स्नान के पहिले ठंड मालूम होती है ।
भोंके ना दर्रायें, मसकऊँ काट खायें।
(१-चुपचाप ।) कपट का बर्त्ताव करने वाले के लिए ।
भौजी की थलिया, देवरा सराफी करे।
घर के ही किसी आदमी का माल अपने काबू में आ गया हो तो खर्च करते
क्या लगता है ?
अम को भत। मर
सभ्
मंगलवारी पर दिवारी । मंड धर रोवे बेपारी ॥
लोक-विद्वास है कि मंगलवार को दिवाली पड़े तो वह व्यापारियों के लिए
शुभ नहीं होती ।
मेंडपुआ की नाक पोंछने परत।
माँड़े'बनाने वाले की नाक पोंछनी भड़ती है। जिस आदमी से कोई काम लेना
होता है उसकी सब तरह से खुशामद करनी पड़ती है ।
(माँड़े बनाने वाले के दोनों हाथ गुंदे हुए गीले आटे से सने रहते हैं, और
यदि उसकी नाक आ जाय तो दूसरे आदमी को पोंछनी पड़ती है ।)
है - २६२ -
कप
ब॒न्देली कहावत कोश ] [ मगरे
मेंडवा बाँदबे सब आऊत, छोरबे कोऊ नईं आऊत।
मंडप बाँधने सब आते हैं, छोरने कोई नहीं आता । बने काम में सब साथ
देते है ।
(विवाह के अवसर पर मंडप तैयार करने के लिए बिरादरी के पंच बुलाये
जाते हैं और उस दिन उनको भोजन भी कराया जाता है ।)
मउअन के टठपकें घरती नईं फटत।
महुआ के फूलों के टपकने से धरती नहीं फटती । किसी अत्यन्त तुच्छ आदमी
से बड़े काम की आशा व्यथे है।
(महुआ के फूल चेत में टपकते हैं और उस समय प्रात:काल फूलों से धरती
बिछ जाती है।)
मउआ मेवा बेर कलेवा गुलगुच्र' बड़ी मिठाई।
इतनी चीजें चाहो तो गुड़ाने करो सगाई॥
( १-महुए का पका हुआ फछ। २-मध्यप्रदेश के उस भाग को गोंडवाना
कहते हैं जहाँ किसी समय गोंडों का राज्य था। यहाँ के जंगलों में महुआ
और बेर बहुत होता है।) महुए का मेवा, बेर का कलेवा और गुलूगुच्र की
मिठाई खाना चाहते हो तो गोंडवाने में विवाह करो |
मउआ मोरें भुंजे घरे हें, लटा' घरे हें कूट।
ग्योड़ें होकें साजन कड़ गये, कौच बात की चूक ॥
( १-मुने हुए महुओं को कूट कर और उनमें गरी, चिरौंजी आदि मेवा मिला-
कर बंताया गया खाद्य पदार्थ ।) महुआ मेरे यहाँ भुने रखे हैं, छूठा भी कुटे
रखे हैं, फिर मुझसे ऐसी कौन सी भूले हो गयी कि साजन गाँव के पास से निकल
गये और हंमारे घर नहीं आये।
मकर चकर की घानी । आदो तेल आदो पानी ॥
धत्ते और कपटी व्यवसायी के लिए प्रयुक्त । 50
मगर बुड़कयों सिखाउत।
हक
मगर को डबकी मारना सिखाते हैं। चालाक को चालाकी क्या सिखाना ?
- २६३ - हु
भर
मताई | | बन्देली कहावत कोश
मधा' न बरसे भरे न खेत । माता न परसे भरे न पेट ॥
(१-भादों के महीने का एक नक्षत्र ।) मंघा में पानी बरसे बिना खेत नहीं
भरते, और माता के परसे बिता पेट नहीं भरता।
भघा-पूर्वा लागीं जोर । उर्दे मूंग सब घरो बहोर। द
बऊत बने तो बेयो। नातर बरा बरी कर खेयो॥
मघा और पूर्वा नक्षत्र में खूब पानी बरसने से उर्दे और मैँग की फसल को
हानि पहुँचती है। इसलिए ऐसे समय में इनको बोते बने तो बो देना
चाहिए। अन्यथा अच्छा यह है कि बरा-बरी बनाकर खा लिया जाय।
पछरी के जाये, किन तरायें।
मछली के बच्चों को तैरना कौन सिखाता है ” जिसका जो स्वभाव है वह
अपने आप आ जाता है। पैतृक गुण किसी को सिखाना नहीं पड़ता ।
मठा बिचारे का बिगरें जब बिगरें तब दूद।
किसी बात की हानि तो बड़े आदमियों की ही होती है गरीबों की क्या होगी ?
पत बारे की माँ भरे, सत बढ़े की जोय।॥
छोटी उम्र में किसी की माँ न मरे, और बढ़ापे में किसी की स्त्री ।
मताई के पेट से कोऊ सीक के नई आऊत।
माँ के पेट से कोई सीख कर नहीं आता।
सताई बाप ने जनम दओ, करम नईं दओ।
माँ-बाप जन्म देते हैँ, परन्तु सब अपना-अपना भाग्य साथ लेकर आते हैं।
मताई, मोय पीर आवदें तब जगा दियो, कई--बेटा तुमतों उपतईं के सबरे गाँव
को जगाउती फिरो।
किसी लड़की के बच्चा होने वाला था। अपनी माँ से उसने कहा--माँ,
मुझे जब प्रसव की पीड़ा हो तो जगा देना। माँ ने उत्तर दिया--बेटा,
तुम तो स्कय॑ ही पूरे गाँव को जगाती फिरोगी। जिसे कष्ट होता है वह स्वयं
चिल्लाता है।
ह - २६४ -
कि
बन्देली कहावत कोदा | [ मनायें
मन की सनई में गई।
जो चाहते थे वह नहीं. हुआ।
मन के राजा।
मनमानी करने वाला |
सन के लड़आ खाबो।
हवाई किले बाँधना ।
मन के हार हार है, मन के जीते जीत।
मन कौ चीतो होय नहिं, प्रभु चीतो' तत्काल।
मनुष्य का सोचा कुछ नहीं होता, भगवान जो चाहता है वही होता है।
मन चलत, पे टटुआ तो चलतई नहयाँ।
बुद्धावस्था में शरीर साथ नहीं देता तब कहते हैं।
मन चले को सोदा।
जिसे जो वस्तु अच्छी लगती है वही खरीदता है।
मन सन भावे, सूंड हलावे।
किसी वस्तु को लेने की आन्तरिक इच्छा होते हुए भी ऊपर से इन्कार करना।
भन महीप के आचरण, दग दिमान कह देत।
मन की बात चेहरे पर प्रकट हो जाती है।
मनमानी घर जाती।
अपने मन की करना |
मत सालयें, चित्त चदेरी।
चित्त का स्थिर न होना।
मन में उठी हुलक, तो का खेंजरी का दुलूक।
किसी काम को करने की उमंग मन में उठे तो उसे कर ही डालना चाहिए ॥।
सनायें मनायें खीर न खाई, जूंठी पातर चाटन आई।
अंत में हार कर वही काम करना जिसके लिए पहिले इन्कार कर दिया।
3
शक
मर] द [ बन्देली कहावत कोश
भनुवाँ जंजाली, तु कौन चिरंया पाली।
गृहस्थी के जंजाल के लिए प्रयुक्त ।
भनस बलो नहिं होत है, समय होत बलवान।
भीलन लटी गोपका बेइ अर्जुन बेइ बान॥
भाग्य के सामने मनुष्य की नहीं चलती ।
महाभारत में कथा है कि आपस की कलह के कारण यदृवंश जब नष्ट हो
गया और भगवान श्रीकृष्ण भी स्वधाम पधार गये तब अर्जुन उस वंश की बची
हुई स्त्रियों को लिवाने के लिए द्वारका गये । वहाँ से जब वे हस्तिनापुर लौट
रहे थे तब रास्ते में उनको भीलों ने छूट लिया। उनकी वीरता और उनके
दिव्यास्त्र कुछ काम नहीं आये।
मरका बेल और टिसकुल जनी। इनके मारे रोबे धनी॥
जिस किसान का बैल मरकहा और स्त्री बनाव-श्वृंगार करने वाली होती है
वह सदैव कष्ट भोगता है।
मरका बेल भलो, के सूनी सार ।
(१-ढोर बाँधने का स्थान, पशुशाला) । सार सूनी रहे इससे तो मरकहा
बैल अच्छा । |
अच्छी या बुरी वस्तु कैसी भी हो, बिलकुल न होते से तो फिर भी अच्छी ।
सर गई किल्ली काजर कों। क् फ
किल्ली काजल लगाने की अभिलाषा में मर गयी ! जब कोई काली-कलटी
स्त्री अपने को बहुत सुन्दर बनाने की चेष्टा करे तब उसके लिए कहते हें।
मरि रे रांड खटाइ बिना। -शढ़वाली
मर गई तो पठई दे।
मर गयी है तो भी भेज दो। किसी वस्तु के लिए अनुचित रूप से हठ करना ।
कोई मूर्ख आदमी अपनी स्त्री को लिवाने ससुराल गया। परन्तु इस बीच में
वहाँ उसकी मृत्यू हो गयी थी। ससुराल वालों ने समाचार सुनाया तो उसे विश्वांस
नहीं हुआ। -बोला---में यह सब कुछ नहीं जानता । तुम तो आज ही मैरी स्त्री
को मेरे साथ भेज दो।
“ रेए५
क्र
बुन्देली कहावत कोश ] [ मरी
मरघटा कौ गओ को लौठत ?
मरघट का गया कौन लौटता है ? गयी बात फिर हाथ नहीं आती ।
मरदे रोटी, बरदं काँस।
मर्द को अच्छा खाना, और बैल को अच्छा घास चाहिए।
मरबे की फ्ससत नहयाँ।
अर्थात बहुत व्यस्त हैं।
मरबे कों का हाती-घोड़ा जुतत ?
मरने का क्या ठीक ? समय आया मर गये ।
सरबो भलो बिदेस को जहाँ न अपनो कोय।
माटी खायें जनावरा, महामहोच्छव होय॥
मरियाँ मुंस, घर में खुंस।
दुबले-पतले मरतुले, पति से स्त्री सदेव रुष्ट रहती है।
मरियाँ मुंसत करम ढकन!, कोदों की रोटी पिठ भरना ।
कोदों की रोटी केवल पेट भरने के लिए होती है, उसी प्रकार मरतुला
पति भी केवल सौभाग्य की रक्षा के लिए होता है।
भरी किल्लन काजर देत
मरी किल्लियों को काजल लगाते हैं। निक्ृष्ट या नष्ट प्राय: वस्तु को सुन्दर
बनाने की चेप्टा करते हैं ।
मरी किल्ली की नाई लेखबो।
किसी को बिलकुल तुच्छ समझना | परवा न करना ]
भरी जायें सलार गावें ।
मरने को हो रही हैं, परन्तु मल्हार गाती हैं । घर में खाने को नहूं, गाना
सूझता है ।
मरी बछिया बासन के नाव ।
निकम्मी वस्तु दूसरे के मत्ये मढ़ना ।
« २६७ -
मरे] [बुन्देली कहावत कोश
सरी सिदरियनत छाले पर गये ।
मरी मेंढकी को छाले पड़ गये ! कोई छोटा आदमी जब नजाकत दिखाये।
मेढकी को भी जुकाम ! ।
मरे की कीने जानी ?
मरने को कौन देख आया ?
मरे को मरे साह मदार।
दुबंल को सब सताते है ।
मरे को मर्दन।
मरे को मारता ।
मरे ढोर को किल््लीं छोड़ देती ।
जिंससे कुछ मिलने की आशा नहीं होती लोग उसे त्याग देते हैं।
मरे पूत की बड़ो आँखें।
हाथ से जो वस्तु निकल जाती है उसकी सब प्रशंसा करते हैं । मरे आदमी
को सब अच्छा कहते है।
मरे बाबा की पस्से सी आँख ।
मेल्याचे डोले पशाएवढे । --मराठी
(मरे की आँखें हथेली जेंसी) ह
मुई भैंस ने घी घणो। --शजराती
मरे प्तन हूँका भराउत
मरें लड़के से हाँ कराना चाहते हें । ऐसा हठ जो पूरा न हो सके ।
भरे लो कौ नातो।
.. मरने तक ही दुनिया से नाता रहता है ।
, भरे लों को बेराट। ॒
(१-बे रभाव, शत्रुता) मरने तक के ही सब झगड़े है ।
मरे सांप की क्राँखें कुरेदबो।
मरे को मार कर अपनी बहादुरी दिखाना ।
क््ण्ण्क २ धर एल
शी
बुन्देली कहावत कोश | [मगर
मर न कर, हुकुर हुकुर करे ।
ऐसे बूड़े रोगी से कहते हैं जिसकी सेवा करते-करते लोग ऊब जाते हैं।
मर न माँचो देय।
न तो मरता है और न चारपाई छोड़ता है । बूढ़े के लिए ।
मरे बाप रोबें अजा को ।
कष्ट तो किसी बात का, रोवें किसी और बात के लिए ।
मर्द मुछारो, बद पुछारो।
मर्द मूँछों वाला और बैल बड़ी पूँछ वाला अच्छा होता है।
ससान कौ भूत।
गले पड़ गया आदमी।
माँग चूँग के करी तीजा । भोरई हो गओ बीदक-बीदा॥
(१--भादों सुदी तीज का पर्व, हरतालिका ब्रत ।)माँग-चूग कर तो तीज
का त्यौहार मनाया और सबेरे ही मुसीबत आ गयी ! जिससे पैसा उधार
लिया था वह माँगने आ गया।
भाँगे की बछिया, पर पर दाँत निहारे।
मुफ्त की चीज का क्या देखना ? उसे तो चुपचाप ले लेना चाहिए।
माँगे के बेल अंधिरिया रात।
माँगे के बैल, और अँधेरी रात। तात्पये यह कि कोई देखेंगा नहीं, मज़े में
रात भर जोतो। दूसरे की वस्तु का लोग सदेव दुरुपयोग करते हैं।
माँगे के बेल, मसक के जोत लो।
मँगनी के बेल उनसे खूब कस कर काम ले लो।
माँगे कौ समठा मोल बिरोबर।
माँगी हुई वस्तु सदैव मँहगी पड़ती है, अव्वल तो देने वाले के सो नख़रे सहने
पड़ते हैं और फिर ऊपर से एहसान अलग -।
हमर के हो
साटी | [ बुन्देली कहावत कोश
माँगें मिले न चार, पुरे पुरे पुन्न बिन।
इक बिद्या, इक नार, घर संपत, सरोर सुख ॥
माँगें मोत नई मिलत। ञ
माँगने से कोई वस्तु नहीं मिलती ।
मांछी बिडारबे बेठे, संगे जेउन लगे।
मक्खियाँ भगाने बैठे, और साथ खाने लगे। काम कुछ सौंपा गया, करने
कुछ लगे।
माँठ' कौ साँठ बिगरों।
( १---मटकी, नील के रंग का खमीर |) माँठ का माँठ बिगड़ा है। पूरा
मामला ही गड़बड़ है।
माँस खायें मांस बड़े, घी खायें बल होय।
साग खायें ओझ' बड़े, बल कहाँ ते होय।॥।
(१ उदर, तोंद।) |
“शाकेन रोगावद्धेन्ते पयसा बद्धते तनुः।
घृतेन वद्धंते वीर्य मांसान्मांसं प्रवद्धंते ।--चाणक्य नीति
माघ तिला तिल बाढ़े । फागुन गोड़े काढ़े ॥
माघ में दिन थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ने लगता है। फागुन के महीने में प्रत्यक्ष
बढ़ जाता है।
माघ सास की बादरी, और क्वाँर कौ घाम।
जे दोऊ जो कोऊ सहै करे किसानी काम ॥
माटी कत, मोय छ तो देखो।
मिट्टी कहती है, मुझे छकर तो देखो । मकान की मरम्मत आदि का काम ही ्
प्रारंभ में तो थोड़ा जान पड़ता है, परंतु शुरू करते ही बहुत बढ़ जाता है।
साटी को देवी तिलकनई कों भईं। का
मिट्टी की देवी तिलक लगाने में ही खतम हो गयीं ! माँगे-चूँगे में ही किसी वस्तु...
का धीरे-धीरे करके खतम हो जाना। क्
अल्प २ | ५
बुन्देली कहावत कोश ] [मार
माटी छए सोनों होत।
मिट्टी छूने से सोना होता है। भाग्यवान के लिए कहते है ।
माते की लगन में लूगुन।
बड़े आदमी के काम के साथ अपना भी काम सट जाना ।
माते दुके पयाँर में, को कये बेरो होय।
बड़े आदमियों की बात कह कर कौन उनसे बुराई मोल ले ?
कौन कहे कि माते घर के भीतर प्यार में छिपे बैठ हैं।
मात को पान भौत होत।
सम्मान के साथ दिया गया पान बड़ी चीज होती है।
मानों तो देव, नई तो पथरा।
विश्वास से ही सब कुछ होता है।
मानस के कार्में मान्स आऊत।
मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है।
मानस को मानस से काम परत।
मनुष्य का मनुष्य से काम पड़ता है।
मानस देख के बात करो जात।
मनृष्य देख कर बात की जाती है। जो मनुष्य जैसा हो उससे वैसी बात
करनी चाहिए।
मामा के आँगें ममयावरे की बातें। '
जानकार के आगे अपनी समझदारी बधारना।
सार के भग जहये, खाक पर रहये।
छ्नि
मार के भाग जाना चाहिए, खाके लेट जाना चाहिए।
मार के आँगें भूत भगत। *
मार से सब डरते हैँ।
न २७ २ कल
सियाँ] [ बन्देली कहावत कोश
भार' जोतियें, कुले ब्याइये।
(१- काले रंग की उपजाऊ जमीन ।) खेती करना चाहिए मार की जमीन
में, विवाह करना चाहिए उच्च कुल में।
मारते के अंगारू और भागते के पछारू।
डरपोक के लिए कहते हें।
मारतेखाँ से सब डरात।
टेढ़े से सब डरते हैँ ।
सारी मरे सलार गावें।
मरती भूखों हैं, परन्तु मल्हार गाने का शौक चर्राया।
पा० मरी जायें मलारे गावें।
भार और रोउन न देय ।
सारे मरें निरसई' के, मूंछन कों घी चुपरें।
(१-विपत्ति, गरीबी ।) विपत्ति के मारे मरते हैं, परन्तु मूँछों में घी चुपड़ते
है ।
कण्या खाऊन मिशांस तूप लावर्णे--मराठी
सारे मरे निरसई के, दई की डकार लेये।
भीख के टुकड़े बाजार में डकार ।
सिंठया की बिंलइया हों रयें। ह
हलवाई की बिल्ली हो रहें हो। जब कोई किसी बड़े आदमी के यहाँ अपनी
घुस-पैठ करके खूब माल-टाल उड़ाये तब कहते हैं।
मियाँ बीबी राजी, तो का कर काजी।
सियाँ छेल़-छटाक, बीबी धूल फटाक।
मियाँ छेछ चिकनिया बने फिरते हैं, बीबी धूल फटकती है।
सियाँ तौ छोड़त, पे बीबी नई छोड़तीं ।
जब कोई आदमी किसी के गले पड़ जाये।
क्ण्क र् 3२ कण
बुन्देली कहावत कोदा | | भुंडी
सियाँ मरें आफत की ठेल । बीबी कहें शिकारे खेल ॥ ह
मियां तो आफत के मारे मरते हैं, बीबी कहती है--यौवन का रस लूठो।
सियाँ मरे, न रोजा टरें।
गले पड़ी मुसीबत के लिए।
मिसरी सी घुर रई।
मिश्री सी घुल रही है। मन ही मन प्रसन्न होना।
मीठे के बस जूठो खंये।
मीठे के लोभ से जूठा खाना पड़ता है।
भीठो और भर कठौती।
अच्छी वस्तु चाहें और वह भी बहुत, ये दोनों एक साथ नहीं होते ।
मीठी बातन पेट नईं भरत ।
मीठी बातों से पेट नहीं भरता ।
मीठो मीठों गप्प, कर (अ) ओ कर (अ) ओ थ।
अच्छी वस्तु तो अपने लिए चुन लेना और खराब दूसरों के लिए छोड़ देंता।
भीन-मेख करबो।
बाल की खाल निकालना। मुह॒त्तें देखने के लिए मीन-मेष आदि राशियों
का सूक्ष्म विचार किया जाता है। उसी से कहावत बनी ।
मुंगरिया सर गई तौ भड़फोर लाक तोई बनी।
मोंगरी सड़ गयी है, फिर भी भाँड़े-बासन फोड़ने के लायक तो अब भी बनी है।
बड़ा आदमी बिगड़ जाने पर भी छोटों को कुछ न कुछ हानि तो पहुँचा ही
सकता है।
सुंठी से माते, बारा' सी मुंछें।
(१-आझाड़।) बेमेल बात । ह क
मुंडी गेया सदा कलोर।
बिना सींगों की गाय सदा बछिया ही जान पड़ती है। घर से बेफिक्र और
अल्हड़ आदमी के लिए कहते हैँ।
कम २७ | सनक
ब्० १८ ह
सूंड]. [ बुन्देही कहावत कोश
मुंड्चीरापन करबो।
मुँड्चीरा फकीरों की तरह किसी काम को करवाने के लिए मूँड़ चीरने
की धमकी देना। धरना देकर बैठना।
मुफत कौ चंदन घिस मोरे नंदन।
म्फ्त का माल उड़ाने वाले के लिए कहते हैं।
मुफत कौ माल किये बुर (अ) ओ लगत।
मुफ्त का माल किसे बुरा लगता है ? किसी को नहीं ।
मुरगी को तकुआई को घाव भौत।
मुरगी को तकुआ का घाव ही बहुत। गरीब आदमी थोड़ी भी हानि सहन
नहीं कर सकता ।
मुहरंस की पेदाइस।
मनहूस आदमी ।
|.
मंछन पे ताव दंबो।
अभिमान से मूँछ मरोड़ना। अकड़ दिखाना।
सूंछन कौ झूला डारबो।
मूँछों का झूला डालना। हास्य-जनक काम करना ।
मूड को मारो बिच्छू काँ लॉ जेय।
कोई आदमी गहरी चोट कहाँ तक सहन कर सकता है।
मूंड़ न सई कपार सई।
मूंड न सही कपार सही । अर्थात जो बात तुम कह रहे हो वही हमने भी कही ।
दोनों में कोई अंतर नहीं ।
मूड मुड़ाउतनइई ओरे परे।
कार्य आरम्भ करते ही विध्त हुआ।
- २७४ -
अर
बुन्देली कहावत कोश ] [ मेंघ॑
म्रत की सब रन, चतुर की एक घड़ी।
मूरख के साथ घंटों रहने की अपेक्षा चतुर के. साथ एक घड़ी रहना अच्छा।
अथवा मूरख जिस काम को घंटों में नहीं कर सकता, चतुर उसे कुछ क्षणों में
निपटा देता है।
म्रखन के का सींग होत *
मूर्खों के क्या सींग होते हैं?
म्रख कों समझाइये, ज्ञान गाँठ को खोइये।
म्रख से दुख रोओ, रोटा से घी खोओ।
मूर्ख के सामने अपना दुखड़ा रोना उसी तरह व्यर्थ है जैसे मोटे अनाज की
रोटी के साथ घी बरबाद करना।
म्रत हृदय न चेत जो गुरु मिर्लाह विरंचि सम।
मूर्खे आदमी को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते ।
मूल से ब्याज प्यारो, पृत से नाती प्यारो।
मूसर सें ढोल पीठबो।
बेतुका काम करना ।
मूसर से मूड सारबो।
.. मूखे के साथ समय नष्ट करना।
मूसर होतो तौ पाउनों का रिसाकें चलो जातो ?
मूसल होता तो क्या पाहुना अप्रसन्न होकर चला जाता ? घर में जब कोई
वस्तु न हो और उसके लिए किसी को इन्कार करना पड़े तब विनोद में
प्रयोग करते हैं।
मेघ समान जल नहीं, आप समान बल नहों।
नास्तिमेघसमंतोयं नास्तिचात्मसमंबलम् |
नास्तिचक्षु: समंतेजों नास्तिधान्यसमंप्रियम् ॥---चाणक्य नीति
मो] [ बुन्देली कहावत कोश
में दूला की मौसी, धर नेंग कौ ढका।
जब कोई आदमी यह बताये कि 'में भी कुछ हूँ तब व्यंग्य में उसके लिए
कहते हैं।
मेन के पुतरा हो रये।
मोम के पुतले हो रहे हैं । कोई बहुत थोड़ी सी बात पर रूठ जाना या आँसू:
द गिराने लगना |
मर कों, न साउर कीं।
न मेर में सम्मिलित होने की, और न माहुर छगंवाने की । अर्थात किसी गिनती
में नहीं। विवाह में एक परिवार के लोग ही मैर (मातुका) की पूजा में भाग
लेते हैँ। इसी प्रकार माहुर भी उस अवसर पर खास-खास स्त्रियों को ही
लगाया जाता है।
मों आवो कौर अपनों नई होत।
मुँह तक आया कौर भी अपना नहीं होता। अर्थात वह भी कभी-कभी हाथ
से छिन जाता है।
मों कौ कौर छड़ा लओ।
किसी की रोजी छीन ली।
मों को कौर नाक में नईं जातो रत॥
मुँह का कोर नाक में नहीं चला जायगां। प्रकृति-विरुद्ध कोई काम नहीं होता ।
प्रायः उस समय कहते है जब रात्रि के समय किसी को एकाध मिनट के
लिए अँधेरे में बैठ कर भोजन करने का मौका आ जाय और वह शिकायत
करे कि रोशनी कहाँ गयी ।
मों चीकतो, पेट खाली।
ऊपर से टीम-टाम बनाये रखने वाले के लिए।
| मों दूर के थापर।
जो काम करना है किया जा सकता है। कौन सी बाधा है ?
“» २७३९ -
बुन्देली फहावत कोझ् | [माँ
मों देख के टींका करबो।
अलग अलग आदमियों से अलग-अछरूग तरह का बर्त्ताव करंना। पक्षपाव
से काम लेना।
मों देख के थापर मारबो।
मुंह देख कर थप्पड़ मारना।
मों देख के बात करबो।
मुंह देख कर बात करना।
मों देखी सब कत।
मुँह देखी सब कहते हैं। सब एक दूसरे का मुलाहिजा करते हैं।
मों देखे की प्रीत।
दिखावटी प्रेम ।
मों देखो व्यवहार ।
झूठा शिष्टाचार करना ।
मों धो राखो।
मुंह धो रखो। अर्थात तुम जो चाहते हो वह नहीं हो सकता, अथवा तुम
इसके योग्य नहीं। .
मों पे कछ, पीठ पछारू कछ।
0.
मुंह पर कुछ और पीठ पीछे कुछ और कहना ।
मों पे कारस पुत गई।
बदनामी हो गयी।
मों माँगी मौत नईं मिलत।
मनचाहा काम नहीं होता ।
मोंमाँगे दाम नई मिलत॥) द डे
किसी वस्तु के मुँह-माँगे दाम नहीं मिलते।
+ २७७ ८
मोर ] [ बुन्देली कहावत कोश
मों में आई सो घर कई। (अथवा के दई )
पा क् मुँह में आया सो कह दिया। बिना सोचे-विचारे कहने पर प्रयुक्त । '
मों में आओ कौर पिछल गओ।
हाथ में आई वस्तु निकल गयी ।
मों में मुसीका दयें रओ।
(१--सुतली की जालीदार पट्टी जो खलिहान में बैलों से काम लेते समय
उनके मुँह पर बाँध दी जाती है।) अर्थात चुप्र. रहो। बोलो मत। मौन
धारण किये रहो। ।
मों में रास राम, भीतर कसाई के काम ।
पाखंडी साधू के लिए प्रयुक्त ।
मोची के मोची रये।
जैसे के तैसे रहे ।
मोंटी खाल दृद की हान । पतरी खाल दुधारू जान॥।
मोटी खाल वाली गाय कम दूध देती है। पतली खाल वाली दुधार होती है।
भोय न पूंछे कोय, में लालन की मौसी।
बीच में जबद॑स्ती आ धमकने वाले को लक्ष्य करके व्यंग्य में ।
भोय बूझ्,, में खरा। क्
अपने को बहुत स्पष्ट-वक्ता बताने वाले पर कटाक्ष ।
भोरी खिलाई लखरो और भोई से लोखरफंद। क्
मेरी खिलाई हुई लोमड़ी और मुझसे ही चालबाजी !
मोरी दोऊ मीठी ।
मेरी दोनों मीठी अपने को झूठा संतोष प्रदान करता। '
मोर पीसे पिसनारी, में राउर' पीसन जाँव !
( १-राजफुर। राजमहल। ठाकुरों का घर या मुंहल्ला।) मेरे यहाँ तो
पिसनहारी पीसती है ओरु मे ठाकुरों के घर पीसने.जाऊ .,
“-. २७८ -.
जा
बुन्देली कहावत कोश ] [भौत
मोर है सो कोऊ के नदयाँ।
मेरे है सो किसी के नहीं। अपनी वस्तु का अभिमान करने वाले के लिए
कहते हें ।
मोरे आँगे कौ भओ लड़दया और मसोई से अब्बे-तब्बे।
मेरे सामने का पैदा हुआ गीदड़ और मुझसे ही अबे-तबे ?
मोरे खुदाय अबरा-डबरा, मोई से रूगे बुल्यान !
मेरे खुदाये हुए तो तालाब और मुझसे ही ऊंचे बोल ! जिसकी वस्तु वही
काम में न ला सके ?
भोरे घर सें आग ल्याई, ताव धरो बंसाँदुर !
(१ वह्वानर, वैदिक अग्नि का एक लाम |) दूसरे के पास से लायी गयी
वस्तु को अपनी बता कर उपस्थित करना, और उसके लिए दूसरे का एहसान
न मानना ।
मोरे तो मम्मा बीच हैं। .
मेरे तो मामा मध्यस्थ हैं । किसी काम में दूसरे की ओट लेना ।
मोरे बटखरा', मोई कों ठगें लेत।
(१-तौलने के बाँट।) ह
भोरे भरोसें रइयो ना, और बिरानो खान जइयो ना।
मेरे भरोसे रहना मत, और दूसरे के यहाँ भी खाने जाना मत ।
मोरो छगन-मगन सोने को! द रा
मेरा लड़का सोने का ! अपनी वस्तु का अभिमान करना।
भोसें बची तब और ने पाई ! क्
किसी वस्तु को जब कोई बाँट-बाट कूर न खाये और स्वयं सब रख लेतब
व्यंग्य में । क् हे कम
भौत की दबाई नहयाँ। : ह- ह
मौत का इलाज नहीं !
यारी [ बुन्देली कहावत कोश्न
मौत के आँगें कोऊ कौ बस नईं चलत।
... मौत के आगे किसी का वज्ञ नहीं ।
भौत से सब हारे।
सौसी को घर नहयाँ।
मौसी के घर लाड़-प्यार बहुत होता है। अर्थात् जरा सोच-समझ कर काम
करो।
ध्याऊं को ठौर।
कठिन काम ।
स््याऊं कौ ठौर को पकर ?
असली कठिन काम कौन करे ?
इस पर कथा है कि एक बार सब चूहों ने मिल कर परामशे किया कि बिल्ली
हमें मौका पाते ही खा जाती है। अतः उसके गले में एक घंटा बांध दिया जाय
तौ उसके आने पर घंटे की आवाज सुन कर हम लोग भाग जाया करेंगे। बात
सबको बहुत पसंद आयी । किसी ने कहा--हम बिल्ली की पूँछ पकड़ेंगें। किसी
ने कहा--हम टांग पकड़ेंगे। इस तरह सब अपनी-अपनी वीरता बखान करने
लगे। तब एक बूढ़े चहे ने कहा कि यह तो सब ठीक । परन्तु म्याऊं का ठौर यानी
गदेन कौन पकड़ेगा ? यह सुन कर सब चूहे डर के मारे भाग गये।
य
यार की यारी से काम, बाके फंलन सें का काम।
अपने मतलब से मतलब । कोई बुरा हे तो बना रहे।
यार भोरे प्यारे, कुटो न्यारे न्यारे।
संगठन के बिना आदमी पिटता है।
यारन को खीर, खसम कों थुली। .«
घर के लोगों की परवा न करना ।
पारी करें बड़े फल पाये।
प्रेम का परिणाम अच्छा नहीं होता ।
कि श्८ जा
ब्रन्देलो कहावत कोद ] [ रहये
यारी करे सो बावरो कर के छोड़े क्र।
के तो ओर निबाहिये, के फिर रंये दूर॥
(ओर निबाहना अंत तक अपना कत्तेब्य पूरा करना।)
र्
रंग पे आईं कोंसिया, कये खसम से मं.सिया।
लाड़ में आकर धृष्ठता-पूर्ण बर्ताव करना ।
रंग में भंग ।
शुभकाये में विध्न।
रंडू आ की बिटिया और राँड़ कौ लरका। (जे दोऊ बिंगर जात)
इसलिए कि लड़की की देखभाल माँ ही कर सकती है और लड़के की पिता ॥
रंधो भात।
रंघा भात शी ध्र बिगड़ जाता है और एक दिन के बाद ही खाने के योग्य नहीं
रहता। अतः कहावत का प्रयोग ऐसी वस्तु के लिए होता है जो बहुत दिलों
तक घर में न रखी जा सके, अथवा हज़म न की जा सके, जैसे विवाह के योग्य
सयानी लड़की अथवा पराई थाती |
रंधो भात कौके पेट समात ?
रंधा भात किसे हज़म हो सकता है !
रंधे भात कौ का राँधिये और गाय गीत को का गाइये।
कही बात को बार-बार क्या कहना ।
रइये जाके राज में ताकी तेसी कइये।
ऊंट बिलाई ले गई (तो) हाँजू हाँजू कइये।
रइये भुकस तो रइये सुक्ख। हि
पेट को थोड़ा खाली रखने से आदमी सुख में रहता है ।
_ रे८१ +
स्ये] [ बुन्देली कहावत कोश
रइये लटपट काट दिन, बरु घार्मे मा सोय।
छाँय न बाकी बेठिये जो तरु पतरो होय॥
रई बात थोड़ी, जीन लगाम घोड़ी।
कोई व्यक्ति नाममात्र की वस्तु के मिलने से फूल उठे तब उसके प्रति
व्यंग्य में ।
किसी व्यक्ति को रास्ते में एक चाबुक पड़ी मिल गयी। इस पर उसने प्रसन्न
होकर कहा--- कि बस अब क्या है, जीन, लगाम, घोड़ी की कसर और रह
गयी। चाबूक तो मिल गयी।
रखपत सो रखापत।
दूसरों की इज्जत रखो तो दूसरे तुम्हारी इज्जत रखेंगे ।
रतनन के आँगे दिया नईं बरत।
रत्नों के आगे दीपक नहीं जलता ।
रन जायें, न राउर जझ्ें।
न लड़ाई पर जायें, न राजा से जूझें। कुछ हो, हमें कोई मतलब नहीं ।
रन जीत लओ।
रण जीत लिया। बड़ा काम कर लिया। व्यंग्य में ।
रमतुला' देबो। का क्
(१-तुरही की तरह का एक बाजा ] ) ढिढोरा पीटना। घोषणा करना ।
रये तो आप सें, नई तो जाय सगे बाप सें।
अर्थात स्त्री सच्चरित्र रह सकती है तो अपने आप ही, अन्यथा अपने बाप के क्
साथ भी बिगड़ जाती है। "
(बुन्देलखंड में यह कहावत इसी रूप में प्रचलित है। परन्त इसका गढ़वाली
रूप है--रौ तौ अपणा आप नि रौतौअपणा बाप। अर्थात स्त्री सच्चरित्र रह. । क् ४
सकती है तो अपने आप ही अपने बाप के कहने से नहीं।)
“- .२८२ ««
बुन्देली फहावत कोश ] [ राँड
रबा धरवो।
(१-सोने-चाँदी के आभूषणों पर छोटा गोल कण जमाने को रवा रखना
कहते हैं।) उत्तेजित करना। उकसाना।
रबा पे जवा धरबो।
छोटी वस्तु पर बड़ी वस्तु जमाना। किसी को और अधिक उत्तेजित करना।
रस सें मर तो बिस काय कों देवे।
आसानी से काम हो जाय तो झंझट क्यों मोल ली जाय।
रस में बिस घोर दओ।
रंग में भंग कर दिया ।
रहमन चाक कुमार कौ माँगें दिया' न देय।
छेद में डंडा डार के चहे नाँद ले लेय॥
१-दीपक, छोटी मरूसिया।
रहमन बिगरी आदि की बने न खरचे दाम।
(१--आरम्भ )
रहमन साँचे सुर कों बेरी करत बखान।
रहमन सोई मौत है भीर परें ठहराय।
(१-कष्ट, विपत्ति।)
राग सो ढ रका दओ। | ु
राँगा जैसा ढुलका दिया। धीरे से, अथवा ढंग से अपनी बात कह देना |
पिघला हुआ राँगा इतनी आंसांनी से लुढ़कता है कि पता नहीं .चलंता ।
रॉड़ के अंसुआ। द
दिखावटी रोना। क्
रॉड़ के पाँव सुहागिन लागी, होओो नबाई मोई सी। .. - . /
जिसके भाग्य में सुख नहीं उसे सुखी बनासे का प्रयत्न करना ।
श रह
१के
राँड़ ] बुन्देली कहावत कोश
मु ]
रॉड़ कौ गाँव बना राखों।
, राँड़ का गाँव बना रखा है।
किसी स्थान पर बहुत मनमानी घरजानी होने पर प्रयुक्त ।
राँड कौ रोबो बिरया नई जात।
रॉड़ि के रोजल आ प्रुआ के बहल विरथा ना जाइ। --भोज०
(रॉड़ का रोना और पुरवाई का चलना व्यर्थ नहीं जाता) ।
रॉड़ कौ साँड़ । क् है |
विधवा का लड़का, जो पिता के न होने से प्रायः उच्छुंखल बन जाता है।
रॉड चले तब ऐंड़ी-बेंडी।
रॉड़ माँड़ई में खुसी।
गरीब को जो मिल जाय उसी में प्रसन्न रहता है।
राँड रोबे, क्वॉरी रोबे, संग लगी सतलससी रोबे।
बेमतलूब की बहुत अधिक सहानुभूति दिखाना ।
राड, साँड़ उर अरना भेंसा । जे बिचले तो होवे कंसा ?
रॉड़, साँड़ और जंगली भैंसा, इन तीनों को नहीं छेड़ना चाहिए। बिगड़ने
पर ये भयंकर रूप धारण कर लेते हूँ। ह
रॉड़ी के घर माँड़ी।
गरीब के घर आनंदोत्सव | व्यंग्य में ।
राँड़ तो रंडापो तब कार्ट जब रंडआ काटन देय॑।
विधवाएं तो सच्चरित्र तब रहें जब रडआ रहने दें ! ठीक ढँग से रहा तो तब
जाय जब मित्र लोग रहने दें।
राडि, रड़ापा कटिहें कब।
उढ़रन से काटे पहहें तब। . >->भीज०
रॉड राड जर प्रिलीं को किहि देय असीस ! क्
एक से दुःखी सिलें तो कौन किसका दुःख बटाये।
क्
“- २८४ -
हे
बुन्देली कहावत कोछ |] [ राजा
रॉड़ रोबें सेर सेर, ऐबाती' रोबें दो दो सेर।
( १-अह॒वाती, सधवा । ) दुखियों का रोना ठीक है, परन्तु जो सुखी हैँ वे भी रोयें
तो यह आइचर्य की बात है। अथवा संसार में कोई सुखी नहीं। दुखी तो
रोते ही हैं, सुखी उनसे भी अधिक रोते हैं ।
राछरी' को घोड़ा माँगो, पाँव फेरे आइयो।
( १-विवाह के दिन मंडपगह में प्रवेश करने के पूर्व वर के द्वारा की जाने
वाली कन्या के घर की परिक्रमा, जो प्रायः घोड़े पर बैठ कर की जाती है।)
राछरी के लिए घोड़ा माँगा और कहते हैं कि अभी लौट कर आना। कोई
वस्तु जब मौके पर माँगने से न मिले और बहाना लेकर उसके लिए टरका
दिया जाय तब कहते हें !
राज-काज।
बड़े काम ।
राज के लूटे और फागुन के कुटे कों कोऊ नई पूंछत।
राजा के द्वारा लूट लिये गये और होली के अवसर पर पिट॑ गये की कौन
फिक्र करता है ?
राजन की राजा कयें, बाच्छन' की को कये।
(१--बादशाहों की |) बड़ों की बात बड़े ही कह सकते हैं, परन्तु जो बहुत
बड़े है उनकी कौन कहे ?
राज भरे की बातें।
व्यर्थ की इधर-उधर की बातें ।
राजा करन को पारो।
राजा कर्ण का पहर, अर्थात दान का समय । सूर्य अथवा चन्द्र-प्रहण के समय
भंगी बसोर दान माँगते समय कहते हूं ।
राजा कर सो न््याव। पाँसो पर सो दाव॥।
दे० पाँसों पर सो दाव।
“- र२े८५ -
रात | [ बन्देली कहावत को
राजा कौ चेरो में, चेरी कौ जी महेरी में।
हर आदमी को अपनी-अपनी पड़ी रहती है।
राजा कौ धन तीन खायें; रोरा, घोरा और दंत निपोरा।
राजा का धन तीन बातों में खच॑ होता है, इमारतें बनवाने में, फौज-फाँटा
रखने में या खुशामदी दरबारियों में ।
राजा छयें रानी होय।
राजा जिस पर प्रसन्न होता है वही बड़ा आदमी बन जाता है।
राजा बुलायें, ठाँड़ी आवे।
बड़े आदमियों से सब डरते हैं। राजा ने बुलाया तो दौड़ी चली' गयी।
राजा बोले दल हाले।
राजा मरतन तोौ मर गये, पे हँसबो नई गओ।
कठिन दुःख भोगते हुए भी जब कोई अपनी आनबान न छोड़े तब प्राय
व्यंग्य में ।
राजा मानी सो रानो।
दे० राजा छये।
राजा हैं, सेरक सोनों भुसई में।
बड़े आदमियों की चर्चा करते समय कहते हें कि उनका क्या कहना, सेर भर
सोना तो उनके यहाँ यों ही भुस में पड़ा रहता है।
राजी-बिरजी दो जनें । झ्क मारें सो जनें॥।
दो आदमी किसी मामले में राजी हों तो कोई क्या कर सकता है।
रात के लुखरो घर बनायें, भोर मोरी बलाय सें।
. दे० भोर घर। ह
रात थोरी, स्वाँग भौत।
समय थोड़ा और काम बहुत।
- २८ ६ 5
बुन्देली कहावत कोश ] [राम
रात भर का घोंट' फोरी ?
(१-एक वृक्ष और उसका फल, जो चमड़ा पकाने के काम आता है।)
अर्थात क्या करते रहे ? रात का काम रात में क्यों नहीं किया ?
रात भर का चना दरे?
दे० ऊपर।
रात भर पीसो पारे से उठाओ।
परिश्रम बहुत, लाभ थोड़ा ।
रात भर सिमयानी, एक बुकेरू ब्यानों।
रात भर रोये, सरो एकऊ नईं।
रात भरे दिन रीते । पेटन नें जग जीते॥
पेट से संसार हारा है। रात में भरो, दिन में खाली ।
रात रतेबा ना सिले, छे मइना नों नोंन।
पुंछे चील चमार सों; सो बेला है कौन ?
चील चमार से कहती है कि वह बैल कौन सा है जिसे रात में चारा-दाना नहीं
मिलता और छः-छ: महीने तक नमक । अभिप्राय यह कि ऐसा बैल बहुत
दिनों जीवित नहीं रह सकता। मरे तो माँस खाया जाय ।
रानी जाये पृत।
बड़े आदमी के सपूत। व्यंग्य में ।
राम झरोखाँ बेठके सबको मुजरा लेत।
जीकी जेसी चाकरी तीकों तेसो देत ॥
राम न रूठे, सब जग रूठे।
राम नाम की माया, कर्ऊ धूप करऊँ छाया।
राम नाम की लूट है लूटत बने सो लूट। *
अंत काल पछतायगा प्रान जायेंगे छूट ॥
राम नाम के कारने सब धन डारे खोय। ;
म्रख जानें गिर गयो, दिन दिन दूनों होय॥
ब्भ २८७ 55
राम ] [ बुन्देली कहावत कोद
रास नास लरड़्ड गोपाल नाम घोी।
हरि का नास सिल्ली सो घोर घोर पी ॥
राम नाम सब कोई कहे, दसरथ कहे ते कोय।
एक बार दसरथ कहे, कोट जज्ञ फल होय॥
राम नाम सत्य है।
मुरदे को श्मशान ले जाते समय कहते हैं ।
राम बिता दुख कौन हरे । बरखा बिन सागर कौन भरे॥
लच्छमी बिन आदर कौन करे। माता बिन भोजन कौन धरे॥
( १-गूहलक्ष्मी, पत्नी ।)
राम भजन कों ढेढ़ें-सेढ़े, आल्हा कों अन्यारे।
जो कऊँ सुन पायें फाग-दिवारी, खोद खायें गलयारे॥
राम भजन में तो मन नहीं लगता, परन्तु अल्हा सुनने के लिए सदंव [तियार।
और यदि कहीं फाग-दिवारी के गीत हो रहे हों तो क्या पूछना। रास्ता ही
खंद डालें ।
राम भरोसें खेती है।
.._ सब राम का भरोसा है।
राम भरोसे जे रहें, पर्वत प॑ हरयायें।
तुलसी बिरवा बाग के, सींचत ही कुम्हलायें ॥
राम मिलाई जोड़ी, इक अंधा इक कोड़ी।
दोनों एक से |
राम राखे, कोऊ न चाखे।
राम रक्षक है तो कोई क्या बिगाड़ सकता है ?
राम राप्त कर के दिन तेर करबो। -
राम राम करके दिन काटना। कष्ट में रहनता।
राम राम कहत ते, उर्दंत कों जोतत ते।
विपद्ग्रस्त के लिए।
“- २८८ «
बुन्देली कहावत कोश ] द [ रूखीं-सुखी
राम राम के आवे चाय न के आवे, साला दम न पावे।
रामभजन का पाखंड।
राम राम भर्ज जा, जई गेल धर जा।
राम का भजन करो और जिस रास्ते जा रहे हो उसी पर चले चलो ।
राम-लछमन की जोड़ी ।
दो सगे भाई जिनमें बहुत प्रेम हो।
रिजाले से काम परो।
रिजाले अर्थात झगड़ाल से काम पड़ा है।
रिन की अगाई, ब्याव की पछाई।
ऋण की अगाड़ी, विवाह की पिछाड़ी, दोनों कष्टदायक होती हैं। ऋण
लेकर बाद में ब्याज समेत चुकाना पड़ता है और विवाह में, उसका सब प्रबंध
पहले से ही करना पड़ता है, बाद में छुट्टी मिल जाती है।
रिपद परे की हर गंगा।
अकस्मात लाभ हो जाना। कोई वस्तु अनचाही मिलना।
रीते कुआ पतोरन नई भरत।
रीते कुए पत्तों से नहीं भरते। महत्त्वाकांक्षी थोड़े में संतुष्ट नहीं होता।
रुचे सो प््चे।
जो वस्तु खाने में अच्छी लगे वह आसानी से पचती भी है।
रूखी खाये, मुछन खाँ घी चुपर।
दे० मारे मरें निरसई के।
रूखी जुरे ना, चुपर के चाय।
रूखी (रोटी) तो खाने को मिलती नहीं, चुपड़ कर चाहते हैं।
रूखी-सुखी नोंन सें, बाबाजी कयें कोन से।
रूखी-सूखी नमक से खा लेते हैं, बाबाजी अपनी तिपत्ति किससे कहें 7
जले २ €् ९् सन
बु०-१९ ;
रोउत ] । द [ बुन्देली कहावत कोश
रूप की रोवे, करम को हंसे।
रूपवती लड़कियों को प्रायः अच्छा घर नहीं मिलता, और वे बैठ कर रोती _
हैं, परन्तु जिनका भाग्य प्रबल होता है वे अच्छे घर पहुँच कर सुख से जीवन
व्यतीत करती हैँ। भाग्य ही सब कुछ है, रूप कुछ नहीं ।
रेख में मेल मारबो।
भाग्य से लड़ना ।
रेवन ककवारे को कुतिया।
ऐसा आदमी जो बहुत दोड़धूप करने पर भी काम में सफल न हो। न
इधर का न उधर का ।
रेवन ककवारा' ये दो गाँव झाँसी जिले में भऊ से गूरसराय जाने वाली
सड़क पर पास ही पास हैं। कहानी हँ कि एक बार इन दोनों गाँवों
में पंगत हुई। वहाँ एक कुतिया थी। उसने सोचा कि दोनों जगह का
जूठन खाना चाहिए। पहिले रेवन' गयी। जाकर देखा कि लोग अब भी
भोजन कर रहे हैं। वहाँ विलम्ब देख कर विचार किया कि तब तक ककवारे
में जाकर खा आऊं। परन्तु वहां भी यही हाल देखा तो फिर रेवन वापिस आयी।
वहाँ जाकर देखती क्या हे कि लोग खाकर चले गये हैं और जूठन भी भंगी उठा
ले गये। यह देख कर बहुत घबरायी और उलटे पेरों ककवारे को भागी। परन्तु
वहाँ भी पंगत उठ गयी थी और जूठन का कहीं नाम नहीं था। इससे वह बड़ी
निराश हुई और भूख के मारे दोनों गाँव के बीच में आकर मर गयी।
रोई काय ? कई--नंद ने देख रूओ।
रोई क्यों ? कहा--नंद ने देख लिया। कोई स्त्री अकेले में भले ही अपने
पति के हाथ से नित्य पिठती रहे, परन्तु कोई यदि देख ले, विशेषकर देखने
वाली; ननद हो, तो वह रो पड़ेगी । दूसरे के सामने अपमान बर्दाइत नहीं होता ।
रोउत काय ? कई--भगवान् ने सकल ऐसी बनाई ?
रोते क्यों / कहा--भगवान ने शकल ही ऐसी बनायी ? सदैव मुँह फुलाये
रखने वाले के लिए कहते हूँ।
हज कम
बुन्देली कहावत कोश | [ रोल-चौल
रोउत गये, मरे की खबर ल्याये।
बेमन से काम करना। अनिच्छापूर्वक तो गये और फिर लौट कर बुरी
खबर लाय।
रोउत हतीं और सासरे में मिलीं।
बहाना मिलने पर मन चाहा काम करना। ससुराल में यदि मायके का कोई
आदमी मिल जाय तो स्त्री को रुलाई आ जाती है।
रोग कौ घर खाँसी । लड़ाई कौ घर हाँसी ॥
रोजन कों नोंन देबो |
नील गायों को नमक खिलाना। निरर्थक काम करना ।
रोदियन को रये, बई में ओले-झोले।
रोटियों पर नौकर रहे, उसमें भी झोलझाल। कम मजदूरी पर काम करता
और वह भी पूरी न मिलना ।
रोटी ऊपर साग । मोर तो नित्तई फाग॥
घर में रोटी और साग खाने को हो, तो क्या पूछना ? नित्य फाग-दिवाली है।
रोटियन पे लात मारबो।
रोजी को ठकराना।
रोयें बनें ना गायें, मातेजू भों बायें।
कुछ करते-धरते न बनना। अवक-बकक भूल जाता।
रो-रो डुकरियन गीत गाये, लरकन खाँ आवे हाँसी।
बुढ़ियों ने रो-रो कर तो गीत गाये, लड़कों को हँसी आती है। किसी के
परिश्रम को न सराहना, बल्कि हसना।
रोवे को हतीं और सुंस ने मारो। ५ हु
रोने को थी और इतने में पति ने मार दिया। रोनें का बहाना मिल गया।
रौल-चौल होबो।...ररः़ के
चहुल-पहल होना ।
लकरी | [ बुन्देली कहावत कोश
लंका जीत आये।
बड़ा काम कर आये ।
लंका में सब बावन गज के।
छोटे भी जहाँ बड़ों के कान काटे ।
लंका के जे बड़ छोट सेहो ओन््चास हाथ के--भोजपुरी
लंका को सोनों बताबो।
लंका को सोना बताना। जहाँ जो वस्तु पहिले से प्रचुर मात्रा में मौजूद है
वहाँ उसे ले जाने की हास्यजनक चेष्टा करना ।
लेंगड़े लले गये बराते । आगौनी में खाईं लातें॥
कहीं जाने पर अच्छी खातिर न होना ।
लंगोटी में फाग खेलबो।
थोड़ा खर्च करके अपना काम बना लेना। फाग केवल रँगोटी में नहीं खेली
जाती । उसमें तो अच्छे कपड़े पहिने जाते हैं।
लंपा' कंसी बोंडी खटकबों।
( १-एक घास का काँटा जो बहुत बारीक होता है और चुभ जाने पर
कसकता है।) हृदय में किसी बात का चुभ जाना और बराबर खटकना।
लंपा कंसे ऐंठत।
लंपा की तरह ऐंठते हैं। बहुत अकड़ते हैं। घमंड करते हैं। सीधे बात नहीं
करते। लंपीले घास पर पानी डालने से वह एँठता है।
लकरी बेंचत लाखन देखें, घास खोदतन धनधनरा।
अमर हते ते मरतन देखे, तुमईं भले मोरे ठत्तठनरा॥
किसी स्त्री का अपने मूर्ख पति के प्रति कथन। यह पाली नाम-सिद्धि जातक
हूं। बुन्देली में इसकी कथा इस प्रकार है---
एक स्त्री के पति का नाम था ठवठनरा। उसको यह नाम पसंद नहीं था। वह
पति के लिए कोई अच्छा नाम ढूढ़ने के लिए निकली। एक व्यक्ति छकड़ियों
-“ २९३ -
बुन्देली कहावत कोश | [ छटें
का बोझ लिए जा रहा था। उसका नाम था लाखन। दूसरा घास खोद रहा
था। उसका नाम था धन-धनरा। एक व्यक्ति मर गया था और उसकी अरथी
जा रही थी, उसका नाम था अमर। स्त्री ने यह सब देख-सुन कर मन में
सोचा कि ताम से कुछ आता-जाता नहीं, मेरे पति का जो नाम है वही
अच्छा और उसने ऊपर की गाथा कही ।
राजस्थान में यह कहावत इस प्रकार प्रचलित है :---
अमरा तो म्हे मरता देख्या भागत देख्या सूरा।
कान्ह गुवाल्यो टाट चराभा लिछमी मारे कूड़ा।
आगे से तो पाछा भछा, नाम भला लहदूरा।
और इसका मराठी रूप यह है :--
अमरसिंग तो मर गये भीक मांगे धनपारू
लक्ष्मी तो गोंवरथा बेंची भलें बिचारे ठणगठणपाल॥
लकीर के फकीर।
पुरानी ही चाल पर चलने वाले।
लग गओ तो तीर नईं तो तुक्का
काम करने पर कुछ न कुछ तो होगा ही ।
लगन में बिघन।
शुभकाय में विध्त।
लगी ब्रई होत।
मन में कोई बात चुभ जाने पर चेन नहीं पड़ता ।
रूगे न ब्रिलगे रंग चोखो आवे।
मुफ्त में ही काम बनाने का प्रयत्न करना ।
हूगे बई को नाव ओखद।
जिससे रोग अच्छा हो वही दवा ।
लंटें छुटकार के खेलबो । *
बेशरम बन कर काम करना।
** शरद पक
लपसी ] [ बन्देछी कहावत फोदड
लटे-पटो दिन का्टिये।
बरे दिन भी जैसे बने काटना चाहिए।
लठो हाथी लाख कौ।
बड़ा आदमी बिगड़ने पर भी अपना मूल्य रखता है।
लट॒ठन मारी ना मर फूलन सारी मर जायें।
रोने का पाखंड करना।
लड़हयन में गोली खोबो।
गीदड़ों में गोली खोना । किसी पर व्यर्थ पैसा खर्चे करना।
लड़कदंदोर में परबो।
लड़कों के साथ मिल कर लड़कपन करना ।
लड़आ ढेंडक रये।
लडड॒ लढ़क रहे हैँं। अर्थात बड़े प्रेम की बातें हो रही हैं।
लड़ न भिड़, जिरा' पेर फिर।
(१-व्यथे बहादुरी की डींग मारना।)
लड़ साँड़ बारी कौ भ्रकन।
दो बड़े आदमियों की लड़ाई में बीच के छोटे आदमी मारे जाते हैं।
लड़ सिपाई नाव सरदार कौ।
लड़ता सिपाही है नाम सरदार का होता है।
रूपकी गाय गुलेंदे' खाय । बेर बेर महुआ तर जाय॥
( १-महुआ नामक वृक्ष का पका फल जो खाने में मीठा होता है।) मुफ्त
का माल खाते की आदत पड़ जाने,पर बार-बार उसी जगह जाना जहाँ खाने
को मिलता है।
लप्सी सी चाटल।
किसी की बातचीत के बीच में बार-बार बोल उठने वाले के लिए कहते हें।
- २९४ -
डी
बन्देली कहावत कोश | [लरका
लबरा के नौ हर चलें, खेत पे गयें एकऊ नई।
महान झूठे के लिए प्रयुक्त ।
लबा फंसो, तीतर फेसो, त् कित फँसी बटेर।
संगत के परभाव सें, र॑ गई आँख नठेर॥
ब्रे के साथ रह कर निर्दोष भी कष्ट भोगते हैं।
लरका की आँखें छोटी काय ? कई बेई तो खोद-खोदकें काड़ीं।
लड़के की आँखें छोटी क्यों ? कहा--उनको ही तो खोद-खोद कर निकाला ।
कोई काम बहुत परिश्रम से किया गया हो, परन्तु दूसरे उसमें कोई अच्छाई
न देख कर केवल आलोचना ही करें तब ।
लरका के भाग्गन लरकोरी जियत।
पुत्र के भाग्य से पुत्रवती जीवित रहती है। एक के भाग्य से दूसरे का भाग्य
लगा रहता है।
लरका कोऊ कौ क्वाँरो नईं रत।
साधन होना चाहिए, किसी का कोई काम रुका नहीं रहता।
लरकत की माया।
सब लड़कों की ही माया है। लड़कों से ही घर शोभा देता है।
लरकन को खेल बना राखो।
काम आसान समझ लिया है।
लरका तौ अपनो ब्याउत, इते मूंछें की प॑ मरोरत।
लड़का तो अपना ब्याहते हैं, यहाँ मूँें किस पर मरोड़ते हैं। कोई आदमी
निःस्वार्थ भाव से किसी के काम में सहायता कर रहा हो परन्तु वह उल्दे उस
पर नाराज़ हो पड़े तब। थ
क्ष
लरका भये सयाने, दाल हर गये भयाने'
(१-दूसरे ही दिव, सबेरे।) लड़के जब खाने-कमाने कायक हो जाते हैं. . हे द
तब घर से दरिद्वतां बिदा माँग जाती है।
आ 3 और
लाख बात |] द [ बन्देली कहावत कोश
लरका सीके नाऊ कौ, मूँड़ कटे किसान को।
(१-गाँव में नाई, धोबी आदि जिन छोगों के यहाँ नियमित रूप से काम करते
हैं वे उनके किसान कहलाते हैं।) कोई नौसिखिया जबरदस्ती दूसरे के काम
में हाथ डाल कर उसे बिगाड़ दे तब ।
लरन जू, मरत ज्, चिरंज।
लड़ कर, मरने की धमकी देकर और “चिरंजीव रहो' इस तरह का आशीर्वाद
देकर, जैसे भी बने तैसे, अपना कार्यसिद्ध करने वाले के लिए
छलल भर चाय जगधर, हमें का ?
अर्थात हमें तो अपने काम से मतलूब, कोई मरे ।
लस्कर को का डुकरयई पीसें ?
फौज के लिए क्या बढ़ी औरतें ही पीसेंगी ? अर्थात यह काम क्या मुझे ही
करना पड़ेगा ?
ब्रिटिश शासन-काल के प्रारंभ के दिनों में गांव में होकर जब कभी गोरों
की कोई पेदल पलटन निकलती थी तो गांव भर को उसके लिए रसद जुटानी
पड़ती थी और प्रायः बूढ़ी औरतें आटा पीस कर देती थीं।
लाख कई पे एक नई माती।
किसी की बात न मानना ।
लाख जाय पे साख न जाय।
भले ही धन चला जाय पर इज्जत न जाय ।
राख ता सवा लाख।
जहाँ इतना खच्चे हुआ वहाँ थोड़ा और सही ।
लाख बात क्री एक बात। ९
सारांश की बात।
” प्रेम सों बिरूधौ जिनि हाहा, हियो रूँधौ जिनि
ऊधौ लाख बातनि की सूधी एक बात हैं। --आलम
हतः २९६ कर
ब॒न्देली कहावत कोश | [ छाल बझ्चक्कड़
लाख सें कोऊ लखेसरी' नई बनत।
( १-लाह, एक विशेष प्रकार के कीड़ों द्वारा वृक्षों पर बना एक छाल पदार्थ ।
२-लखपती ।) साधारण व्यापार करके कोई बड़ा आदमी नहीं बनता।
लातन की देशी बातन नई मानतीं।
नीच समझाने से नहीं मानता । पीटता ही उसका इलाज है।
लातन मारी बात फिरबो।
किसी बात का तिरस्कार करना ।
लाद देओ, लदाउन देओ, रादनवारो संग दो।
माल लाद दो, लादने की मजदूरी भी दो, और लादने वाला भी साथ दो |
एक के बाद एक करके जब कोई आदमी तमाम उचित-अनुचित सुविधाएं
माँगता है तब ।
लाद दे, लदावन दे, लादन वाला संग दे,
बैठते कुं टट्व दे और ओड़ने को पट्टू दे ।--गुजराती
लाद लई तब लाज काय कौ।
जिसने बेशरमी लाद ली उसे शरम कहाँ ?
लाबर बड़ौ के दोंदर ?
झूठा बड़ा या उपद्रवी ? निःसंदेह उपद्रवी बड़ा होता है।
छकालच बुरी बलाय।
लालच बुरी बला है।
लाल बझक्कड़ को उक्तियाँ:--
लालबुझक्कड़ ब॒ज्ञकें और जिन ब॒ज्ञो कोय।
करी-बड़ंगा टार के ऊपर ही कों लेव।
किसी गाँव में एक छोटा लड़का अपने दोनों हाथ खंभे के दोनों तरक फैछाये
खडा था। उसी समय उसके बाप ने उसके हाथ में थोड़े से चने रख दिये। अब.
सब कोई इस असमंजस में पड़ गये कि हाथ से चना गिराये बिना लड़का कैसे
हाथ बाहर निकालेगा। जम्बकिसी की बुद्धि ने कुछ काम न दिया तब छा
- २९७ -
लाल बुझक्कड़ ] | बन्देली कहावत कोड
बुझक्कड़ बुलायें गये। उन्होंने आकर सम्मति दी कि ऊपर से कड़ी बड़ंगा हटा-
कर लड़के को ऊपर ही ऊपर उठा लिया जाय, इससे अंजलि के चने नहीं गिरेंगे,
और लड़का भी निकल आयेगा। इसके सिवाय अन्य उपाय नहीं।
लाल बुझक्कड़ बुज्ञक और जिन बुज्ञों कोय।
पाँवन चक्की बाँद के हिन्न कुदक गओ होय॥।
किसी गाँव में होकर कोई हाथी निकल गया था। इस कारण उसके पेर के चिन्ह
जमीन पर बने थे। गाँव वाले उस बड़े गोलाकार चिन्ह को देख कर भयभीत
हो गये। अपनी शंका को दूर करने के लिए उन्होंने लाल बुझक्कड़ को बुलाया।
लाल बुझक्कड़ ने उस चिन्ह को देख कर बताया कि कोई हिरन अपने पैर में चक्की
बांध कर कूदा हे।
लाल बुक्षक्कड़ ब॒ुज्य के और जिन बुज्ञो कोय ।
गहुमगड़ा दे करो सो तन-तन सबकों होय॥
एक बार कहीं बड़ी ज्योनार में भंडार में रखे हुए भात में बिल्ली टट्टी कर
गयी। सब लोग बड़ी चिन्ता में पड़े कि क्या किया जाय ? अंत में लाल
बुझक्कड़ ने आकर कहा--इसमें इतनी सोचा-बिचारी की बात क््या। इसे
भात में ही गड्डमगड़ड कर दो। थोड़ा-थोड़ा सबको हो जांयगा।
लाल बुशक्कड़ ब॒ज्म के और जिन बुज्ञझो कोय।
हाथ काट के दो करो तब निरवारो होय॥
एक लड़के ने किसी घड़े में अपने दोनों हाथ डाल दिये और उसमें रखे हुए चने
मुठी में लेकर एक साथ निकालने लगा। ऐसा करने में उसके हाथ फँस गये।
अब न लड़का मुठी खोले और न उसके हाथ निकलें। तब छाल बुझक्कड़ ने आकर
कहा कि इसके हाथ काट कर अरूग कर दिये जायें। इसके सिवा विपत्ति से
छुटकारा पानें का और कोई उपाय नहीं।
लाल बुझफ्कड़ बुज्स के और न काहू जानी।
पुरानी होक गिर पड़ी खुदा की सुरमादानी॥
एक बार छाल बुझक्कड़ अपने मित्रों के साथ कहीं जा रहे थे। इतने में उन .
लोगों को एक कोल्हू खेत में पड़ा दिखायी दिया। उनके साथियों ने पूछा--अरे
बुन्देली कहावत कोदा ] [ लखरगड़े
महाराज, यह क्या हैं? छाल बुझक्कड़ को उनकी बुद्धि पर बड़ा तरस
आया और उन्होंने ऊपर की बात कही।
लाल बुझक्कड़ बुज्झ के और जिन बुज्ञो कोय।
कुआ पुरानों हो गओ सो गुद कड़ आई होय॥
एक बार किसी गाँव के एक कुए में गेंदे का फूल गिर गया। पनहारी जब पानी
भरने गयी तो उस पीडी-पीलछी वस्तु को देख कर बड़ी घबरायी कि यह क्या हे।
अंत में यह खबर लाल बुझक्कड़ के पास पहुँची। उन्होंने आकर बताया कि
कुआ बहुत पुराना हो गया है। इसलिए यह उसकी गुद निकल आयी हे।
(ये छाल बुझक्कड़ कौन थे और हमारे देश के किस ग्राम को कब अपने
जन्म से उन्होंने धन्य किया दुर्भाग्यवश इसका कहीं कुछ पता नहीं चलता।
परन्तु कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे व्यक्तियों का जो गृढ़ से गूढ़ विषयों
पर बिना पछे ही सदेव अपनी सम्मति प्रदान करने के लिए उद्यत रहते हैँ, किसी
देशकाल में अभाव नहीं रहा। उनको लक्ष्य करके ही लाल बझक्कड़ की ये
उक्तियाँ कही जाती हैं। -“ संपादक )
लासुन खाओ ओर ब्याध न गई।
अनुचित काम भी किया और कोई लाभ न हुआ ।
छासुन घाईं बसात।
लहसुन की तरह गँंधाते हैं, अर्थात बुरे लगते हैं।
लिपी-पुती बातें करबो।
गोलमाल बात करना।
लिपो-पुतो आँगन और पैरी-ओढी नार।
ये दोनों देखने में अच्छे लगते हैं।
लील' कौ टीका लग गओ।
( १-नीला रंग, नील। ) बदनाम हो गये। हे
लखरगड़े में फंस गये। .ा
( १-लुखरगड़ा, लोमड़ी का बिल जो संकीर्ण और टेढ़ा-मेंढ़ा होता है। )
अर्थात चक्कर मे पड़ गये। आम
ने: नम
लेन | [ बन्देली कहावत कोश
लगरयाव लूंग्रा बिजरी की लॉकन से डरात।
जलती हुई लकड़ी दिखा कर भयभीत किया गया बंदर बिजली की चमक से
डरता है। एक बार कोई कट अनुभव हो जाने पर आदमी भविष्य में उस
विषय में आवश्यकता से अधिक सावधानी बतंता है।
लुटे के लूटे और लोड़न कुटे।
लुटें भी और पत्थरों से पिटे भी । दोहरी हानि हुई।
लड़िये सोनों लगबों।
लोढ़ा से सोने का स्पर्श होना। भाग्योदय होना ।
'लवा भैय्या ल्याये, पे काम तो भौजाई अई से पर।
ससुराल से कोई लड़की मायके आयी है। उससे कहा जा रहा है कि इस
भरोसे मत रहना कि तुम्हें भैया लिवा लाये हैँं। काम तो नित्य भावज से
ही पड़ेगा। जब कोई किसी एक आदमी के बल-बूते पर दूसरे' खास आदमी
की अवज्ञा करना चाहें तब कहते हें ।
लगरन भाँवर पर रई।
लगरों से भाँवरें पड़ रही हैं । किसी काम में क्षण-क्षण पर विध्न-बाधाएँ
आ रही हों तब।
छूगरन भाँवरें पर रईं, नेग कौ टका धरई दो।
दूसरे की विपत्ति की परवाह न करके अपने ही मतलब की बात करना ।
लूट कौ मूसरई भौत।
मुफ्त में जो मिला वही अच्छा।
लेंडा' हाथी घर (अ) ई की फौज मारत।
( १-कायर, निकम्मा । ) कायर आदमी घर का ही सत्यानाश करता है।
, लेन गईं परथन', कुत्ता पींड उठा ले गओ।
( १-वह सूखा आठा जिसे रोटी बेलने के समय छोई पर लपेटते हैं। २-गुंदे
हुए आटे की पिंडी। ) एक काम करने गये तब तक दूसरा ज्नौपट हो गया ।
काम रे 060 #णक
बन्देली कहावत कोश | [ लोभी
लेन गईं पुत, दे आईं भतार।
लाभ के लिए काम किया, उल्टी हानि हो गयी।
लेन गईं सीदो, उल्ठो आन बीदो।
किसी ब्राह्मण की स्त्री सीधा लेने गयी, परन्तु इस प्रकार की विपत्ति में पड़ गयी
कि उल्टा उसे ही सीधा देना पड़ा। लेने के देने पड़ जाना ।
लेना एक न देना दो।
न किसी का एक लेना है, न दो देना है। किसी से कोई प्रयोजन नहीं ।
लेना न देना, ऊपर सें तनेता ।
( १-भौंहे तानना, नाराज होना ।)
लेनो करके दनों करिये, मरत न होओ तो ऊसईं भरिये।
ऋण लेकर किसी को ऋण दिया जाय तो यह बेमौत मरना है।
लोओ' जाने लहार जानें धोंकनहारे की बलाय जानें।
(१-लोहा।) किसी बात से कोई मतलरूब न रखना।
लोग को मुंसः कड़ _आ।
(१ -पति, स्वामी ।) स्त्री जिस प्रकार अपने पति के वश्ष में रहती है उसी
प्रकार मनुष्य यदि किसी के वश में रहता है तो वह ऋण है ।
लोग चले मोय हूमस लागी।
(१-उमंग, इच्छा, कामना।) देखा-देखी काम करना । लोग कहीं जा रहें हूँ
तो उनके साथ जाने की हमें भी इच्छा ।
लोबान जरो और मुरदा चेते।
स्वार्थ की बात सुन कर आदमी सजग हो जाता है।
लोभी कौ धन लाबर खाय। ४ ः
लोभी का धन लफंगे खाते है ।
लोभी गुरू, लालचीं चेला, दोऊ नरक में ठेलमंठेला।
चाहे गुरू हों या चेला, लोभ करने से दोनों नरक में जांते हैं।
जि ३ 09 श कब
संपत | [बन्देली कहावत कोड
लौटो बराती और गुजरो गवाई। (जे फिर नई पूछे जात)।
लौटा बराती और अदालत में गवाही देकर आया हुआ आदमी इन्हें फिर कोई
नहीं पूछता ।
स
संकाहूली' बन में फूली । सास मरी उर नंद झड़्ली ॥
( १-एक जंगली बूटी, शंखपुष्पी । २-झडूले बच्चेवाली, अर्थात पृत्रवती ।
जिस बच्चे का मुंडन-संस्कार न हुआ हो उसे झड्छा या झलरा कहते हैं ।)
कहावत की प्रथम पंक्ति केवल तुक मिलाने के लिए है ।
सास मरी और ननद के लड़का हुआ; हिसाब फिर ज्यों का त्यों ।
संगत कीजे साधु की, बनत बनत बन जाय।
संगत गून अनेक फल
संडामकंट ।
( १-शंड +- अमर्के -- शंडामक । दंड और अमके ये दोनों शुक्राचार्य के पुत्र और
प्रहलाद के शिक्षागुरु थें। प्रह्लाद को कृष्णनाम लेने से मना किया करते थे।)
उग्र और स्वार्थी व्यक्ति ।
संतोषी सदा सुखी ।
संदेसन खेती नई होत।
खेती स्वयं देखनी पड़ती है । नौकरों या मजदूरों के भरोसे नहीं होती ।
संपत से भेंट नई दलुहर' की जेट काय को छोड़ो ।
( १-दरिद्रता, गरीबी । २-पोटली, ढेरी) जो मिले वही लो ।
संपत से भेंट नई दलुदर से लठालठी।
बिना प्रयोजन झगड़ा करने पर कहते हैं । े
संपत होय तो धर भलो, नातर' भलो बिदेस।
( १-नहीं तो, अन्यथा)
फल ठ्ठे हि २ बल
बुन्देली कहावत कोश | [ सतुआा
सदयाँ भये कुतवाल अब डर काये को।
सकर देबी सुमरों तोय, मुफतें' खबर बिसर गई भोय।
(१-संकट में । २-मुक्ति होने पर, संकट से छुटकारा पाने पर ।)
विपत्ति में सब भगवान का स्मरण करते हैं। बाद में भूल जाते हैं ।
सकरे सें समदियानो' ।
( १-दो समधियों या समधिनों के परस्पर मिलने का दस्तुर । समधी के
आगत-स्वागत में होने वाला आयोजन, ज्योनार आदि । समधौरा ।) छोटी
जगह में कोई बड़ा काम फैलाना ।
सकल न सुरत, सनीचर कसी म्रत।
बहुत कुरूप । मनहूस ।
सकल' बस्त पेंदा करे, नोंन गाँठ कौ खाय ।
जाको मारो बानिया, जरा-मूर से जाय॥
(१-वस्तु, चीज ।) सच्चा वैद्य वही है जो कमा कर खाये ।
सकल बस्त संग्रह करे जब तब आवबे कास।
सकल भूमि गोपाल की यामे अटक कहा।
जो यामें अटक रहा, सोई अठक रहा ॥
सकक्कर के घुल्ला।
दर्मीला आदमी ।
सगी सास मानें ना, धोबिन के पाँव लगें।
पुत्न-जन्म होने पर स्त्रियाँ धोबिन, बसोर आदि के पैर छूकर आशीर्वाद लेती
हैं। उसी ओर संकत है।
सत को बाँदी लच्छमी।
लक्ष्मी सत्य से बंधी है। जहाँ सत्य है वहाँ लक्ष्मी रहती हैं।_*
सतुआ बाँदक पाछें परबो।
बुरी तरह किसी काम के पीछे पड़ जाना । देम न लेना । दुढ़ूँ संकल्प बनाये
रखना ।
बन ३० | कव
सदा भुवान्ती ] [ ब॒न्देली कहावत कोश
सत्त तौ सातई घरी कौ होत |
सत्य तो सात ही घड़ी का होता है । अर्थात सत्य की परीक्षा तो थोड़े में ही
हो जाती है। अथवा कोई घड़ी दो घड़ी के लिए भी सत्य के कठिन ब्रत का पालन
कर सके तो बहुत समझो ।
सत्तरा बड़रे' करिया करे।
द ( १-बड़ेरा, घर के छप्पर का ऊपरी हिस्सा ।) सत्तरह बड़ैरे काले किये,
अर्थात सत्तरह घर बदनाम किये। प्राय: दुश्चरित्र स्त्री के लिए कहते हैं ।
.. सदईं दिवारी संत घर जो खाबे को होय।
घर में खाने को हो तो सदा ही दिवाली।
सदर कोऊ की नई रई।
सदा किसी की नहीं रही । किसी का बड़प्पन सदा नहीं बना रहता ।
सदऊ रोउत (अ) ई रये।
सदा रोते ही जन्म बीता । सदैव हाय-हाय' करते रहे ।
सदा के दुखी, नाव बखतावर।
सदा न फूल तोरई, सदा न सावन होय।
सदा न राजा रत चड़ें, सदा न जोबन होय॥।
सदा दिन एक से नहीं रहते । ये बुन्देलखंड के प्रसिद्ध लोकगीत॑-“अमान सिंह
कौ राछरौ' की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं जो कहावत बन गयी हैं ।
सदा न फूले केतकी, सदा न सावन होय ।
सदा न जोबन थिर रहे, सदा न जीवे कोय |
सदा बेल हरयाय।
सदा बेल हरयाती रहे । ब्राह्मणों की ओर से आशीर्वाद ।
सदा भुवानी दाहिनी, सम्मुख रहें गनेस।
पाँच देव रच्छा करें, ब्रह्मा, विश्नु, महेस ॥
आशीर्वाद ।
नि ढे 09 ढ़ ब्लड
ब॒न्देली कहावत कोश | [सबरो
सन घनों, बन बेगरो, मेंढक फंदें ज्वार।
पेंड पेंड पे बाजरा, करे दल॒दर पार॥
सन घना, कपास छिरबिर्रा, मेंढक की कुँदात जितनी दूरी पर ज्वार और कदम
कदम पर बाजरा बोना चाहिए ।
सबई किसानी हेटी । अगनइयाँ पानी जेठी ॥
रबी की फसल को अगहन में पानी मिल जाय तो समझो बड़ा काम हुआ ।
सब एकई थेलिया के चट्टा-बहा।
सब एक से हैं। चालाकी में कोई कम नहीं ।
सब कोऊ मूंछे रखाय तौ चूलो को फूँके ?
सब बड़े काम करें तो छोटा कौन करेगा ?
सब गुन भरी बेंतरा सोंठ।
(१-एक प्रकार की सोंठ।) धूत्ते के लिए व्यंग्य में ।
सब धन के घिगाने हू।
सब पैसे का खेल है ।
सब घरो र॑ जेये।
सब धरा रह जायगा। हद से बाहर काम करने पर चेतावनी के रूप में ।
सब घान बाईस पसेरी।
जहाँ अच्छे और बुरे, मूर्खे और पंडित, न्याय और अन्याय का कोई विचार न
हो वहाँ कहते है ।
सब बेटा के बाप।
जहाँ सब अपनी-अपनी हुकूमत चलायें |
सबरी निप्र गई। ५
सब कलई खुल गयी । बहुत चलाथो पर एक नहीं चली ।
सबरी रामायन हो गई, इसें जोई पतो नईं के राम राच्छस ह॒ते के रावन।
सब बात सुन कर भी नें समझना ।
न्न्गह टठ 09 प् कम्नन
बु०--२०
समय | [बुन्देली कहावत कोश
सबरो स्थान चलें परो।
कोई चतुराई काम नहीं आयी ।
सबरो स्थान निपुर गओ।
दे० ऊपर।
सब से भली चुप।
चुप संबसे अच्छी।
सब से सोठी भूंक।
भूख में सब वस्तु मीठी लगती है ।
सब स्वाँग बन जात, अकेल रुपया कौ स्वाँग नईं बनत।
रुपये का काम रुपये से ही निकलता है !
सबे कुलच्छन बाँड़ी पूँछ।
बंडी गाय में बड़े ऐब होते हैं । धूत्त के लिए कहते हैं।
सभा बिगार तीन जन, चुगल, चबाई चोर।
( १-बातूनी ।)
समधी, हंंड़ा फटो है, के कें का बदला रूओ ?
लड़की के विवाह में किसी ने फूठा हंडा दहेज में दिया | वर पक्षवालों की ओर
से शिकायत की गयी कि 'समधी, हंडा फटा है।” इस पर किसी समझदार
बराती ने कहां कहने से लाभ क्या ? क्या कह कर बदलवा लिया ?”
किसी से कोई ऐसी याचना नहीं करनी चाहिए जो पूरी न हो सके
और अपनी बात खाली जाय ।
समय चूक पुन का पछताने।
'सम्य देख के बात करें चइये।
अवसर दंखकर बात करना चाहिए।
समय परे की बात बाज पे झपटे बगुरू।
भाग्य विपरीत होने पर दुबंछ भी सबछ को सताता है।
बुन्देली कहावत कोदा | [ सरग
समय परे पे जानिये जो नर जंसो होय।
समरथ कों नईं दोस गुसाईं।
समाचार सड़वा के पाये। जब लाहकौरे भादा आये ॥
(१-लहकौर विवाह की एक रीति जिसमें दूल्हा और दुलूहिन एक दूसरे के
मुँह में कौर देते हैं।) लहकौर में जब भठे का साग आया तो उससे ही पता
चल गया कि लड़की वाले बरात का कसा स्वागत करेंगे ।
समाँ समासे जात है, कोदों भर अदरात।
(१-संघध्या समय।) साँवाँ और कोदों को कभी-कभी ऐसा रोग लग जाता है
कि वे देखते-देखते नष्ट हो जाते हैं।
सभा सुहाते बोलिये जासों रीझे राय।
समासे के मर को कानों रोईअत ?
संध्या के मरे को कहाँ तक रोया जाय ? अभी से यह हाल तो कैसे पूरा
पड़ेगा ?
समनन्दर कौ करार गिरी, कई छींठा मोरे ऊपर परे।
गप्प हाँकना ।
समुन्दर में सूखा परबो।
अनहोनी बात ।
संमुरदर पाठयो।
असंभव काये ।
- सयानो कौओआ ग् में चोंच भिड़ाउत। जे है ॥६... पर पा के
जो जितना सयाना होता हैं कह उतना ही नीचा भी. देखता है ।
सरग उठायें फिरत। .. जप
आफत मचाना । ... ९ ०५
सरग तरंयाँ टोरबो। ।
आकाश के तारे तोड़ना । असंभव काये करना । किसी कार्य में अफ़ती पूरी
शक्ति लगाना । . हुगित
न - ०
सरोौ] बुन्देली कहावत कोदा
सरग फर्े तो कानों थींगरा रूगाउत ?
विपत्ति का पहाड़ ही टूट पड़े तो कहाँ तक संभाला जाय ? .
सरग मूँड़ पे घर फिरत।
दे० सरग उठाये फिरत |
सरग से गिरे बब्र में अटके।
बड़ी विपत्ति से किसी प्रकार निकले तो छोटी में फंस गये ।
सरगे आग लगांउत। द
स्वर्ग में आग लगाता है, ऐसा आततायी है ।
सरगे थिंगरा लूगाउत।
बहुत काइयाँ ।
सरतारों बानिया का करे, सेरई बाँद तौले।
दे० ठालो बानिया।
सरबस जातन जो दिखे आधो दीजे बाँट।
सरम' के अँसुआ निकर गये।
( १-शरम, छाज ।) किसी के बेशरम बन जाने पर कहते हैं।
सरमदार अपनी सरम को मरो, बेसरम ने कई सोसें डरो।
झर्मदांर ने तो दूसरे का लिहाज किया, परन्तु बेशर्म ने समझा कि यह मुझसे
डर गया । ;
सरमीलो माँगे नई, गर्वोलो देय नहं।
शर्मीला माँगता नहीं, और गर्वीला बिना माँगे देता नहीं ।
सरी' गदइया, पीतर कौ खरौरो।
( १--सड़ी हुई, दुबली पतली, कगजोर ।) बेमेल काम ।
सरी घरिया हाल लगाम।
करो फफूंड़ो एकई भाव। .
अंधेर की बात ।
_ ३०८ “-
बन्देली कहावत कोश ] [ सहर
सरो सुत दर्जी कों खोर।
सड़ा हुआ कपड़ा और दर्जी को दोष । अपनी त्रुटि कोई नहीं देखता ।
ससरार कौ रेबो, गदा कौ चड़बो।
ससुराल में बहुत दिनों रहने से अपमान होता है।
ससरार सुख की सार, जो रये दिना दो चार।
ससुरार सुख की सार, प॑ रहे दिना दो चार।
जो रहे मास पखबार, हाथ में खुरपी बगल में फार।
इवशुर गृहं परमसुखं त्रिरात्राचछूनकसमानः |--संस्कृत
सासरा सुखवासरां, ने बे घड़ीनां आसरा,
तीजें दाहड़े रहें तो खाय खासड़ां ।--गुजराती
असार संसारे सार दवशुरेर घर |--बंगला
ससुर खाँ परी हार-फार कौ, बऊ खाँ परो खेंगवार' को।
( १-गले में पहिनने का चाँदी या सोने का आभूषण, खँगोरिया, हँसुली ।)
ससुर को तो हल-बखर की पड़ी है और बहू को इस बात की कब मेरी हँसुली
बने । सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है ।
सहज पके सो मोठो।
जो काम सहज में बने वही अच्छा होता है ।
सहर चंदेरी मो मनवाला | तिरिया राज, खसम पनहारा'॥
( १-पानी भरनेवाला, ढीमर, कहार। ) चदेरी नगर मेरी पसंद का है।
वहाँ स्त्री का तो राज्य है और राजा पनहारा है। अंधेरगर्दी से जहाँ पूरा
लाभ उठाने का अवसर हो वहाँ के लिए कहते हैँ ।
चेदेरी मध्यभारत का एक प्राचीन नगर है जो पहिले ग्वालियर राज्य में
था। ललितपुर से २१ मील दूर बेतवा के तट पर बसा हैं। सत्तरहवीं शताब्दी
के अंत में मुगलों की शक्ति क्षीण होने, पर यहाँ बुन्देलों ने अपना आधिपत्य
जमा लिया था। लूगभग सौ वर्ष तक वे शासन करते रहे। परन्तु सन् १८१५
में महाराज दौलतराव सिंधिया ने तत्कालीन बुन्देला नरेश मोर प्रह्मांदे . ...
से चेंदेरी छीन ,लिया। मोर प्रज्लाद के संबंध में कहा जाता है कि बहू बड़ा
शराबी और कायर था। संभव है उपर्युक्त कहावत उसको लछेकर ही बनी हो।
“- ६०९ का,
साँप | [ बुन्देली कहावत कोश
साँची बात सादुल्ले' कयें, सब के मन से उतरे रये।
( १-नाम विशेष। यह औरंगजेब का इतिहास-प्रसिद्ध सेनापति और मंत्री
सादुल्ला खां भी हो सकता है। वह अपनी व्यायप्रियता और निर्भीकता के
लिए विख्यात है ।) सच बात कहनेवाले से सब नाराज रहते हैं ।
साँचे को जमानो नइयाँ।
सच्चे का जमाना नहीं । जब कोई सच कहे और उसकी बात न मानी जाय तब
कहते है ।
साँचे तो फाके करें, छाबर' लड्डू खायें ।
. ((-न्झूठे ॥)
साँझे धनुस सकारें पानी।
संध्या को यदि आकाश में इन्द्रधनूष दिखायी दे तो दूसरे दिन पाती बरसता है ।
साँड साँड़ लर बारी को भुरकन होवे।
सॉडन सॉडन की लड़ाई।
बड़ों बड़ों की लड़ाई ।
साँप के गोड़े साँपई कों दिखात।
साँप के पैर साँप को ही दिखायी देते हूँ । अपनी विपत्ति आदमी आप ही जानता
है, दूसरा नहीं जान सकता ।
साँप के फत से देअ खुजाउत।
साँप के फन से देह खुजाते हैँ। जानबूझ कर अनर्थ करते हैं ।
साँप के बिले में हात डारबो । ह
बेठे-ठाले विपत्ति मोल लेना । ०
साँप के मेर मरे छों आऊत।
मरते-मरते तक साँप के विष की लहर शरीर में दौड़ती है । दुष्ट और विद्वास- _ हु क्
घाती का आक्रमण भयंकर होता है । 4
+ ३१७ -
बन्देली कहावत कोश ] [ साइत
साँप मर न लाठी टूटे ।
साँप मर जाय, पर छाठी न टूटे । काम बन जाये और हानि भी न हो । युक्ति
से काम बेना ।
साँस आयें नार नईं खात।
(१-मनाहर, शेर ।) सामने पहुँच जाने पर शेर भी नहीं खाता । आत्म-समर्पण
कर देने पर कठोर से कठोर आदमी का हृदय पसीज जाता है।
साँसी कर्य मौसी कौ काजर।
सच कहने से मौसी का काजल ! सच ब्रात कहने से कोई तिनक उठे तब ।
इसकी एक कंथा है कि कोई एक व्यक्ति बड़ा मुँहफट और स्पष्टवादी था।
लोगों ने इस कारण उसका नाम साँचेरैया' रख छोड़ा' था। एक बार साँचेरेया
अपनी मौसी के यहाँ गये। धीरे से दरवाजा खोल कर भीतर पहुँचे तो देखते
कया हैं कि मौसी बड़े टिमाक से अपना श्वृंगार कर रही हैं और वहीं मौसिया
भी खड़ें हें। यह देख कर वे उल्टे पैरों बाहर लौट आये और चुपचाप दरवाजे
पर बेठ गये। थोड़ी देर बाद मौसी बाहर निकली तो साँचेरेया' को बैठा
देख कर पूछा---अरे, तू कब आया ?” साँचेरेया ने तुरंत उत्तर दिया जब
तुम काजल लगा रही थीं और मौसिया खड़े हँस रहे थे।' सुनते ही मोसी
आग बबूला हो गयी और--अरे तोरो खोज मिठे, मौसी से हँसी करत' यह
कह कर उसे मारने दौड़ी। साँचेरैया वहाँ से भाग दिये। मौसी भी उनके
पीछे दौड़ी। परन्तु वे हाथ नहीं आये और अपने घर वापिस लौट गये।
इसके पश्चात सच' बोलने के कारण जब कभी कोई विपत्ति उनके सामने
आती तो उन्हें काजल वाली घटना का स्मरण हो आता और वे यही कहते...
कि लो सांसी करयये मौसी को काजर।
साँसी को रंग रूखो।
. सच बात रूखी होती है। सुनने में अच्छीं नहीं लगती ।
साइत ते सुतार भलो।4....... ... .... नस
किसी काम का मुहूत्त देखने की अपेक्षा उसका प्रबंध ठीक करनां अच्छा । : न "
2 ७
सारी | [ बुन्देली कहावत कोड
साके' कौ ब्याव, सनोरत' कौ उजयारो।
(१-साका कीति यश, २-सनोरा सन की पतली लकड़ी जो श्यीघत्र जल जाती
है।) विवाह की बड़ी ख्याति पंरन्तु सनोरों का उजियाला ! धूमधाम तो बहुत,
काम कुछ नहीं।
साजन-साजन दुर मिल झूठे परे बसीठ ।
. लड़ाई-झगड़े के बाद दो मित्र तो आपस में मिल जाते हैं। परन्तु बीच नें
भिड़ाने वाले बदनाम होते हैं।
साधुअन कों स्वाद से का काम ?
0 साधुओं को स्वाद से क्या काम ? अपनी निस्पृहता दिखा कर काम बनाना ।
एक साधू महाराज किसी के दरवाजे पर पहुँचे और मक्खन माँगने
लगे। भीतर से घर की मालकिन ने उत्तर दिया--महाराज, अभी तो
बिलोया नहों थोड़ी देर में ले जाइये। साध ने. कहा--कोई बात नहीं बाई,
बिलोया नहीं तो बिन बिलोया ही दे दो। साधुओं को स्वाद से क्या
काम ? स्त्री ने बिना बिलोया दही छाकर दे दिया और साधू ने उससे
अपना काम चलाया।
साध् निकरे सेर को दोइ दीन की खर।
ना काऊ से दोस्ती, ना काऊ से बेर ॥
भीख सांगते समय साधू कहते हें ।
साबुन-सज्जी निबुआ नोंन । और दाद कौ ओखद कौन ?
साबुन, सज्जी, नीबू का रस तथा नमक इनको मिलता कर लगाने से दाद अच्छी
होती है ।
सारस कंसी जोड़ी । |
दो घनिष्ठ प्रेमियों के लिए कहते हैं ।
सारी न सगराज, सासई से ररी | ” क्
( १--पत्नी की बहिन । २-सलहज, साले की स्त्री । ३-रलछी, हँसी-मजाक)
साली और सलहज नहीं तो सास से ही मजाक । अपने से बड़े,से हँसी-मसखरी
करने पर । |
*» ३१ जक
बन्देली कहावत कोद | [ आदे
सालिगराम के सालिगरास दरबटना के दरबटना।
दे० बाबाजू के बाबाजू।
सावन घुरिया भादों गाय, माघ मास जो भैंस ब्याय, जीसें जाय के खसमें खाय ।
लोगों का विश्वास है कि यदि सावन में घोड़ी, भादों में गाय, और माघ मास
में मेंस बियावे तो या तो स्वयं मर जाती है या उसका मालिक मर जाता है।
सावन चले पुरवाई, तालन तिली बुआई॥
सावन में पुरवाई चलते से पानी नहीं बरसता, इसलिए उन तालाबों में जो
रबी को फसल के लिए सुरक्षित रखे गये हों, तिली का बो देना उचित है ।
सावन मास चले पुरवाई।
बरधा बेंच विसाहों गाई।।
सावन पछवाँ सोंक डुलावे। बरसत मेघ कौन बिलगावे॥
सावन में थोड़ी भी पछवाँ चले तो पानी फिर कौन रोक सकता है ? भर्थात
खब बरसता है ।
सावन मे पुरवंया भादों में पछयाव। .
हरवारे हर छाँड़ कें लरका जाय जिवाव॥॥
सावन में यदि पुरवाई और भादों में पछवाँ चले तो फिर सूखा पड़ता है।
ऐसी अवस्था में किसान को खेती की आशा छोड़ बाल-बच्चों के भरण-पोषण
के लिए कोई दूसरा धंधा करना चाहिए ।
सावन ब्यारी जब तब कीजे । भादों बाको नाव न लीजे ॥
क्वॉर मास के दो पखवारे । जतनः. जतन से टठारो प्यारे॥
आदे कातिक होय दिवारी। ठेलमठेला करो ब्यारी॥
सावन में ब्यालू कभी कभी ही करना चाहिए । भादों में उसका नाम नहीं
लेना चाहिए। क्वाँर में बहुत संभल कर रहना चाहिए। उसके बाद आधा
कात्तिक बीतने पर, जब दिवाली हो जाय, खूब पेट भर भी ब्यालू करे तो कोई
चिन्ता की बात नहीं । 8
ध् 4 अइआ
सासे | | बन्देली कहावत कोश
सावन में ससरारी गये, पुस में खांये पुआ।
चेत में छेला पुछत डोलें, तुम्हरें केतिक हुआ ॥
छेल-चिकनिया किसान पर व्यंग्य । सावन में ससुराल गये । पूस में मौज
से पुए खायें। इस तरह अपनी खेती तो चौपट कर दी । अब चंत में दूसरों से
पूछते फिरते हैं कि तुम्हारे कितना हुआ ?
सावन सुक्ला सप्तमी जो गरजे अधरात।
(तौ) तुम जेयो पिय मालवा, हम जेहें गुजरात ॥
. सावन में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को यदि आधी रात के समय बादल गरजें तो
समझना चाहिए कि सूखा पड़ेगा । इसलिए किसी किसान की स्त्री अपने
पति से कह रही है कि है प्रियतम ! उस दशा में अच्छा यह है कि तुम तो
मालवा जाना और में गृजरात चली जाऊंगी ।
सावन सूखे स्यारी । भादों सूखे उनारी॥
सावन में पानी न बरसने पर खरीफ और भादों में न बरसने पर रबी की
फसल को हानि पहुँचती है ।
सावन सूख धान । भादों सूखे गोऊं॥॥
सावन में पानी न बरसने से धात और भादों में न बरसने से गेहूँ सूखते हैं ।
सास मरी, बऊ कौ राज।
सास के मर जाते पर बहू की मौज बनती है।
सास मरी बऊ ब्यानी, बे फिर तोनऊ के तीन।
लेखा-जोखा फिर ज्यों का त्यों ।
. सास से बेर-परोसिन से नातो।
लड़ाई-झगड़ा करने वाली स्त्री के लिए ।
सासे न भावे सो बऊए टिकावे।
सास को जो वस्तु अच्छी नहीं लगती वह बहू को देती है । अपने को कोई चीज
पसंद न आने पर उसे दूसरों के मत्थे मढ़ना ।
ल्ेन मे शेड लक
को
ब॒न्देली कहावत कोश | [सींग
सिंह के बचा सिंह (अ) ई होत।
सिंह के बच्चे सिंह ही होते है।
सिंह चड़ी देवी मिलें, गरुड़ चड़े भगवान।
बेल चड़े शिवजी मिलें, अड़े सवार काम ॥
आशीर्वाद ।
सिकअये' पृत दरबारे नई जात।
( १--सिखाये हुए ) सहज-बुद्धि के बिना कोई काम केवल सिखाने से नहीं
किया जा सकता ।
मागी अक््कल ने दीबी शिखामण काम आवेनहि---गुजराती
(माँगी हुई अकक््छ और दी हुई सीख काम नहीं आती)॥
सिर बड़ो सरदार कौ, पाँव बड़ो गेंवार को।
सिर बड़ा सपूत का पैर बड़ा कपूत का ।
सिरा सिरा के खाओ। ५
ठंडा करके खाओ | उतावली मत मचाओ । धीरज से काम ली ।
सिल़ारे' कों सिलारो नई सुहात।
(१-सिलारा, संस्कृत-शिलकार खेत में गिरा हुआ अनाज बीननेवाला।)
सिलहारे को सिलहारा नहीं सुहाता । एक ही धंधा करने वाले एक दूसरे को
नहीं देख सकते ।
सींके की ट्टन बिलइया की लपकन।
दे० बिलइया के भाग्गन।
सींक होक घुसे, मूसर होक कड़े।
किसी जगह थोड़ी घुसपैठ करके पृर्त अधिकार जमा लेना | ५
सींग टोर बछेरुअन में मिलबो।
सींग तोड कर बछड़ों में मिलना ॥ जेठाई का ध्यान न रेख कर लड़कों में
उठना-बैठना और हँसना ।
- रेश५-
सुख | [ बुन्देली कहावत कोश
सींग मुड़े मसाथो उठी, मों कौ होवे गोल।
रोम नरम चंचल करन तेज बेल अनमोल ॥
अच्छे बैल के लक्षण ।
सीख तौ बाकों दीजिए, जाकों सीख सुहाय |
सीख ने दीजे बाँदरे, घर बेय्या कौ जाय॥
मूर्ख को उपदेश नहीं देना चाहिए ।
कथा---किसी जंगल में बबूल के एक पेड़ पर बया पक्षी का एक जोड़ा रहता
था। एक दिन जब वें दोनों अपने घोंसले में आनंद से बैठे हुए थे बाहर जोर
का पानी बरसने लगा। इतने में वर्षा के जल से भींगा और ठंड से कांपता
'. हुआ एक बंदर आया और वहीं पेड़ के नीचे बेठ गया। उसे इस तरह भींगा
. हुआ देखकर बया की स्त्री ने कहा :--
मानस कंसे हाथ पाँव, मानस कीसी काया।
चार महीने वर्षा बीती, छप्पर क्यों नहिं छाया ॥।
सुनकर बन्दर को बड़ा क्रोध आया और उसे गाली देकर बोला कि अरी
चुड़ल, तेरी इतनी घृष्टता कि मेरी हँसी उड़ाती है। ले अभी तुझे इसका
मजा चखाता हूँ । बया ने अपनी स्त्री को समझाया कि तू काहे को बीच
में पड़ती है । जब कोई स्वयं कोई बात पूछे तभी कहना चाहिए। परल्तु
_तब तक बंदर ने पेड़ पर चढ़ कर उनके घोंसले को टुकड़े-ट्कड़ें करके फेंक
दिया । यह कुटठी दृषक जातक है। पंचतंत्र में इसकी कथा मिलती हैं।
(११८) और कथान्सरित्सागर में भी।
सीखासीख परोसन की, घर में सीख जिठनियाँ की ।
दूसरों की बातों में आना ।
सुक्रवार की रात, कर नई बात।
लोक-विश्वास है कि शुक्रवार की रात को कोई काम की बात करने से वह
सफल ूहीं होती । हु
सुख संपत औ औदसा' सब काहू के होय।
ग्यानी कार्ट ग्यान से मूरख काटे रोय॥
(१-विपत्ति ।)
- ३१६ -
बन्देली कहावत कोश | [ सकी
सुगर! तार औ पोथी पढ़ी।
भरी तुबकों ओऔ घोरें चढ़ी॥
इक नागिन दों पंख लजायें।
केसे बचे तीन के खायें।॥
(!-सुघड़ चतुर। २--बंढुक)
+ सुन सुन गीता फूट कान । तऊ' न उपजो रंचक ग्यान॥
(१-तो भी)
सुनिये सबकी करिये मन की।
बात सबकी सुननी चाहिए, परन्तु करना वही चाहिए जो उचित जान पड़े ।
सुकी के संग तींतीं जर जातीं।
सूखी लकड़ियों के साथ गीली भी जल जाती है। एक के उत्साह से दूसरे भी
कुछ न कुछ कर दिखाते हैं ।
सुके आस प टुइयाँ नई बठत।
( १-तोता का बच्चा अथवा मादा तोता ।) सूखे आम पर टुइयाँ नहीं बैठती ।
क्योंकि वहाँ कुछ खाने को नहीं मिलता । ।
सूकी जुंरें ना, चुपरकें और चार ठठआ।
सूखी तो खाने को नहीं मिलतीं, चुपड़ कर चार और खाने को माँगते हैं !
सूके संज बज दिन राती। |
ऊपरी तड़क-भड़क बहुत, पर घर में खाने को नहीं ।
सके हाड़ चब्राबो। .
भूख से व्याकुल होकर जो मिले सो खाना ।
सुको टरका देंबो।.. ः 5,
द कोरा टरका देना । देना-लेना कुछ नहीं, केवल बातों से संतुष्ठ करना ।
“* गेरि७
सूप | (बन्देली कहावत कोश
सुज ने कर, आगौनी दिखा ल्याव।
... (१-विवाह के दिन लड़की वाले के दरवाजे पर धूमधाम से दूल्हा समेत बरात
के आगमन का दृश्य ।) आँख से तो दिखायी नहीं देता, और कहते हैं---
बरात का जलस दिखा लाओ ।
सुत न पौनी, कोरी से लठमलठा।
बिना कारण लड़ाई ।
सूदरे सुदामा ।
कम सुदामा की तरह सीधे । व्यंग्य में ।
सुदी उंगरियन घी नईं निकरत।
सीधी बातों से काम नहीं निकलता ।
. सूंदे को मों कुत्ता चाटत।
.. सीधे का मुँह कुत्ता चाटता है ।
सुदो ताव महेरी को ।
( (-मठे के साथ पका कर बनाया गया ज्वार, मक्का आदि का दलिया ।)
अर्थात हम तो सीधी बात यह जानते हैं । इधर-उधर की बातों का संक्षिप्ती-
करण करके कहना ।
सूनी सार भली के सरका बेल ?
. दे७ सरका बेक।
सुने घर को पावनों।
सूने घर का पाहुना, आकर चुपचाप लौट जाता है ।
सूनो घर भंड़यन' को राज।
(१-भेंडया, चोर ।) जहाँ कोई नहीं होता वहाँ चोर-उचक्कों की बन
आती«है ।
सृप उतार लो, नाव हरई हो जाय। हे
(१-हेलकी) किसी पर बहुत बोझा लदा हो तो थोड़ा कम करने से हि
क््यां होता है? ...' १
“ रै१८ -
बुन्देली कहावत कोद | [सेर
सुप बोले तो बोले, चलनी का बोल, जीमें बहत्तर छेद।
जो स्वयं अवगुणों से भरा है वह भी दूसरों के दोष देखे तो यह हँसी की बात है।
सूप हँसे त हँसे चलूनियो हँसे जवना का सहसरि गो छेद--भोजपुरी
छाज न बोले छाबड़ी तू क्या बोले चालनी थारे अठोतर सौ बेझ।
“राजस्थानी
बले--छुंचतोर पोंदें केत छेंदा। आपन दोष देखेना जार सार्वागई
चाल॒नि बेंधा |--बंगाली
(चलनी कहती है कि, सुई तेरे पोंद में छेद क्यों ? परन्तु अपने दोष नहीं
देखती जिसके सर्वाग में छेद ही छेद हें।)
सुप से कऊ सुरज ढकत हे ?
सूप से भी कहीं सूर्य ढकता है ?
सुरज को दिया बताउत।'
सूर्य को दीपक बताते हैं ।
सुरदास की कारी कामर चढ़ें न दूजो रंग।
जैसे काली कंबली पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता उसी तरह किसी आदमी के जन्म-
जात स्वभाव को बदला नहीं जा सकता ।
सूरदास खल कारी कामरि चढ़े न दूजौ रंग।
सूरा न््योतो न दो बुलाओ।
दे० न अँदरा न्योतो 4
सेंत के धान मौसिया कौ सराध।
दूसरों के पैसे से अपना काम बनाना । मुफ्त का माल लुंठोना क्
हलवाई की दूंकान दादाजी की फातिहा--फंलन
सेंत कौ चंदन घिस मोरे लल्ल। जज
दे० मुफ्त कौ चंदन। : ९ न
सेर की चार, पसेरी कीं चेया १ तुम लेओ च्यर, हमें देओं चेया।॥
सेर की चार और पसेरी की चार, इस तरह चार-चार रोटियाँ बनाओ । चार
तुम लो और चार (पर्सेरीवाली ) हमें दो । अपना ही मतलब अधिक देखना ।
- ३१९ -
सोउत | [ बुन्देली कहावत कोश
सेर कों सवा सेर मिलई जात।
सेर को सवा सेर मिल ही जाता है। चालाक के साथ उससे अधिक चालाकी
“करने वाला मौजूद रहता है ।
सेर में पौनी नई कती ।
. अभी तो कुछ भी काम नहीं हुआ ।
सैर सेरं राँडे रोवें, दो दो सेर ऐबातोी।
कप दे० राड़ें रोवें।
.... सेवा करे सो सेवा पावे।
. «.« » सेंवा का फल अच्छा होता है ।
. सॉज कौ बाप लड़हयन खाओ।
५ साझे के बाप को सियार खाते हैँ । अर्थात साझे का काम स्देव बिंगंड़ता है ।
साझे की हंडी चौराहे पर फूटे --फलन
साझे की मां गंगा न पावे--फंलन
सीरी माँ ने स्यालिया खाय--राजस्थानी
(साझे की मां को सियार खाते हें) ।
भागीचें धोड़ें किवणानें मेलें।--मराठौ
(साझें के घोड़े को कीड़े खाते हें )।
भाग्यानी .भेंस भुखी मरे--गुजराती ._
(साझे की भेंस भूखी मरती हैं)।
भागेर ठाकुर भोग पाय ना--अंगलूा
सोज, सगाई, चाकरी (जे) सब राजी के काम ।
सोंटा बाजे छमछम, तो विश्वा आवे घमपम।
पिटे बिना विद्या नहीं आती ।
सोउत नार जगाउत।
सोता हुआ नाहर जगाते हैं। बैठे-बिठाये विपत्ति मोल लेते हैं ।
सोउत बर जगाउत।
, सोती बरे जगाते हैं ।
- ३२० -
बन्देली कहावत कोश ] [ सोरयें
सोदा-लंगोठा से ।
जैसे कोई हाथ में लकड़ी लेकर और लंगोट पहिन कर घ्मता है उस तरह
फक््कड़ बन कर घमना । खाली हाथ फिरना।
सोने कौ घर माठी कर दओ।
. सब घर बरबाद कर दिया ।
सोने में सुगंध ।
अच्छे में और अच्छाई ।
सोने में सुहागा।
अच्छा संयोग जुटना । सुहागा सोने को और उज्ज्वल बनाता है ।॥
सोनों जानिये कर्तें। मानस जानिये बसे।
सोने की कसौटी पर कसने से और मनुष्य की पास बसने से परीक्षा होती है।
सोनें पाहावें कमून। माणस पाहावें वसून--मराठी
सोनों छएँ माटी होत।
अभागे कर्महीन के लिए कहते हैं ।
सोनों बिगरो सुनार घर । बिटिया बिगरी बाप घर॥
सोना सुनार के घर जाने से बिगड़ जाता है। (वह उसमें खोट मिलाये बिना
नहीं रहता ।) उसी प्रकार लड़की भी बाप के घर रहने से बिगड़ती है ।
क्योंकि मायके में उस पर विशेष नियंत्रण नहीं रह पाता ।
बापेर बाड़ी झी नष्ट पान््ता भाते घी नष्ट |--बंगला
(बाप के घर लड़की नष्ट, बासी भांत में घी नष्ट ) ।
सोम, सुऋ्र, सुरगुरु की जोय, पूहुमी फूल फलंती होय। रा
सोम, शुक्र और बृहस्पतिवार के दिन जन्म लेनेवाली स्त्री पृथिवी पर खूब
.... सोरयें सयान, बीसे ज्ञान, पचीसे भान)
सोलह वर्ष में लड़का सयाना हो जाता-है, बीस में उसे बोध होता*्है, और पत्ची-
से में संसार का अनुभव होने लगता है ।
- शे३२१ -
बु०-२१
सौत ] [ बुन्देली कहावत कोश
सोरा हात की सारी, आदी जाँग उगारी।
फहड़ स्त्री के लिए ।
सोरा से के करे हजार।
घी की आँख करो रुजगार ।
घर का ही कोई लड़का अपनी अनुभवहीनता के कारण व्यापार में हानि उठा
जाय अथवा कोई और काम चौपट कर दे तब कहते हैं ।
सोचे सो खोबे, जागे सो पावे।
_.. जो काम करता है वही पाता है ।
सोके साठ करबो। क्
नासमझी के कारण व्यापार में हानि उठाना । काम बिगाड़ देता ।
सौकीन गुंडा रेंट' कौ अतर। द
.._(१-नाक का मैल ।) बेमेल सजधज के लिए
सो गुंडा एक मुछमुंडा।
एक मुछ मुंडा सौ गुंडों के बराबर होता है।
सौ जनन में परखा लो।
अर्थात हमारी चींज खरी है। चाहे जिसे दिखा ली ।
सौंडंड एक लिपटंत।......
सो डंड कुइती की एक लिपटंत के बराबर होते हैं। अर्थात डंड से कुश्ती अच्छी द ५
होती है । ता गा
सो डंडी एक बुन्देलखंडी।
सो डंडेवालों अथवा कसरती जकनों की बराबरी एक बन्देलखंडी करता है। क्
इसमें किसी ने यहू पंक्ति भी जोड़ रखी है--सौ बधेलखंडी एक बुन्देलखंडी। .....
सौत चून की बुरई होत। हा
सौत आटे की भी बुरी होती है ।
“ बैर२ --
बन्देली फहावत कोश | [सौ
सो बक्का, एक लिक्खा।
सो बकवादी एक लिखनेवाले के बराबर होते ह ।
सौ बातन की बात।
अर्थात सारांश की बात ।
सो बेर चोर की एक बेर साव की।
चालाक आदमी कई बार अपराध करके भले ही बच जाय, परन्तु कभी-त-कभी
पकड़ा ही जाता है और अपनी चालाकी का दंड पाता है।
सो मार और एक न गिनें।
निकम्मे के लिए ।
' सौ में फुली, सहत में काना, एक लाख में ऐचकताना;
ऐचकताना करी पुकार, सें मानी कंजा सें हार।
कंजा मानी वास हार, जी के नइआँ छाती बार।
सौ में सती, लाख में जती।
सेकड़ों स्त्रियों में एक सती होती है, और लाखों पुरुषों में एक यती ।
सो लठेत, एक पर्टेत।
सौ लाठीवालों को एक पटेबाज हरा देता है।
सौ लों गिनती, हा हा लों बिनती।
दे० हा-हा लों बिनती।
सौ सयाने एक मता।
. सब सयानों की एक ही राय होती है।
सौ ल्यावे रॉड़ी, एक न ल्यावे छाँड़ी।
चाहे सौ विधवा भले ही रख ले, परन्तु५किसी की छोड़ी हुई स्त्री कथ्री न रखे ।
कं . सौ सुनार की, एक ल॒हार की।
सुनार की सौ चोट लुहार की एक चोट के बराबर होती है। जबर्दस्त की एक
चोट ही भयंकर समझनी चाहिए। :
- हेश३ -
हँसी ] [बुन्देली कहावत कोश
सौं सौ जूता खायें तमासों घुसक देखें।
लड़ाई झगड़ों की परवा न करके जबद॑स्ती तमाशा देखने वालों पर व्यंग्य ।
हज हे
हँड़िया कौ एक सीत ठटोउनें आऊत। (सबरी हँड़िया में हात नई डारनें आऊत)
हाँड़ी का एक चावल देखने से ही पता चल जाता है कि सब चावल गल गये
या नहीं । पूरी हाँडी में हाथ डालने की आवश्यकता नहीं पड़ती । एक बात
से मन का सारा हार जान लिया जाता है ।
हँड़िया है सरमदार, छः मइना में चुरे दार।
पावनो है गम्मलोर, बरस भर न छोड़े दोर॥
किसी के यहाँ कोई फालतू मेहमान आ गया । घर की मालकिन ने उसे टर-
काने के उद्देश्य से कहा--भोजनं आपको बहुत विलंबं से मिलेगा । मेरी
हाँड़ी बहुत शर्मीली है। उसमें छे महीने में दाल पकती है। इस पर
मेहमान ने उत्तर दिया---कोई चिन्ता की बात नहीं । मैं भी बढ़ा गमखोर हूँ ॥
एक वर्ष तक तुम्हारा घर नहीं छोड़ंगा। मेहमानदारी करनेवालों पर व्यंग्य ।
हँते कों हनिये, पाप-दोख ना गिनिये।
जो दूसरों को मारे उसे मारने में कोई पाप नहीं ।
हँस की चाल टीटरी चली, गोड़े उठाक भों में परी १
दूसरों का अनुकरण करके चलने में हानि उठामी पड़ती है।
हँस लो के बात कर लो।
एक बार में एक ही काम हो सकता है ।
हँसी में निरस ।
हँसी-हँसी में झगड़ा हो जाना ।
हँसी की हंसी और दुःख को दुःख।
एक साथ हँसी और दुख की बात ।
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तल बेश्ड -
९
बुन्देली-कहावत कोश-] [ हरलाल
हजामत बन गई।
ठग गये ।
ह॒तेरी प॑ आम. जमाबो ।
काम में बहुत उतावली करना ।
हम का गदा चराउत रये!
हम क्या गधे चराते रहे ? अर्थात् हम क्या निरे मूर्ख है ?
हमने कौन तुमाये हात के करिया तिल खाये।
अर्थात हम तुम्हारे किसी बात के ऋणी नहीं ।
लोक-विश्वास है कि किसी मनुष्य या ढोर को काले तिल खिलाने से वह
सदैव के लिए वश में हो जाता है। इस विश्वास के अनुसार किसान जब कोई